न्यायमूर्ति अजीत सिंह बैंस- साहस की प्रतिमूर्ति

न्यायमूर्ति अजीत सिंह बैंस- साहस की प्रतिमूर्ति
February 19 11:09 2022

11 फरवरी, 2022 को न्यायमूर्ति अजीत सिंह बैंस (सेवानिवृत्त) के आकस्मिक निधन ने मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के बीच एक शून्य पैदा कर दिया है। वे जीवन के 100 वर्ष पूरा होने से केवल तीन महीने दूर थे। इन वर्षों में वे मानवाधिकारों के क्षेत्र में एक महानायक बन गए थे। यदि हम उनके पूरे जीवन को एक नजऱ में समेटने की कोशिश करें तो पाएंगे कि यह तीन भागों में विभाजित है। पहला, जब वे पेशे से वकील थे; दूसरा, जब वे पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय चंडीगढ़ के जज थे और तीसरा, जब परिस्थितियों ने उन्हें एक विशेष प्रकार का मानवाधिकार चैम्पीयन बनने का अवसर दिया।

बुनियादी डिग्री प्राप्त करने के बाद, वे जालंधर में अर्थशास्त्र विभाग में शिक्षक बन गए और एलएलबी की डिग्री हासिल करने के लिए लखनऊ चले गए जहां उनके मामा सैन्य सेवा में तैनात थे। जस्टिस बैंस ने 1954 में होशियारपुर के जिला न्यायालय से प्रेक्टिस शुरू की और अंतत: 1961 में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय में स्थानांतरित हो गए। वे मुख्य रूप से दलितों और हाशिये पर आ चुके व्यवस्था के शिकार पीडि़तों के मामलों के प्रति बहुत ही समर्पित वकील थे। जस्टिस बैंस 1964 में बार काउंसिल के लिए चुने गए और पंजाब सरकार द्वारा उन्हें डिप्टी एडवोकेट जनरल नियुक्त किया गया। वह वर्ष 1972 में पंजाब और हरियाणा बार काउंसिल के अध्यक्ष भी बने।

समय के साथ उनकी त्रुटिहीन सत्यनिष्ठा और समर्पण को ध्यान में रखते हुए 1974 में उन्हें पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय बेंच में न्यायाधीश के रूप में पदोन्नत किया गया जहां वे मई 1984 में सेवानिवृत्ति होने तक रहे। उनकी अनूठी न्यायिक घोषणाएं पीड़ित के कानूनी अधिकारों की रक्षा करती थीं। हर वादी चाहता था कि उसका मामला जस्टिस बैंस की बेंच के सामने सूचीबद्ध हो। उनकी कई न्यायिक घोषणाएं कानूनी पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं और उन्हें अभी भी कानूनी थीसिस और साथ ही पाठ्यपुस्तकों में उद्धृत किया जा रहा है।

अस्सी के दशक में जहां तक मानवाधिकारों और राज्य के उत्पीडऩ का सवाल था, भारत में उथल-पुथल मची रही। उनकी सेवानिवृत्ति के एक पखवाड़े के बाद 14 मई, 1984 को ऑपरेशन ब्लू स्टार हुआ, इस प्रक्रिया में आम जन के जान-माल का भी बहुत नुकसान हुआ। उसी दौरान दिल्ली और देश के अन्य हिस्सों में सिख समुदाय का नियोजित नरसंहार किया गया था जिसको राज्य रोकने में असफल रहा और राज्य एक गैर-पेशेवर की भूमिका में भी दिखा। मानव अधिकारों के गंभीरतम उल्लंघन के ऐसे प्रकरणों को कोई भी समझदार और संवेदनशील व्यक्ति सहन नहीं कर सकता है। अपना उपन्यास “1984”(वर्ष 1948 में) लिखते समय जॉर्ज ऑरवेल ने यह नहीं सोचा होगा कि उनकी किताब को वर्ष 1984 में इस प्रकार से चरितार्थ होते हुए दुनिया देखेगी।

जस्टिस बैंस को इस अवधि के दौरान विषय की गहराई में जाने का मौका मिला, जब उन्हें तत्कालीन बरनाला सरकार द्वारा पंजाब और अन्य राज्यों की विभिन्न जेलों में बंद हजारों बंदियों के लंबित मामलों की जांच के लिए समिति के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त किया गया था। समिति ने सभी मामलों की जांच की। लगभग छह हजार रिपोर्ट संकलित की गई और ढाई महीने के रिकॉर्ड समय में सरकार के सामने पेश की गई।

बैंस समिति के निष्कर्षों के अनुसार इन बंदियों के खिलाफ कथित आरोप साबित नहीं हुए थे। सरकार के लिए यह बहुत शर्मनाक बात थी कि हजारों-हजार युवाओं को बेवजह हिरासत में लिया जा रहा था और प्रताड़ित किया जा रहा था। सरकार ने रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं की लेकिन हिरासत में लिए गए युवकों को तत्काल प्रभाव से छोड़ दिया गया। पंजाब में ऐसे परिजनों के लिए यह दीवाली से भी कहीं अधिक था जब माता-पिता, बहनों और बच्चों ने क्रमश: अपने पुत्रों, भाइयों और पिताओं को “जीवित रूप में” वापस अपने घरों में प्रवेश करते हुए देखा वह भी ऐसे समय में जब एक शव तक को बहुत प्रयासों के साथ प्राप्त किया जाता था। रातों-रात जस्टिस बैंस हीरो बन गए।

इस प्रकार के अनुभवों ने जस्टिस बैंस को 1985 में पंजाब मानवाधिकार संगठन (PHRO) के रूप में मानवाधिकार उल्लंघन के ऐसे सभी मुद्दों को संबोधित करने के लिए एक मंच स्थापित करने के लिए प्रेरित किया। तब से, PHRO जस्टिस बैंस की अध्यक्षता, आरएस बैंस उपाध्यक्ष और प्रमुख अन्वेषक सरबजीत सिंह वेरका के नेतृत्व में सिस्टम और राज्य व्यवस्था के शिकार पीडि़तों के अधिकारों के लिए लड़ रहा है। इस मंच नें कई ऐसे मामलों की जांच की है जिन्हें कोई भी राज्य के दमन के डर से छूना नहीं चाहता था। न केवल मामलों की जांच की गई बल्कि PHRO ने उन्हें जिला, सत्र, उच्च न्यायालय के साथ-साथ सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष भी पेश किया और पीड़ितों को राहत दिलवाने का काम किया। जस्टिस बैंस का यह अभूतपूर्व योगदान है कि उन्होंने एक ऐसे मंच को विकसित किया जिसने मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को समर्थन और दिशा प्रदान की जो आने वाले समय में भी जारी रहेगा। उन्होंने 1988 में एक पुस्तक “सीज ऑफ द सिक्ख”लिखी, जो एक बेस्टसेलर भी बन गई और पंजाब में मानवाधिकारों के उत्पीडऩ और उल्लंघन की सीमा का वर्णन करते हुए दुनिया भर में बहुत लोकप्रिय भी हुई थी।

PHRO की लोकप्रियता और पंजाब की पीडि़त आबादी के बीच बढ़ती स्वीकार्यता को देखते हुए, राज्य तंत्र जस्टिस बैंस के प्रति दमनकारी हो गया। एक बार जब वह गोल्फ क्लब से बाहर आ रहे थे तब पुलिस उन्हे एक बिना नंबर की कार में बैठा कर ले गई। जब वे घर नहीं पहुंचे तो उनकी पत्नी श्रीमती रशपाल कौर बैंस को दुर्भावना का संदेह हुआ और उन्होंने एमनेस्टी इंटरनेशनल को फोन किया। ये खबर पूरे देश में फैल गई थी इसलिए राज्य कुछ नहीं कर सका अन्यथा आशंका है कि वह गायब व्यक्तियों में से उसी तरह एक होते जैसे हजारों-हजार युवाओं का आज तक पता नहीं चल पाया है। लेकिन बात यहीं नहीं रुकी, बाद में उन्हें हथकड़ी लगाकर गिरफ्तार कर लिया गया और बूरैल जेल (चंडीगढ़) में बंद कर दिया गया, हालांकि आरोप कभी साबित नहीं हुए। यह दमन का उच्चतम रूप था जहां एक न्यायिक अधिकारी जो कल तक निर्णय देता था, अब बिना किसी आरोप के उसी कानूनी प्रणाली में कैद हो गया। उन्होंने 1992 में “राज्य आतंकवाद और मानवाधिकार” पर एक पैम्फलेट निकाला, जो बहुत लोकप्रिय होने के साथ ही पंजाबी और अन्य भाषाओं में अनुवादित हुआ।

कोविड के इस समय में जब जस्टिस बैंस का निधन हुआ वे किसी प्रकार की दवा पर निर्भर नहीं थे। उन्होंने अपने परिवार के सदस्यों के साथ रात का खाना खाया और उसके बाद अपने कमरे में शांति से मृत्यु का आलिंगन किया। परिवार के सभी सदस्य उनके इस तरह की शांतिपूर्ण मृत्यु के कायल हैं। उनका भोग और अंतिम अरदास 17 फरवरी 2022 को दोपहर 12 बजे गुरुद्वारा सेक्टर 11, चंडीगढ़ में सम्पन्न हुआ।

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Mazdoor Morcha
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