“क्रांतिकारी मज़दूर मोर्चा”
आज़ादी आंदोलन की क्रांतिकारी धारा के जांबाज़ योद्धा अमर शहीद, ०अशफाकुल्लाह खां (22.10.1900-19.12.1928) को उनके 123 वें जन्म दिन पर, अदब-ओ-अहेतराम के साथ सलाम पेश करता है। उनके जीवन के कुछ रोचक तथ्य:-
– अशफाकुल्लाह खान को क्रांतिकारी आंदोलन से रूबरू कराने का श्रेय उनके बड़े भाई छोटाउल्लाह खान को जाता है जो अमर शहीद रामप्रसाद बिस्मिल के साथ एक ही कक्षा में पढ़ते थे। 1918 में ‘मैनपुरी षडयंत्र केस’ के बाद से रामप्रसाद बिस्मिल फऱार थे। छोटाउल्लाह खान ने भी बिस्मिल को कुछ दिन छुपने में मदद की थी। वे अपने छोटे भाई अशफाकुल्लाह खान को उनकी बहादुरी के किस्से सुनाया करते थे।
-अशफाकुल्लाह खान, यू पी के शाहजहांपुर जि़ले के रईस ज़मींदार पठान परिवार से ताल्लुक रखते थे। उनके पिता शफ़ीक़ उल्लाह खान, शाहजहांपुर के शहर कोतवाल थे। इस लिए बिस्मिल उन्हें अपनी पार्टी ‘हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन/ आर्मी’ की सदस्यता नहीं देना चाहते थे। अशफ़ाक को अपने बर्ताव से यह सिद्ध करना पड़ा था कि इंक़लाबी ज़ज्बे में वे किसी से भी कम नहीं पड़ेंगे, वे इस लायक़ हैं कि उन्हें पार्टी की सदस्यता दी जाए।
-अशफाकुल्लाह खान, संगठन के उन सदस्यों में थे जिन्होंने संगठन की मीटिंग में काकोरी ट्रेन डकैती की योजना का विरोध किया था। उनका तर्क था कि कई बेक़सूर मुसाफिऱ मारे जा सकते हैं लेकिन जब बहुमत से ये फैसला हुआ कि पैसे की बहुत सख्त ज़रूरत है और ट्रेन लूटी जाएगी तो उन्होंने आग्रहपूर्वक कहा कि वे इस मिशन में ज़रूर शामिल होंगे। -अशफाकुल्लाह खां, सचिन्द्र बख्शी तथा राजेन्द्र लहड़ी एक साथ दूसरी श्रेणी के मुसाफिर डिब्बे में थे। उनकी ड्यूटी थी कि जैसे ही गाड़ी रुके वे बाहर कूदकर गार्ड को अपने क़ब्ज़े में ले लें। अशफ़ाक ने ही घोषणा की थी “यात्रियों डरो मत, हम आज़ादी के लिए लडऩे वाले क्रांतिकारी हैं, आपका जीवन पैसा और सामान सुरक्षित है। लेकिन ध्यान रहे कोई भी ट्रेन से भागेगा नहीं’।
-अशफ़ाक़ क़द काठी से मज़बूत थे। बक्से का ताला नहीं टूट रहा था तब बिस्मिल ने कहा ‘अशफ़ाक के हाथ से ही टूटेगा ये’। -अपनी फऱारी के दौरान, अशफ़ाक़ नेपाल गए फिर कानपुर में गणेश शंकर विद्यार्थी से मिले। पलामू जि़ले के डाल्टनगंज में उन्होंने एक इंजीनियरिंग वर्कशॉप में 10 महीने नौकरी भी की। – उनकी गिरफ़्तारी, 7 दिसंबर, 1926 को दिल्ली में उनके बचपन के एक दोस्त के घर से सुबह 11 बजे हुई। दोस्त ने ही ग़द्दारी की थी। उन्हें पहले फऱीदाबाद जेल लाया गया था जहां से उन्हें फैज़ाबाद जेल ले जाया गया। -19 दिसंबर 1928 को रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकुल्लाह खान तथा ठाकुर रोशन सिंह को एक ही दिन फांसी हुई थी। उनके एक और साथी राजेन्द्र लाहिड़ी को भी उसी दिन फांसी दीए जाने का अदालत का हुक्म हुआ था लेकिन उन्हें गोंडा जेल में तय वक़्त से दो दिन पहले 17 दिसंबर को ही लटका दिया गया था क्योंकि अंग्रेज़ों के ख़ुफिय़ा विभाग को डर था कि क्रांतिकारी जेल पर धावा बोलकर उन्हें छुड़ा लेंगे।