टूटी कोहनी में राड़ डालने के 15,000 देने पड़े सत्यवीर सिंह फरीदाबाद। सुभाष, अपने 70 वर्षीय पिताजी, ननहके जी के साथ, फऱीदाबाद के सेक्टर 21 सी में, सडक़ किनारे, कपड़े स्त्री कर और कई घरों में जाकर कपडे धोकर अपना जीवन-यापन करते हैं. ननहके जी, एक दिन जब पास के ठेले से सब्जी खऱीद रहे थे, तब एक रईसज़ादे ने अपनी ‘मॉड’ साईकल से टक्कर मार दी और चलता बना. वे ज़मीन पर गिर पड़े और उनकी कलाई की हड्डी टूट गई. ये बात अप्रैल 2022 की है. अपना टूटा हाथ लेकर, वे कई दिनों तक, शहर में स्वास्थ्य की निजी दुकानों पर, हड्डी जोडऩे का रेट पूछते घूमे, लेकिन कहीं भी इस ऑपरेशन का भाव 60,000/ रु से नीचे नहीं मिला. वे इतनी रक़म जुटाने में असमर्थ थे. तब ही उनके एक साथी ने, उन्हें शहर के सरकारी जि़ला चिकित्सालय, बादशाह खान (बीके) अस्पताल जाने की सलाह दी. सलाह देने वाले मित्र बीके अस्पताल में व्याप्त भ्रष्टाचार से वाकिफ थे, लेकिन फिर भी उनकी समझ थी कि रिश्वत देकर भी उनका खर्च,स्वास्थ्य के नाम पर चल रही इन चमचमाती निजी दुकानों से तो कम ही आएगा.
सुभाष और उनके पिताजी 30 अप्रैल 2022 को बीके अस्पताल पहुंचे और शुरू हुआ लाइन में लगने, बार-बार दुत्कारे जाने, अस्पताल के सामने जाँच केन्द्रों पर, जाँच करा-करा कर लाने का अंतहीन सिलसिला. तब ही इस मौजूदा सड़ी हुई पूंजीवादी व्यवस्था की सड़ी पैदाइश, एक ‘दलाल’ ने उन्हें सुझाया कि ‘खर्च’ करना पड़ेगा, वरना टूटी हुई हड्डी लेकर ही घर लौटना पड़ेगा!! हड्डी टूटने और बार-बार टेस्ट कराने के चक्कर में भटकने, और अपनी दिहाड़ी खोते जाने के दर्द से, कराह बाप-बेटों ने ‘खर्च’ का जुगाड़ कर लिया. कई दिन भटकने और टेस्ट के खर्च के अलावा, 15,000/ रु मान सिंह यादव पुत्र हीरा लाल यादव, मोबाइल नंबर 9971760622 को गूगल पे (Transaction ID ) से ट्रान्सफर करने के बाद, 4 मई को ननहके जी के हाथ की कलाई का ऑपरेशन हुआ और उसमें रॉड डल गई. ‘जाओ अब 6 महीने बाद आना, फिर ऑपरेशन होगा और ये रॉड निकाली जाएगी’, सुनकर बाप-बेटा, दोनों अपने काम पर लग गए. बाक़ी वे अब जान ही चुके थे कि क्या करना होता है!!
तय हुआ कि सुभाष, अपने पिताजी के साथ 24 जनवरी को सुबह 8 बजे, बी के अस्पताल जाएँगे, और जैसे ही निर्धारित प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न होती है; रिश्वतखोरी की ख्वाहिश की दुर्गन्ध जैसे ही महसूस होती है, बाक़ी टीम मेंबर भी पहुँच जाएंगे. 12 बजे सुभाष की कॉल आ गई, आ जाईये. कॉमरेड सुभाष ने सारी आप बीती सुनाई, तो तय हुआ कि इस अस्पताल का रोग गंभीर है. इसलिए, सबसे पहले, सबसे बड़ी डॉक्टर और प्रशासक पीएमओ को सारी हकीक़त बताई जाए. मई का तजुर्बा उन्हें बताया गया, टेस्ट कराने, बार-बार बुलाकर सताने, पैसे ऐंठने की दास्ताँ और उसी तजऱ् पर 24 जनवरी के अनुभव को जानने के बाद, पीएमओ मैडम ने हैरानी जताई, ‘हमारे यहाँ ऐसा नहीं हो सकता’ बोला और अपने वरिष्ठ डॉक्टरों को अपने चैम्बर में तलब किया. तब ही उन्हें कोई अति महत्वपूर्ण कॉल आ गई और सभी लोग दूसरे कैबिन में शिफ्ट हो गए.
‘हमारे यहाँ ऐसा नहीं हो सकता कि कोई डॉक्टर रिश्वत मांगे या मरीज़ को आतंकित करे’, विषय पर हो रही चर्चा में एक डॉक्टर और शामिल हो गए. सुभाष और उनके पिताजी ने गौर से देखा और चीख पड़े, ‘दस हज़ार की रिश्वत मांगने वाला डॉक्टर तो ये ही है, हम अच्छी तरह पहचानते हैं’!! दोनों ने एक साथ ऊँगली जिस शख्स के मुंह की ओर उठाई, उनका नाम डॉक्टर अभिषेक वार्ष्णेय है. क्रांतिकारी मज़दूर मोर्चा टीम के सदस्य कॉमरेड नरेश जो ‘मज़दूर समाचार’ चेनल भी चलाते हैं , कॉमरेड सत्यवीर और कॉमरेड ब्रिजेश ने रिकॉर्डिंग शुरू कर दी. डॉक्टर वार्ष्णेय के चेहरे पर हवाइयां उडऩे लगीं. ‘मेरे ऊपर झूठा इल्जाम लगाया जा रहा है’, डॉक्टर साहब के मुंह से ये ध्वनि निकली ज़रूर, लेकिन उस अंदाज़ में नहीं, जैसी किसी बेक़सूर पर ऐसा गंभीर आरोप लगने पर निकलती है. दूसरी हैरान करने वाली बात ये थी कि उस वक़्त मौजूद किसी भी दूसरे डॉक्टर ने, डॉक्टर वार्ष्णेय पर रिश्वत का आरोप लगने पर, हैरानी नहीं जताई. दूसरी ओर, सुभाष और उनके पिताजी ननहके की आवाज़ में सच्चाई की रोषपूर्ण तल्खी बढ़ती गई.
‘आपने, ये क्यों कहा कि आपने मेरा ऑपरेशन किया है, 10,000/ फिर खर्च करने पड़ेंगे जबकि मैं ऑपरेशन करने वाले डॉक्टर को अच्छी तरह पहचानता हूँ कि वो आप ही हैं!!’ ननहके, भावावेश में ऊँचे हाथ उठाकर बोलते गए, ‘मुझे अपने बच्चों, अपने भगवान की क़सम है, अगर मेरी बात झूट हो, तो मुझे फांसी दे दी जाए, इसी डॉक्टर ने मुझसे पैसे मांगे थे’. डॉक्टर वार्ष्णेय का चेहरा असलियत बयान कर रहा था. सबसे हैरानी की बात ये थी कि उनके किसी भी सहयोगी ने, डॉक्टर वार्ष्णेय पर इतने संगीन आरोप सरे आम, सारे स्टाफ के सामने लगने पर भी ना हैरानी जताई, ना उनके बचाव में एक शब्द भी बोला. इससे ज़ाहिर होता है कि उनकी छवि किस तरह की है. यहाँ सुभाष और उनके पिताजी ननहके के इस बयान को भी पढ़ा जाए कि उन्होंने जितनी बुलंद आवाज़ और सच्चाई के साथ डॉक्टर अभिषेक वार्ष्णेय पर रिश्वत मांगने के आरोप लगाए, उतनी ही तीव्रता के साथ ये भी बोला कि डॉक्टर सतीश वर्मा ने उन्हें बोला था कि किसी को भी पैसा देने की ज़रूरत नहीं, तुम्हारा ऑपरेशन बिना कोई पैसा खर्च किए होगा.
मामला संगीन अपराध का बन चुका था, इसलिए सभी लोग पीएमओ मेडम के चैम्बर में पहुँच गए. पीएमओ ने पूरे मामले की पूरी जाँच कराने और दोषियों को दण्डित करने का आश्वासन दिया. उनके कथन का विश्वास किया जाना चाहिए लेकिन औपचारिक शिकायत दर्ज कर, दो लाख वेतन पाने वाले डॉक्टर द्वारा, दिनभर पसीना बहाकर मुश्किल से दो जून रोटी खाने वाले मज़दूरों को लूटने की बेगैरती और अक्षम्य अपराध की इस घटना से नजऱ हटने नहीं दी जानी चाहिए. प्रस्तावित जाँच एजेंसी को, इस रिश्वतखोरी के अतिरिक्त, बी के अस्पताल में व्याप्त भयानक भ्रष्टाचार के दूसरे तरीकों को भी बताया जाना ज़रूरी है. ननहके जी के हाथ में हड्डी जोडऩे और उसमें रॉड डालने का ऑपरेशन, लोकल अनेस्थिसिया से हो गया. अब उस रॉड को निकालने का ऑपरेशन क्या उससे ज्यादा गंभीर है, जो पूरे शरीर को अनेस्थिसिया देकर होना है? इस प्रक्रिया में उन्हें दिल की ईको जाँच करानी होगी जिसका ख़र्च बाज़ार में 2,500 रु है. इस जाँच का रहस्य, सरकारी-निजी साझेदारी (PPP) के नाम पर सरकारी इदारों को निजी पूंजी के हवाले करने वाली साझे की दुकान, ‘ह्रदय उपचार विभाग’ में काम कर रहे एक जि़म्मेदार कर्मचारी ने स्पष्ट कर दिया. ‘हमारी इको मशीन 6 महीने से बंद पड़ी है, हॉस्पिटल का हर डॉक्टर जानता है लेकिन मरीज़ के सामने भोलापन और झूटी हमदर्दी दिखाते हुए, उसे टेस्ट के लिए यहाँ भेजा जाता है. बाहर टेस्ट की दुकानें लाइन से खुली हुई हैं जिनमें 50 प्रतिशत कमीशन का रेट है. एक ईको टेस्ट का मतलब, मरीज़ की जेब से 2,500/ रु निकलकर, 1,250/ रु डॉक्टर की जेब में पहुँच जाएँगे.’ डॉ राजेश धीमान ने गऱीब मज़दूर के प्रति संवेदनाशीलता दर्शाते हुए, अपने व्यक्तिगत प्रयास से, ननहके जी का ईको टेस्ट एक निजी अस्पताल में निशुल्क कराया, ये तथ्य रिपोर्ट करते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है.
हॉस्पिटल में टेस्ट करने की जितनी मशीनें बंद रहेंगी, डॉक्टरों की कमाई उसी अनुपात में अधिक होगी. इसीलिए ज्यादातर टेस्ट मशीनें खऱाब ही रहती हैं. सरकारी अस्पतालों द्वारा जन-स्वास्थ्य का बेड़ा गकऱ् तो सरकार ने ही किया हुआ है. स्वास्थ्य बजट, ज़रूरत के मुकाबले नगण्य है. अस्पताल ही पर्याप्त नहीं. डॉक्टरों और सहायक स्टाफ की भारी कमी है. दवाईयों की शेल्फ़ ख़ाली रहती हैं. ऑपरेशन थिएटर जज़ऱ्र हैं, सफ़ाई के ये हाल हैं कि अन्दर घुसते ही उबकाई आती है. इस मुद्दे पर तो देश स्तर पर तीखे जन-आन्दोलन, यदि अभी भी नहीं छेड़े गए तो आने वाले एक-दो सालों में सब सरकारी अस्पतालों पर भी अडानी-अम्बानी के नाम लिखे होंगे. साथ ही, सरकारी अस्पतालों में, डॉक्टरों की मरीजों के प्रति संवेदनहीनता और यहाँ व्याप्त भ्रष्टाचार, गऱीबों का ईलाज असंभव बना दे रहे हैं. अनावश्यक टेस्ट लिखते जाना, अस्पताल की मशीनें खऱाब रखना, सिसकते मरीज़ों की जेबें काटना बीके अस्पताल का दस्तूर है.