कविता कृष्णपल्लवी यह किस्सा कुछ वर्षों पहले सुनाया था, लेकिन इनदिनों शहर-शहर में जितनी संस्थाएँ बन रही हैं और जिस तरह थोक भाव से पुरस्कार, सम्मान वगैरह दिये जा रहे हैं, उसे देखते हुए इसे फिर से सुनाने को तबीयत मचल रही है! फिर आप कर भी क्या सकते हैं! सुनना ही पड़ेगा!
शहर न बहुत छोटा था, न बहुत बड़ा। वहाँ एक प्रॉपर्टी डीलर, एक शेयर ब्रोकर, एक ट्रांसपोर्टर, एक होटल मालिक और एक चिट फंड कंपनी का मालिक — इन पाँच लोगों की एक मित्र- मण्डली थी ।
ख़ूब पैसा कमाने, दारूबाजी करने, आवारागर्दी करने और गोवा से लेकर बैंकाक तक के चक्कर लगा चुकने के बाद उन्होंने कुछ नया करने का तय किया । राजनीति में उतरने का एक विकल्प था लेकिन ऐसा तो उन जैसे बहुत लोग पहले से करते रहे थे । वे एकदम कुछ नया करना चाहते थे — एकदम लीक से हटकर! काफ़ी सोचने के बाद उन्होंने साहित्य सेवा के लिए एक संस्था बनाने का तय किया और योग्य साहित्य-प्रेमी बनने के लिए शहर के एक आलोचक को अपना सवैतनिक सलाहकार बना लिया ।
संस्था गठित हो गयी । कोष बन गया। उद्देश्य तय हो गये । संस्था की कई योजनाओं में से सबसे महत्वाकांक्षी योजना सालाना किसी कवि या लेखक को एक मोटी रकम देकर पुरस्कृत करने की और सात दिनों की यूरोप-यात्रा पर भेजने की थी ।
पहले वर्ष यह पुरस्कार गजानन माधव मुक्तिबोध को देने की घोषणा की गयी । पुरस्कार समारोह का आयोजन होटल मालिक के होटल के बैंक्वेट हॉल में निर्धारित तिथि को जब किया गया तो वहाँ पुरस्कार लेने के लिए कुल सत्ताइस मुक्तिबोध पहुँचे हुए थे ।