थ्योरी कुछ प्रेक्टिकल कुछ : एस्कॉर्टस यूनियन का ‘आज‘
सतीश कुमार
फरीदाबाद में एचएमएस को जन्म देनवाली ऑल एस्कॉर्टस इम्पलायज़ यूनियन की आज क्या स्थिति है और वह यहां तक कैसे पहुंची, इसे जानना मज़दूर वर्ग के लिये बहुत जरूरी है। एचएमएस के साथ नाभि-नाल का सम्बन्ध रखने वाली एस्कॉर्टस यूनियन खुद तो रसातल में गयी सो गयी साथ में एचएमएस को भी ले डूबी। किसी जमाने में 12500 सदस्यों वाली इस यूनियन में आज मात्र 1750 सदस्य ही रह गये हैं। कभी सूरजपुर (नोयडा) वाले याहमा प्लांट सहित आठ प्लांटों तक फैला इसका साम्राज्य सिकुड़ कर आज केवल चार प्लांटों तक ही रह गया है। इन प्लांटों में भी आधे से अधिक मज़दूरों को अछूतों की तरह यूनियन से दूर रखा गया है क्योंकि वे नियमित अथवा पक्के नहीं हैं। कम्पनी का 60 प्रतिशत से 80 प्रतिशत तक काम यही कच्चे मज़दूर निपटा देते हैं। जाहिर है, इन हालात में कम्पनी की निर्भरता इन कच्चे मज़दूरों पर ही अधिक है जो हर प्रकार का शोषण, उत्पीडऩ व अपमान सहने को मजबूर हैं।
ऑटो मोबाइल की इस कम्पनी की यूनियन को विशाल एवं सुदृढ रूप देने में यूं तो अनेकों मज़दूरों ने अपना तन, मन, धन इसमें खपा दिया परंतु सबसे अधिक उभर कर, सर्वमान्य नेता के रूप में सुभाष सेठी आये थे जो मोटर साइकिल प्लांट में कार्यरत थे। उनकी संगठनात्मक क्षमता को भांपते हुए कंपनी ने उन्हें नौकरी से बर्खास्त कर दिया था।
असल में सेठी के नेतृत्व में बाइक प्लांट 1973 में हड़ताल पर चला गया था। बदले की कार्यवाही करते हुए कम्पनी ने सेठी से व 26 अन्य मज़दूरों को बर्खास्त कर दिया था। दिल्ली इन्जीनियरिंग कॉलेज से आटो मोबाइल का डिप्लोमा धारक सेठी ने कहीं और नौकरी ढूंढने की अपेक्षा एस्कॉर्टस कम्पनी के सभी प्लांटों की एक बड़ी यूनियन ऑल एस्कार्टस इम्पलाइज़ के नाम से बनाने का बीड़ा उठाया।
यूनियन बनी उसे रजिस्ट्रेशन नम्बर भी वही मिला जो सेठी की बाइक प्लांट यूनियन का था। इस बड़ी यूनियन बनाने के पीछे सेठी की रणनीति यह थी कि किसी भी एक प्लांट के मज़दूरों द्वारा किये जाने वाले संघर्ष एवं हड़ताल आदि से इतनी बड़ी कम्पनी पर कोई खास दबाव नहीं बनता; इस लिये पूरा दबाव बनाने के लिये सभी प्लांटों को एक जुट होना होगा। ऑल एस्कॉर्टस इम्पलाइज़ यूनियन गठित होने के बाद दिये जाने वाले हर मांग पत्र में पहली मांग सेठी की बहाली रखी जाती थी। लेकिन कामयाबी मिली 1983 में, यानी पूरे 10 साल बाद। इस बीच जनता पार्टी की सरकार बन चुकी थी। इतनी बड़ी यूनियन का प्रधान होने के नाते सेठी ने अपनी पहुंच जॉर्ज $फर्नाडीस, मधु दंडवते, सुरेन्द्र मोहन, सुषमा स्वराज, राम विलास पासवान, चन्द्रशेखर,वीपी सिंह तथा देवी लाल सरीखे बड़े नेताओं तक बना ली थी।
बड़ी यूनियन के प्रधान होने का जो दबाव कम्पनी पर होता है उसके साथ-साथ सेठी की राजनीतिक पहुंच का भी दबाव कम्पनी पर अच्छा-खासा पड़ रहा था। इसके साथ-साथ सेठी का यह कहना कि वे कम्पनी के विरुद्ध नहीं हैं, कम्पनी के अस्तित्व के बिना उनका (मज़दूरों का) भी कोई अस्तित्व नहीं रह जाता। वे तो केवल इतना चाहते हैं कि जो मज़दूर कम्पनी को कमा कर दे रहे हैं, उनका हक भी उन्हें मिलना चाहिये। उक्त तीनों बातों से प्रभावित कम्पनी जो विभिन्न ट्रेड यूनियनों (एटक, इंटक, सीटू) के बाहरी नेताओं से परेशान रहती थी, ने सेठी को नौकरी पर बहाल करना बेहतर समझा, कम से कम वे कम्पनी के मज़दूर तो हैं। लेकिन इनके साथ बर्खास्त हुए अन्य 26 मज़दूरों का कोई अता-पता नहीं चल पाया, वे कौन से गर्त में समा गये।
शुरू में हर तरह की चुनौतियां आई। विभिन्न ट्रेड यूनियनों से जुड़े मज़दूरों ने नेतृत्व हथियाने के पुरजोर प्रयास किये परन्तु सेठी ने अपनी संगठनात्मक सूझ-बूझ के चलते उन सबको परास्त कर अपना एकछत्र नेतृत्व स्थापित किया।
शुरूआती काल में जो मज़दूर बतौर चंदा एक रुपया देने में भी हील-हुज्जत करते थे वही मज़दूर 100-100 रुपये सालाना भी देने लगे, बोनस एवं एग्रीमेंट आदि पर भी यूनियन द्वारा मांगे जाने वाले चंदे को सहर्ष देने लगे। जिस कम्पनी प्रबन्धन ने सेठी को निकाल बाहर किया था और यूनियन को पहचानती नहीं थी वही प्रबन्धन यूनियन के सामने नतमस्तक होने लगा था। और तो और यूनियन द्वारा घोषित चंदे की उगाही भी मज़दूरों के वेतन से काट के यूनियन के बैंक खाते में डालने लगा। यूनियन की शायद ही कोई ऐसी मांग हो जिसे प्रबन्धन ने स्वीकार न किया हो। अपनी नौकरी वापस पाने के लिये सेठी ने अदालतों के धक्के खाने की बजाय अपने संगठन पर अधिक बल्कि पूरा भरोसा किया और पिछले पूरे वेतन सहित नौकरी पर बहाली पायी।
यूनियन का यह स्वर्णिम दौर था। मज़दूरों के निरंतर आ रहे चंदे से नीलम फ्लाई ओवर की बगल में शानदार दो मंजिला द$फ्तर बन गया, 2-3 करोड़ की ए$फडी (सावधि जमा राशि) विभिन्न बैंकों में जमा हो गयी। इसी रकम के ब्याज मात्र से दफ्तर का खर्च चलने लगा। यूनियन दफ्तर के पीछे खुले पड़े मैदान को जब एस्कॉर्टस कम्पनी ने सरकार से झटक लिया तो उसमें से 500-700 गज़ जगह यूनियन ने भी कम्पनी से झटक ली। यह यूनियन की ताकत का ही परिणाम था जो आज तक भी इस द$फ्तर का बिजली, पानी व सीवर एस्कॉर्टस अस्पताल के जिम्मे है।
एचएमएस बेशक सीधे तौर पर किसी राजनीतिक दल से सम्बन्धित नहीं रही, लेकिन इसका जुड़ाव अपने आपको समाजवादी कहने वाले उन नेताओं से रहा जो वक्त की आंधी में उड़ कर बाद में भाजपाई तक हो गये। इसी सिद्धांत के आधार पर एचएमएस से जुड़ी हर यूनियन को किसी भी राजनीतिक दल से ताल्लुक रखने की छूट रही है। सुभाष सेठी एक ओर तो व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन की बात करते थे, भगत सिंह की राह अपनाने की कहते थे, दूसरी ओर वे उक्त तमाम सिद्धांतहीन नेताओं की परिक्रमा करते थे। इनमें से कोई भी नेता जब दिल्ली से चल कर मथुरा की ओर जाता था तो एस्कॉर्ट गेट पर मज़दूरों की भारी भीड़ जुटा कर उनका स्वागत, सत्कार एवं जय-जयकार किया जाता था। यह सब करते वक्त सेठी भूल जाते थे कि एक जनता पार्टी में होते हुए भी इनमें भारी अन्तरविरोध हैं। सेठी को इस बात का अनुभव शायद पहली बार तब हुआ जब औम प्रकाश चौटाला ने सेठी को जार्ज $फर्नाडीस से मिल कर निकलते देखा और उन्हें यह कहते हुए धमकाया कि दिखावा तो हमारे साथ रहने का करते हो और छिप-छिप कर उनसे भी मिलते हो। इसी के चलते 1982 में विधानसभा की बल्लबगढ सीट से चौटाला ने उनका टिकट कटवा दिया। तमाम मिन्नत समाजत के बावजूद जब देवी लाल नहीं माने तो जॉर्ज से दबाव डलवा कर बड़ी मुश्किल से देवी लाल से टिकट लिया। परन्तु इतनी जद्दो-जहद के बावजूद सेठी चुनाव हार गये।
दरअसल हर इंसान, जो थोड़ा-बहुत भी किसी संगठन से जुड़ जाता है। उसकी इच्छा राजनीतिक सत्ता पाने की होती है, यह स्वाभाविक भी है। फिर सेठी तो बहुत बड़ी यूनियन के प्रधान थे। उनके राजनीतिक संपर्क भी काफी हो गये थे, अनेकों राज्य व राष्ट्रीय स्तर के नेता उनसे जुड़े थे। ऐसे में विधायक बनने की इच्छा का होना कोई अनहोनी बात नहीं। ऐसे में हर मज़दूर नेता की तरह सेठी ने भी यही सोचा होगा कि विधायक बनने के बाद वे मज़दूरों के हित में ज्यादा बढिया लड़ाई लड़ सकेंगे।
(सम्पादक : मजदूर मोर्चा)