जब सरकार या किसी विभाग द्वारा किसी नेता को इस तरह की गीदरसींगी नहीं दी गई थी तो क्या ट्रेड यूनियने संगठित होकर अपने खर्चे नहीं चलाती थी?

जब सरकार या किसी विभाग द्वारा किसी नेता को इस तरह की गीदरसींगी नहीं दी गई थी तो क्या ट्रेड यूनियने संगठित होकर अपने खर्चे नहीं चलाती थी?
November 08 17:00 2020

एचएमएस को पालने वाली एस्कॅार्ट्स 

यूनियन की अपनी हालत पतली

सतीश कुमार

ट्रेड यूनियन आन्दोलन में कारखानों की यूनियनें राष्ट्रीय फेडरेशनों जैसे सीटू, एटक, एचएमएस व बीएमएस आदि से एफिलिएट होकर उन्हें बतौर एफिलिएशन फीस मासिक अथवा वार्षिक चंदा देती हैं। परन्तु एचएमएस के मामले में रिश्ता उल्टा है, इतना उल्टा कि सिर के बल खड़ा है। यहां व्यवहारिक रूप से एस्कॉर्टस यूनियन ने एचएमएस को एफिलिएशन दे रखी थी जो अब फिलहाल गड़बड़ झाले में है क्योंकि एस्कॉर्टस यूनियन ने तो उसे छोड़ दिया है परन्तु राज्य व राष्ट्रीय स्तर पर जि़ला एचएमएस जुड़ी हुई है। नियमानुसार राष्ट्रीय एवं राज्य सत्र का संगठन जि़ला स्तर को कुछ दिया नहीं करता बल्कि ये तो जि़ला स्तर से चंदा लेते हैं। इसके बावजूद  जि़ला एचएमएस का उच्च स्तर से जुड़े रहने का कारण एसडी त्यागी व सुरेन्द्र लाल सरीखे वे नेता हैं जिन्हें एस्कॉर्टस यूनियन ने तो नकार दिया परन्तु राज्य व राष्ट्रीय संगठन में पदासीन हैं।

अपने राज्य व राष्ट्रीय स्तर के पदों पर कायम रहने के लिये इन नेताओं की मजबूरी यह है कि इनकी समर्थक जि़ला यूनिटें कायम रहें। इनमें सब से बड़ी जि़ला यूनिट फरीदाबाद की ही रही है और इसी के आधार पर ये नेतागण राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बैठे हैं, लेकिन जब धरातल ही खिसक जायेंगे तो ऊंचे पायदानों पर कैसे टिके रह सकेंगे? इसलिये इन लोगों की मज़बूरी है कि जैसे भी जि़ला यूनिट का वह आधारभूत ढांचा किसी तरह खड़ा रह जाये। वैसे तो संगठन को खड़ा रखने के लिये इतनी यूनियनें होनी चाहियें कि जिनके चंदे से संगठन का दफ्तर चल सके।

दफ्तर का मतलब बैठने का ठौर-ठिकाना व संगठन के लिये काम करने वालों का वेतन आदि। अब यहां की एचएमएस के पास जो फ्री का दफ्तर एस्कॉर्टस यूनियन ने दे रखा था वह तो गया ही साथ में 6000 रुपये मासिक चंदा मिलता था वह भी खत्म। इसका मतलब सीधे-सीधे 15000 रुपये मासिक का भार तो कम से कम बढ ही गया। यूनियनें कोई खास जुड़ नहीं पाईं।

सवाल यहां सबसे बड़ा यह है कि जि़ले भर में पांच लाख से अधिक मज़दूर छोटी-बड़ी फैक्ट्रियों में कार्यरत हैं। इनका बमुश्किल पांच प्रतिशत भाग (यानी 25000) मज़दूर ही कसी न किसी संगठन से जुड़ा है; शेष पूरा मज़दूर असंगठित है। जाहिर है जहां संगठित मज़दूरों को ही अपनी कोई कानूनी बात मनवाने के लिये पूरा जोर लगाना पड़ता है वहां इन असंगठित अथवा लावारिस मज़दूरों की कोई सुनवाई नहीं हो सकती। और तो और अपने वेतन का साढे चार प्रतिशत ईएसआईसी को देने के बावजूद डिस्पेंसरियों व अस्पतालों में इनके इलाज के लिये न तो पर्याप्त स्टाफ है और न ही आवश्यक उपकरण व दवायें आदि। फरीदाबाद के सेक्टर आठ अस्पताल के ऑपरेशन थियेटर में बीते कई वर्षों से ताला लगा है, कई वर्षों से अल्ट्रा साऊंड मशीन नहीं है तो नहीं है। और तो और हरियाणा भर की किसी भी डिस्पेंसरी में बीते दो वर्षों से रेबीज़ (कुत्ता काटे) का वेक्सीन नहीं है। हां, कुछ थोड़ा-बहुत सहारा है तो एनएच-तीन स्थित मेडिकल कॉलेज अस्पताल का है।

इस महंगाई के जमाने में इलाज के लिये मज़दूर एवं उनके परिवारों को किन विकट परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है, समझा जा सकता है। ज़्यादा दुख पाये मज़दूर जरूर अपने स्तर पर अस्पताल के स्टाफ से लड़-भिड़ लेते हैं जिसका कोई विशेष लाभ नहीं हो पाता। हां, यदि संगठित होकर ट्रेड यूनियन के आधार पर इस तरह की समस्याओं को उचित स्तर पर ज़ोरदार ढंग से उठाया जाए तो मज़दूरों को अवश्य समस्याओं से छुटकारा मिल सकता है।

यह मसला कोई एक अकेले एचएमएस तक ही सीमित नहीं है बल्कि तमाम संगठनो का यही हाल है। ट्रेड यूनियन नेताओं से पूछो तो वे कहते हैं कि मज़दूर उनके पास आयें तो ही वे कुछ करेंगे, मज़दूर कहते हैं  नेता उनकी सुनते नहीं हैं और न ही उन पर भरोसा रहा। दरअसल बड़ी समस्या आज यह है कि तमाम यूनियनें केवल नियमित एवं पक्के मज़दूरों तक सीमित रह गयी हैं। एक कारखाने में यदि 100 मज़दूर पक्के हैं तो 500 ठेकेदारी आदि में हैं जिनको कोई भी यूनियन संगठित नहीं करना चाहती। इसी फार्मूले के चलते आज 95 प्रतिशत से अधिक औद्योगिक मज़दूर असंगठित है। वे अपनी हर छोटी-मोटी समस्या के लिये ट्रेड यूनियन की आड़ में दुकानदारी करने वालों के हाथों लुटते-पिटते रहते हैं।

वापस आते हैं एचएमएस दफ्तर पर। जि़ला के इस द$फ्तर में अध्यक्ष, महासचिव, सचिव आदि के रूप में डीएन मिश्रा आरडी यादव, शुक्ला व राजपाल डांगी बैठते हैं। डांगी को छोड़ कर तीनों 70 की उम्र पार कर चुके हैं। इसके बावजूद वे यथाशक्ति दफ्तर का काम तो देख लेते हैं परन्तु लम्बे-चौड़े फील्ड का काम सम्भालना उनके बस का नहीं रह गया। एसडी त्यागी व सुरेन्द्र लाल तो राज्य व राष्ट्रीय स्तर के अलावा अन्तर्राष्ट्रीय जिम्मेवारियां भी निभाते हैं, ऐसे में वे भला फील्ड का काम यानी फैक्ट्री दर फैक्ट्री मज़दूरों से सम्पर्क का काम कैसे कर सकते हैं; वैसे ये दोनों भी 60 की उम्र तो पार कर ही चुके हैं। इन हालात में एचएमएस का विस्तार तो क्या, रहा-सहा आधार भी खिसकना तय है। हां गुडग़ांव में कायम एचएमएस के साथ-साथ सीटू की स्थिति भी कुछ बेहतर समझी जाती है क्योंकि वहां का औद्योगीकरण अपेक्षाकृत काफी नया है जिसके चलते मज़दूर भी काफी नये-नये आ रहे हैं।

फरीदाबाद एचएमएस पर 200 रुपये लेकर भविष्यनिधि के फार्म तसदीक करने का आरोप भी मज़दूर लगा रहे हैं। दरअसल जो कारखाने बंद हो जाते हैं अथवा जो मालिकान अपने उन मज़दूरों के फार्म तसदीक नहीं करते जिनको अपना जमा पैसा भविष्यनिधि विभाग से निकालना होता है, उनके फार्म एवं दस्तावेज़ की तसदीक करने का जिम्मा विभाग ने एसडी त्यागी को छ: साल के लिये दिया है। फार्म तसदीक यानी उस पर अपने दस्तखत करने की एवज में मज़दूर से 200 रु. वसूले जाते हैं। यह एक नई प्रथा है, पहले यही काम विभाग के इन्सपेक्टर आदि करते थे, वे अब भी कर सकते हैं। मज़दूरों को उनसे शिकायत रहती थी कि विभागीय अधिकारी इसके एवज में चक्कर कटवाते हैं और रिश्वत लेते हैं। इसी शिकायत को दूर करने के लिये विभाग ने यह अधिकार एचएमएस के एसडी त्यागी, एटक के बेचू गिरी व बीएमएस के भी किसी नेता को दे रखा है। यद्यपि मज़दूरों को यह छूट है कि वे इस तरह की तसदीक अपने गांव के पंच-सरपंच से भी करा सकते हैं, परन्तु दूर-दराज के गांव  वालों के लिये यह आसान नहीं।

इस बाबत एचएमएस नेता आरडी यादव से पूछा तो उन्होंने स्वीकार करते हुए बताया कि दफ्तर का खर्च चलाने के लिये यह पैसा लेना उनकी मजबूरी है। पहले वे 100 रुपये की पर्ची काटते थे परन्तु जब से दफ्तर किराये पर लिया है रेट 200 रुपये करना पड़ा। यह बात भी सामने आई है कि कुछ वर्ष पूर्व एस्कॅार्टस यूनियन का एक रिटायर्ड नेता 100 रु. की पर्ची काटने की बजाय अपनी जेब में ही डाल लेता था।

सवाल यहां यह पैदा होता है कि जिन मज़दूरों को फंड विभाग ने सरकारी रिश्वतखोरी से बचाने के लिये यह काम ट्रेड यूनियनों को सौंपा है, क्या उनके द्वारा खर्च चलाने के नाम पर इस तरह की उगाही करना उचित है? जब सरकार या किसी विभाग द्वारा किसी नेता को इस तरह की गीदरसींगी नहीं दी गई थी तो क्या ट्रेड यूनियने संगठित होकर अपने खर्चे नहीं चलाती थी? और जब यह गीदरसींगी वापस ले ली जायेगी

तो क्या ट्रेड यूनियन खत्म हो जायेगी?

गतांक में लिखा गया था कि डागर के प्रधान पद से रिटायर होने के बाद त्रिलोक सिंह के नेतृत्व में बनी नई यूनियन कार्यकारिणी ने जो समझौता किया है उसमें श्रमिकों को उससे भी कम मिला जितना डागर की अध्यक्षता में मिल रहा था। यह तथ्य गलत पाया गया है जिसका हमें खेद है। वास्तव में डागर के वक्त कम्पनी जो समझौता 13 हज़ार पर कर रही थी वह समझौता त्रिलोक सिंह की अध्यक्षता में 15 हजार में हुआ।

 (सम्पादक : मजदूर मोर्चा

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