गुरमीत सिंह क्या आप जानते है कि म्यांमार विश्व का सबसे विकसित देश हो चुका है। इसकी नई राजधानी है- नैपीडा.. क्या ही शहर है। एकदम चम चम.. गार्डन है, होटल हैं, रेस्टोरेंट, पार्क, रेसिडेंशियल ब्लॉक्स, गवर्मेन्ट ऑफिसेज, शानदार मॉन्यूमेंट्स..और सडक़े अरे भइया- 10 लेन चौड़ी है। दूसरा परम विकसित देश है उत्तर कोरिया.. विश्व का सबसे ऊंचा होटल है, साथ सुथरी गलियां, पार्क, बाजार, विशाल मूर्तियां, भीमकाय भवन, और सडक़ें.. अरे भइया- 10 लेन चौड़े एक्सप्रेस वे हैं। चौड़ी सडक़ें, अगर विकास का चिन्ह है, तो ये दोनों देश परम विकसित हैं। जो चिन्ह आपके शहर में, आसपास 15-20 साल से ही दिखना शुरू हुआ। लोग सोचते हैं- भला पहले क्यो नही बनी इतनी चौड़ी चिकनी रोड। सन 52 में ही बन जाती, तो आज तक कितना विकास हो जाता। भला किसने रोका था नेहरू को एक्सप्रेसवे बनाने से? सोशल मीडिया के अति बुद्धिमानो को लगता है, उत्तर कोरिया और म्यांमार की तरह 10 लेन का एक्सप्रेसवे बनते ही देश, रातोरात विकसित की श्रेणी में आ जाता है। गलत है। सडक़, एक आवश्यकता है। आपके पास जितने व्हीकल होंगे, उसके लिहाज से सडक़ें बनाना ही उचित है। प्योंगयांग और नैपीडा में की चौड़ी सडक़ें सूनी है। लोगो के पास वाहन खरीदने की औकात नही, कैसे चलें इनपर?? तो उनका पेट काटकर बनी ये सडक़ें सूनी है। जहां 2 लेन का हाइवे पर्याप्त होता। भारत में जब तक 2 लेन के नेशनल हाइवे, बढिय़ा काम दे रहे थे, तो 10 लेन रोड पर पैसा क्यो फूंकना?? और भारत के पास एक एडेड एडवांटेज था, जो बड़े विकसित देशों में भी नही है। 1990 तक दुनिया का लार्जेस्ट रेल नेटवर्क इंडिया में था। कम्यूट करने का सस्ता, स्पीडी, और देश के कोने कोने तक पहुँचा हुआ… जहां ये नही नही पहुचा था, वहां सडक़े बनती गयी थी। भारत में सडक़ों पर वाहन घनत्व बढा 1991 के बाद.. जब आर्थिक सुधारों के बाद देश मे कारें बढऩे लगी। याद है डाईवु की सीएलो, मारुति-1000. जेन, एस्टीम उसी दौर में आई। एम्बेसडर और प्रीमियर पद्मिनी पिछड़ गए। बाजार में नए नए मॉडल भी थे और अब किस्तों वाला फाइनांस भी एवलेबल था। इनकम लेवल भी बढऩे लगा तो लोगो ने गाडिय़ां खरीदी। इतनी खरीदी के अगले 5 साल में सडक़ों पर जाम लगने लगा। पर यह समस्या नही.. सफलता का द्योतक था। हाँ, अब चौड़ी सडक़ो की जरूरत थी। व्यापार बढ़ा था। ट्रक, कार, मध्यम मालवाहक गाडिय़ां झूमकर बढ़ी । तो नई फोरलेन सडक़ो की योजना भी आयी। अटल ने लायी स्वर्णिम चतुर्भुज योजना। काम शुरू हुआ, कि अटल सरकार चली गयी, मनमोहन आये। मगर स्वर्णिम चतुर्भूज पूरा हुआ। और यूपीए की भारत निर्माण स्कीम से यह काम आगे बढाया गया। बहुत सारी नई रोड प्रपोज हुई, सैंक्शन हुई। ओल्ड हाइवे पहले फोरलेन किये गए। फिर नए रुट पर नई सडक़ें। जब घर मे बच्चे भूखे हों, तो बड़ा मकान नही बनाया जाता। पहले पेट भरा जाता है, शिक्षा स्वास्थ्य, पोषण देखा जाता है। फिर आता है, बड़ा मकान, जो उतना ही बड़ा हो जितने लोगो के लिए जगह चाहिए। हर पिता यही करता है, सरकार भी। तो जब समृद्धि आई ,टैक्स इनकम बढ़ी तो राज्यो ने भी एक्सप्रेस वे बनाये। उड़ीसा ने बीजू एक्सप्रेस वे बनाया, तो मायावती ने यमुना एक्सप्रेस वे। आगे अखिलेश ने भी बनाया। तमिलनाडु, आंध्र, महाराष्ट्र, कर्नाटक सरकारों ने भी। मामा शिवराज ने तो 2012 तक एमपी की सडक़ों की शक्ल ही बदल दी। कहने का मतलब, जब चौड़ी सडक़ो की जरूरत आन पड़ी, तो उन्हें बनाया गया। इसमे हर्डल आये, जमीनों का एक्वीजिशन, उसकी कम कीमत। तो चौगुना मुआवजे का कानून आया। सडक़ो की कॉस्ट बढ़ी। बनने में वक्त भी लगता है। 5 साल, 8 साल, 10 साल भी लग गए। किस्मत देखिए, कई प्रोजेक्ट 2014 के बाद पूरे हुए। जिन कामो के फीते मोदी ने काटे, गिन लीजिए 70 त्न उनके आने के पहले शुरू हो चुके थे। उनके खुद के दौर के काम अधिकांश अपूर्ण है। फीते कोई भी काटे, उज्र नही। पर यह कहकर कोसना, या सोचना की देश को सन 52 में ही एक्सप्रेस वे बना लेने चाहिए थे, कमअक्ल प्रोपगंडेबाजो की सनक है। आपको नैपीडा और प्योंगयांग की सडक़ें देखकर समझ लेनी चाहिए। जहां की 10 लेन रोड, नेता की मूर्खता और मैगलोमानिया का फर्जी प्रदर्शन भर है।। जब जनता को जिसे 2 वक्त की रोटी और मां की दवा भारी हो, उसे उसे अन्न, शिक्षा, हस्पताल, नौकरी चाहिए। खेतो को पानी, खाद बीज के लिए ऋण, पढऩे को कॉलेज चाहिए। भारत की सरकारों ने तब यही किया, जो तब उचित था। अब वह कर रहे हैं, जो आज उचित है। लेकिन ठेके की कमाई के नशे ने शायद यह भुलवा दिया है, कि मरती हुई रेलों को ठीक करना इस वक्त की पहली जरूरत है। वो कीजिए। भले ही सूने हाइवेज के निर्माण पर लगाम लगाइए।