व्यापार का साधन बन चुकी ट्रेड यूनियनें संघर्ष नहीं केवल दिखावा कर सकती हैं
सतीश कुमार (सम्पादक : मजदूर मोर्चा)
एस्कॉर्टस यूनियन के प्रधान रहते बीरम सिंह के द्वारा कराये गये त्रिवार्षिक समझौते से श्रमिकों को जो लाभ हुआ था उतना न तो पहले कभी हुआ था और न उनके बाद हुआ। इसी से परेशान प्रबंधन ने उन्हें पहले सस्पेंड और फिर हिसाब लेने पर मजबूर कर दिया था। सस्पेंशन के दौरान महीनो तक चली घरेलू जांच के दौरान उनका सहयोग कर रहे एसडी त्यागी ने उनकी पुरजोर वकालत तो की लेकिन जब बात बनती नज़र नहीं आई तो उन्होंने बर्खास्त होकर संघर्ष करने की बजाय हिसाब लेकर फारिग होने की सलाह दी। इसी दौरान हुए यूनियन के चुनाव में भूपेंदर सिंह प्रधान चुने गये क्योंकि सस्पेंशन की हालत में बीरम सिंह चुनाव नहीं लड़ सकते थे और भूपेंद्र किसी कीमत पर बीरम के संघर्ष को समर्थन देने वाले नहीं थे। कारण समझना कठिन नहीं।
ट्रेड यूनियन में नेता लोग प्रबन्धन से सौदेबाज़ी तो करते हैं क्योंकि यूनियन बनाई ही सौदेबाज़ी के लिये जाती है, परन्तु यह सौदेबाज़ी तमाम श्रमिकों की ओर से उनके हितों के लिये की जाती है न कि किसी व्यक्ति विशेष के लिये। इस सौदेबाज़ी में सौदा प्रबन्धन व श्रमिकों के बीच होता है जिसका यूनियन नेतृत्व करती है, इसके द्वारा यह तय होता है कि प्रबन्धन श्रमिकों को क्या देंगे और उसके बदले श्रमिक अपनी कम्पनी को क्या देंगे, इसी को सामूहिक सौदेबाज़ी कहा गया है जो पूरी तरह से वैध एवं कानूनी होती है जिसका बाकायदा लिखित दस्तावेज़ बनता है, जिसे पुख्ता करने के लिये श्रम तथा समझौता अधिकारी की मुहर भी लगवाई जा सकती है।
परन्तु मामला अब बिगड़ता जा रहा है। यूनियन नेता श्रमिकों के सामूहिक हित-लाभ की अपेक्षा अपने निजी हितों को अधिक प्राथमिकता देने लगे हैं। गिरावट एवं धोखा-धड़ी का स्तर तो यहां तक आ चुका है कि नेता लोग गेट मीटिंग में ‘आग उगलने’ से पहले मालिकान से मिल कर हाथ जोड़ कर प्रार्थना कर आते हैं कि गेट पर ‘आग’ नहीं उगलेंगे, मालिकान को गालियां नहीं देंगे तो यह जनता हमसे बंधी कैसे रहेगी, हम जो कुछ भी कहेंगे उसका बुरा मत मानना, हम दिल से आपके साथ हैं, आदि-आदि। इसके बाद नेतागण आकर श्रमिकों के सामने धुंआधार एवं लच्छेदार भाषण देकर भोले-भाले श्रमिकों की तालियां बटोरने के साथ-साथ अपनी जि़न्दाबाद के नारे सुन कर प्रफुल्ल हो जाते हैं। यह सारी हकीकत किसी एक यूनियन या एक नेता की नहीं बल्कि अधिकांश यूनियनों के अधिकांश नेताओं की है, कोई विरली यूनियन एवं उसका नेता इस कपट से बचा होगा।
‘धंधा’ बन चुके ट्रेड यूनियन में नौबत यहां तक आ चुकी है कि यूनियन लीडर कम्पनी का प्रबन्धन और कम्पनी मालिक यूनियन चलाने लगे हैं। काफी पहले 70-90 दशक में करीब 6000 श्रमिकों द्वारा चलाई जाने वाली इस्ट इन्डिया टेक्सटाइल कम्पनी के इस यूनियन के नेता नज़र मोहम्मद का रूतबा कम्पनी के मैनेजर से कम न था, किसको नौकरी पर रखना है, किसको निकालना है, किस वेंडर से क्या खरीदना है क्या बेचना है, तमाम फैसलों में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रहती थी। दूसरी ओर श्रमिकों को क्या देना है, कितना देना है, कब देना है किसके खिलाफ क्या करना है ये सारे निर्णय तत्कालीन जीएम उमेदमल जैन लिया करते थे। हैरान करने वाली बात यह भी रही कि कम्पनी गेट पर लाल झंडा एटक का लगा होता था जिसके वे खुदमुखत्यार नेता थे।
प्रबन्धन से मेल-जोल बढ़ाना और एक ‘जिम्मेवार’ ट्रेड यूनियन की भूमिका निभाना कम्पनी की उन्नत्ति के लिये जरूरी होती है, परन्तु यह भूमिका जब श्रमिकों की कीमत पर निभाई जाने लगे तो ट्रेड यूनियन आन्दोलन के लिये घातक हो जाती है। एक बार शुरू हो जाने के बाद यह बीमारी छूत की तरह दूसरी यूनियनों में फैलने लगती है। एस्कॉर्टस यूनियन भी इससे बहुत ज्यादा नहीं तो कुछ हद तक संक्रमित हुए बिना नहीं रह सकी। आन्दोलन का नियम है कि वह या तो आगे को बढता है या पीछे को फिसलने लगता है यानी एक जगह खड़ा नहीं रह सकता और जब फिसलने लगता है तो फिर नीचे की ओर फिसलता ही चला चला जाता है।
एस्कॉर्टस यूनियन में यूं तो आरोप-प्रत्यारोप कई नेताओं पर लगते रहे हैं परन्तु जेसीबी प्लांट की ओर से आने वाले नेता सुरेन्द्र लाल बीसियों वर्ष तक यूनियन के कोषाध्यक्ष रहे हैं। बतौर वेल्डर कम्पनी में नौकरी शुरू करने वाले लाल की हैसियत आज कम्पनी के डायरेक्टर से कम नहीं है। उनकी सेवा में कम्पनी की ओर से एक बड़ी उम्दा कार के साथ एक ड्राइवर भी दिया गया है जिसका वेतन 80 000 से ऊपर ही है क्योंकि वह कम्पनी का नियमित श्रमिक है। इसके अलावा वह एस्कॉर्टस यूनियन के पूर्व प्रधान का भाई भी है। इस नाते वह ड्राइवरी के अतिरिक्त ‘संगठन’ में भी सहयोग करता है।
जानकार बताते हैं कि सेवा निवृत होने के बावजूद कम्पनी ने उन्हें सेवा से विस्तार भी दिया। सेवा विस्तार समाप्त होने के बाद भी कम्पनी ने उन्हें बतौर सलाहकार या ऐसा ही कुछ पद देकर नौकरी पर रखा हुआ है जिस नाते उन्हें वेतन व अन्य सभी सुविधायें उपलब्ध हैं। दरअसल कम्पनी यह सब उनके लिये क्यों न करें जब उनके नियंत्रण में कम्पनी को कभी कोई श्रमिक समस्या नहीं आती, कम्पनी ठीक से फल-फूल रही है। यूनियन पर अपनी मजबूत पकड़ बनाये रखने के लिये वे श्रमिकों को हर समझौते में अच्छा-खासा पैकेज दिला देते हैं। लेकिन यहीं पर एक पेच है। यह अच्छा-खासा पैकेज केवल श्रमिकों, करीब एक चौथाई श्रमिकों के लिये ही है जिन्हें नियमित एवं पक्का श्रमिक कहा जाता है। यूनियन की सदस्यता भी इन्हीं के पास रहती है। इन्हीं के वोटों से ये नेता बने रहते हैं। ये श्रमिक सुरेन्द्र लाल के अहसानमंद क्यों न हों जब लाख-लाख रुपये तक वेतन पाते हों। जबकि वही काम करने वाले 75 प्रतिशत श्रमिक जिन्हें कैजुअल एवं ठेकेदारी श्रमिक कहा जाता है, मात्र 15-20 हजार तक ही पाते हों।
स्वत: सिद्ध होता है कि ठेकेदारी में अब कैजुअल काम करने वालों की मेहनत के बल पर कम्पनी फल-फूल रही है और यूनियन सदस्यता वाले चन्द श्रमिक मौज लूट रहे हैं। इसी को तो कहा जाता है ‘सहयोग’, कम्पनी भी फले-फूले और नेता भी। इसी सहयोग के चलते कम्पनी में बिना लाल की मर्जी के न तो कोई भर्ती हो सकता है और न ही कोई वेंडर टिक सकता। इसका लाभ उठाते हुए लाल ने जीवन बीमा का भी बहुत अच्छा कारोबार किया है। लाल निरे स्वार्थी भी नहीं हैं, वे अपने इस रसूख एवं संसाधन का उपयोग ट्रेड यूनियन आन्दोलन के लिये भी करते हैं। जब भी एचएमएस की राज्य कॉन्फ्रेंस होती है तो लाखों रुपये जुटाने का दायित्व भी लाल ही निभाते हैं। और तो और एचएमएस के राष्ट्रीय दिल्ली स्थित कार्यालय के निर्माण हेतु भी इन्होंने 18-20 लाख रुपये जुटा कर उन्हें दिये थे। अपनी एचएमएस के लिये भले ही ठौर-ठिकाना न हो पर केन्द्रीय कार्यालय के लिये इतना बड़ा सहयोग उनकी त्याग एवं सेवा की भावना को दर्शाता है।
धन एकत्र करने के लिये वे गरीब मज़दूरों को परेशान नहीं करते क्योंकि उनसे चंदा लेने पर वे भी तो बदले में कुछ चाहेंगे, इसलिये वे कम्पनी से व्यापार करने वाले वेंडरों आदि से ही सोवनियर के लिये विज्ञापनों के माध्यम से ठीक-ठाक वसूली कर लेते हैं।
अपनी इसी कार्यशैली के चलते सुरेन्द्र लाल व उनके परम सहयोगी एसडी त्यागी हरियाणा राज्य एचएमएस के बड़े नेता होने के साथ-साथ एचएमएस के राष्ट्रीय स्तर पर भी एक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। एचएमएस की ओर से विदेशों को जाने वाले प्रतिनिधि मंडल हों अथवा भविष्यनिधि जैसे विभागों में एचएमएस का प्रतिनिधित्व करने का दायित्व भी इन्हीं के नाजुक कंधों पर डाला जाता है। उच्च स्तरों पर तो बेशक ये बड़े नेता हैं परन्तु जमीनी स्तर पर मामला लगभग साफ है।