प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद ईएसआई अस्पताल में सफल किडनी प्रत्यारोपण

प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद ईएसआई अस्पताल में सफल किडनी प्रत्यारोपण
January 02 14:54 2024

फरीदाबाद (मज़दूर मोर्चा) ईएसआई कॉर्पोरेशन मुख्यालय द्वारा लगाई जाने वाली तमाम अड़ंगेबाजियों के बावजूद एनआईटी नम्बर तीन स्थित ईएसआई अस्पताल में 27 दिसम्बर को किडनी का सफल प्रत्यारोपण कर दिया गया। कॉर्पोरेशन द्वारा संचालित किसी भी अस्पताल द्वारा किया जाने वाला यह दूसरा करिश्मा है, इससे पहले हैदराबाद में यह सर्जरी हो चुकी है। पूरे हरियाणा राज्य के किसी भी सरकारी अस्पताल में इस तरह का कोई प्रत्यारोपण अभी तक नहीं हो पाया है।

विदित है कि 21 हजार मासिक तक का वेतन पाने वाले श्रमिक ही ईएसआई में कवर होते हैं। इस आर्थिक स्तर के मज़दूरों के लिये किडनी प्रत्यारोपण का सपना लेना भी कठिन है। व्यापारिक अस्पतालों में इसके लिये 10-15 लाख तक का खर्चा लगता है। ईएसआई कॉर्पोरेशन अपने इस तरह के अंशदाताओं को इसके लिये एम्स जैसे सरकारी अस्पतालों को रेफर करता रहा है, जहां पर लगी लम्बी लाइन के चलते उनका नम्बर वर्षों तक भी नहीं पड़ता। ऐसे में मरीज़ यदि कहीं से मोटी रकम का इंतजाम कर पाये तो जान बचे वरना मौत तो आनी ही है।

यह प्रत्यारोपण जवाहर कॉलोनी निवासी विपिन का हुआ है जो निजी कम्पनी में मात्र 19 हजार मासिक वेतन पाता है। किडनी का दान मरीज़ की माता जी मंजू ने किया। खबर लिखे जाने तक मां-बेटे दोनों की हालत बहुत अच्छी चल रही है। चिकित्सीय नियमानुसार दोनों को कम से कम एक सप्ताह निगरानी में रखा जायेगा। उसके बाद कुछ समय तक आवश्यक दवायें आदि दी जाती रहेंगी।

इस प्रत्यारोपण के लिये संस्थान द्वारा कुछ बाहरी विशेषज्ञ डॉक्टरों का सहयोग भी लेना पड़ा क्योंकि मुख्यालय द्वारा आवश्यक फैकल्टी को न तो विकसित होने दिया जा रहा है और न ही भर्ती करने दिया जा रहा है। ऐसे में संस्थान अनुबंध आधार पर बाहरी विशेषज्ञों का सहयोग लेता है। इसमें नेफ्रोलॉजिस्ट डॉ. जितेंद्र का विशेष सहयोग रहा। इसके लिए कॉर्पोरेशन प्रति विजिटिंग फैकल्टी को एक विजिट का छह हजार रुपये भुगतान करता है। जानकार बताते हैं कि अभी कम से कम तीन और मरीज प्रत्यारोपण की लाइन में लगे हैं। इस सफल सर्जरी के बाद अन्य ईएसआई अस्पतालों ने भी जानकारी मांगी है।

ईएसआई मेें होने वाले इस तरह के ऑपरेशनों की सफलता का मूल कारण यह है कि मरीज गरीब श्रमिक वर्ग से होते हैं और किडनीदानकर्ता भी इनके निकटस्थ होते हैं जिसके चलते शरीर द्वारा गुर्दे की स्वीकार्यता अत्यधिक होती है। इसके विपरीत धनाढ्य लोगों द्वारा दाएं बाएं से खरीदी और जुगाड़ी गई किडनी के फेल होने के चांस अधिक होते हैं और इनको लेकर दुनिया भर के रैकेट चलने की खबरें आए दिन आ रही हैं।

फैकल्टी के विकास में बाधक बना ‘मूर्खालय’
किसी भी मेडिकल कॉलेज अस्पताल में फैकल्टी की भूमिका अति महत्वपूर्ण होती है। फैकल्टी न केवल मेडिकल कॉलेज के छात्रों को पढ़ा कर नये डॉक्टर पैदा करती है बल्कि अस्पताल में आने वाले मरीजों को बेहतरीन चिकित्सा सेवा भी प्रदान करती है। साधारण डॉक्टरों के मुकाबले फैकल्टी (डॉक्टरों) द्वारा दी जाने वाली सेवा इसलिये उत्कृष्ट होती है कि वे नित नये होने वाले शोध एवं प्रक्रियाओं से जुड़े रहते हैं। इनकी पदोन्नतियां भी इनके द्वारा किये जाने वाले शोध कार्यों पर निर्भर करती हैं जबकि साधारण डॉक्टरों की पदोन्नति केवल उनके बढ़ते समय सेवाकाल के आधार पर होती है।

इन्हीं परिस्थितियों के चलते फैकल्टी को साधारण डॉक्टरों की अपेक्षा विशेष दर्जा दिया जाता है। इनमें पहली शर्त तो ये होती है कि इन्हें अपने संस्थान से अन्यत्र अन्य किसी संस्थान में तबादले पर नहीं भेजा जाता।

दूसरे, इन्हें कॉलेज नियमों के अनुसार सालाना 46 दिन की शैक्षणिक छुट्टियां मिलती हैं। दो साल में विदेश में एक बार और देश में हर साल कॉन्फ्रेंस में भाग लेने के लिये वेतन व तमाम खर्चे सहित अवसर मिलते हैं। ये तमाम सुविधाएं इसलिये दी जाती हैं ताकि वे अपने चिकित्सा क्षेत्र में दिन प्रति दिन होने वाले विकास से जुड़े रह कर अपने ज्ञान में वृद्धि करके न केवल बेहतर अध्यापन कर सकें बल्कि मरीज़ों को भी अत्याधुनिक सेवा प्रदान कर सकें। लेकिन कॉर्पोरेशन ‘मूर्खालय’ में उच्च पदों पर विराजमान साधारण डॉक्टर या तो इतने मूर्ख हैं जो उक्त बातों को समझ नहीं पाते या इतने मक्कार एवं जनविरोधी हैं कि जान बूझकर फैकल्टी को इन सुविधाओं से वंचित रखे हुए हैं।

कोई भी फैकल्टी किसी भी संस्थान को ज्वाइन करने से पहले उक्त सभी बातों को जांचता-परखता है। इसके साथ-साथ वह यह भी देखता है कि पदोन्नति के नियम अनुकूल हैं या प्रतिकूल। संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) तथा एम्स द्वारा दी जाने वाली सुविधाएं एवं सेवा शर्तें सर्वोत्तम समझी जाती हैं। उपरोक्त तमाम सुविधाओं के अलावा यहां सहायक प्रो$फेसर (एपी) के पद पर नियुक्त व्यक्ति दो वर्ष में एसोसिएट प्रोफेसर और आगामी चार वर्ष में प्रोफेसर के पद तक पहुंच जाता है। इसके विपरीत कॉर्पोरेशन की नौकरी में एपी पांच वर्ष में एसोसिएट और आगामी चार वर्ष में प्रोफेसर बन पाता है। कॉर्पोरेशन के सिर पर लदे बैठे मूर्खों की कुनीतियों के चलते यहां तैनात फैकल्टी बेहतरीन सेवा-शर्तों वाली नौकरी की टोह में लगे रहते हैं। ज्यों ही उन्हें यूपीएससी अथवा एम्स की नौकरी मिलती है तो वे तुरन्त यहां से रफू चक्कर हो जाते हैं। बीते सात-आठ साल में दर्जनों फैकल्टी सदस्य यहां से कूच कर चुके हैं।

कॉर्पोरेशन की सेवा शर्तें तो जो हैं सो हैं, अब जो नई तबादला नीति घोषित की गई है, जो पहले नहीं थी, को देख कर अनेकों नए आवेदक साक्षात्कार देने तक भी नहीं आये। जाहिर है यहां केवल तलछट का माल ही यानी कि जिसे कहीं और ठौर नहीं वही व्यक्ति यहां आकर फंसेगा और मौका मिलते ही छोडक़र भाग जाएगा। ऐसे में फैकल्टी का विकास हो पाना असम्भव है। इसलिये यहां पर अन्य संस्थानों से सेवानिवृत्त प्रोफेसरों को ठेके पर रखा जाता है। कुछ एक अपवादों को छोड़ कर अधिकांश वृद्धावस्था के चलते उतना अधिक काम नहीं कर सकते जितना कि नवयुवक प्रोफेसर कर सकते हैं। इन्हें वेतन भी नवयुवकों से अधिक देना पड़ता है। लेकिन ‘मूर्खालय’ में बैठे मूर्ख उच्चाधिकारियों को इन सब बातों से क्या लेना-देना, उन्होंने तो येन-केन-प्रकारेण चिकित्सा सेवाओं का सत्यानाश करके अंशदाताओं के हितों को कुचलते रहने का प्रण ले रखा है।

संदर्भवश, दो साल से चल रही अस्पताल की विस्तार योजना ठंडे बस्ते में डाल दी गई है। यह हाल तो तब है जब केन्द्रीय श्रममंत्री भूपेन्द्र यादव खुद कई बार इसके लिये इन धूर्त एवं मक्कार अफसरों को हडक़ा चुके हैं। समझ नहीं आता कि इन मक्कारों को ढोते रहने के पीछे श्रम मंत्री की क्या मजबूरी है।

दोषी मज़दूर नेता भी हैं
ईएसआई अस्पतालों में कर्मचारियों की कमी के साथ-साथ अन्य कमियों के चलते मरीजों को जो समस्याएं हो रही हैं उसके लिये इन्हें चलाने वाली सरकार तो दोषी है ही, इसके लिये मज़दूर नेता भी कम दोषी नहीं हैं। विदित है कि कॉर्पोरेशन द्वारा दी जा रही तमाम सेवाओं के लिये सरकार कोई पैसा खर्च नहीं करती। सारा पैसा मज़दूरों से वसूल किया जाता है। इसका प्रशासन भले ही केन्द्रीय श्रम मंत्रालय चलाता हो, लेकिन कॉर्पोरेशन में एक तिहाई सदस्य मज़दूरों के नेता होते हैं। देश के बड़े मज़दूर संगठनों—इंटक, एटक, सीटू, एचएमएस, व बीएमएस आदि-आदि के प्रतिनिधि इसमें बैठते हैं। दुर्भाग्य की बात तो यह है कि इन नेताओं को सिवाय कॉर्पोरेशन की बैठकों में शोभा बढ़ाने व अपने निहित स्वार्थ पूरे करने के अलावा और कोई काम नहीं होता। इनको इस बात की कोई चिंता नहीं कि मज़दूरों के साथ कॉर्पोरेशन क्या कर रहा है? यदि मज़दूरों के उक्त नेतागणों को थोड़ी भी चिंता होती तो वे उक्त तमाम मुद्दों को कॉर्पोरेशन की मीटिंगों में अवश्य उठाते। मीटिंग यदि न भी हो रही हो तो भी उनका अधिकार एवं कर्तव्य है कि वे उक्त मुद्दों को श्रम मंत्री के सामने उठाएं। यदि आवश्यक हो तो बड़ी कार्रवाई की चेतावनी भी दें।

स्थानीय मेडिकल कॉलेज अस्पताल की दुर्दशा
ईएसआई कॉर्पोरेशन जहां एक ओर अपने मरीजों को व्यापारिक अस्पतालों में रेफर किये जाने को सख्ती से रोक रहा है, तो वहीं दूसरी ओर फरीदाबाद के संस्थान द्वारा चलाये जा रहे सुपरस्पेश्लिटी कार्यक्रमों पर प्रहार करने के नित नये-नये बहाने तलाशता रहता है। विदित है कि इस संस्थान में एंजियोग्राफी, एंजियोप्लास्टी आदि से लेकर हृदय के वाल्व तक सफलतापूर्वक बदले जा रहे हैं। विभिन्न प्रकार के हजारों कैंसर पीडि़त मरीज़ यहां से स्वस्थ होकर जा चुके हैं, अनेकों मरीजों की आंखों में कॉर्निया प्रत्यारोपित करके उनकी आखों की रोशनी बहाल की जा चुकी है। प्रति दिन 70-80 डॉयलिसिस किये जा रहे हैं। करीब 150 मरीजों के लिये आईसीयू एवं सीसीयू सुविधा उपलब्ध कराई जा रही है।

इससे पूर्व उक्त विशेष इलाजों के लिये मरीजों को व्यापारिक अस्पतालों में तुरन्त रेफर करने की अपेक्षा इधर-उधर के सरकारी अस्पतालों में दौड़ाया जाता था। ऐसे में काफी मरीज़ तो ईएसआई छोडक़र या तो मर जाते थे या सामथ्र्य अनुसार निजी अस्पतालों में इलाज करा लेते थे। केवल कुछ मज़बूत एवं संघर्षशील मरीज़ ही ईएसआई द्वारा निजी अस्पतालों को रेफर किये जाते थे, जिस पर कॉर्पोरेशन को सैंकड़ों करोड़ का भुगतान करना पड़ता था। फरीदाबाद के इस संस्थान ने जहां एक ओर अधिकाधिक मरीजों को इधर-उधर भटकने से बचाकर उच्चस्तरीय चिकित्सा सेवाएं प्रदान कीं तो वहीं दूसरी ओर सैंकड़ों करोड़ का रेफरल खर्चा भी बचा दिया। यहां न केवल फरीदाबाद बल्कि पूरे हरियाणा, एनसीआर तथा देश के विभिन्न भागों से मरीज़ रेफर होकर आ रहे हैं।

जाहिर है कि इतनी उच्चस्तरीय चिकित्सा सेवाएं उपलब्ध कराने के चलते मरीजों की संख्या का बढ़ जाना स्वाभाविक है। जहां ओपीडी में मरीजों की संख्या 1000-1500 आंकी गई थी वहां अब प्रति दिन 4000-4500 चल रही है। 510 बिस्तरों के अस्पताल में भर्ती मरीजों की संख्या 700-800 तो सदैव ही रहती है, कभी-कभी तो 900 के भी पार हो जाती है। इसके बावजूद कॉर्पोरेशन मुख्यालय द्वारा यहां पर्याप्त स्टाफ उपलब्ध नहीं कराया जा रहा। वहीं स्वीकृत पदों का मात्र 20 प्रतिशत स्टाफ ही नियमित है शेष 80 प्रतिशत ठेकेदारी में चलता है। मजे की बात तो यह है कि स्वीकृत पद भी 510 बेड के हिसाब से पूरे नहीं हैं। मोटा-मोटा कुल मिलाकर यहां कम से कम 500 मेडिकल कर्मियों की कमी चल रही है।

ये हाल तो कॉर्पोरेशन द्वारा संचालित संस्थान का है। राज्य सरकार द्वारा संचालित सेक्टर आठ के अस्पताल तथा जि़ले की 14 डिस्पेंसरियों के हालत तो और भी दयनीय हैं। इनमें न तो पर्याप्त स्टाफ है और न ही दवाएं तथा अन्य आवश्यक साज़ो सामान। और तो और इन डिस्पेंसरियों में टीका लगाने तथा ड्रेसिंग करने तक की व्यवस्था नहीं हैं। सेक्टर आठ वाले अस्पताल में डॉक्टरों व पैरामेडिकल स्टाफ के कम से कम 150 पद खाली पड़े हैं। ये पद तो केवल 50 बेड के अस्पताल के हिसाब से बनते हैं जबकि यह अस्पताल 200 बेड के लिये बनाया गया था।

मज़दूरों के पैसे से बनाई गई यह बिल्डिंग इस्तेमाल न होने के चलते पूरी तरह से खंडहर बनती जा रही है। गौरतलब है कि जहां मेडिकल कॉलेज अस्पताल में मरीजों की संख्या बिस्तरों की संख्या से डेढ़ गुना से भी अधिक रहती है वहीं सेक्टर आठ का अस्पताल लगभग खाली पड़ा होना है। इसी को तो कहते हैं मज़दूरों से वसूले गए पैसे की बेदर्दी से बरबादी।

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Mazdoor Morcha
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