उस जमाने में गुडईयर का वेतन इतना शानदार था कि उस वक्त थाना बल्लबगढ में तैनात एएसआई करतार सिंह तोमर ने अपनी 135 रु. मासिक की नौकरी से इस्तीफा देकर गुड ईयर में मज़दूरी शुरू कर दी

उस जमाने में गुडईयर का वेतन इतना शानदार था कि उस वक्त थाना बल्लबगढ में तैनात एएसआई करतार सिंह तोमर ने अपनी 135 रु. मासिक की नौकरी से इस्तीफा देकर गुड ईयर में मज़दूरी शुरू कर दी
January 03 08:25 2021

इतिहास : एक पुलिस अधिकारी ने बनायी थी यूनियन)

सतीश कुमार

गुडईयर की नौकरी में मैंने क्या देखा, क्या सीखा,  कैसे संघर्ष किये, ये जानने से पहले थोड़ा कम्पनी व इसकी यूनियन के इतिहास की जानकारी ले लें। सन् 1961 में तत्कालीन उपराष्ट्रपति सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन ने इसका उद्घाटन किया था। उस समय कम्पनी का यह मौजूदा स्वरूप नहीं था। समय के साथ-साथ इसका विस्तार होता गया। प्रारम्भ से यहां अमेरिका आदि देशों की पुरानी घिसी-पिटी मशीनें ही लाई गयी थी। यहां की सस्ती लेबर को देखते हुए महंगी स्वचालित मशीनों की जरूरत नहीं समझी गयी थी।

यहां प्लांट लगाने से पहले गुडईयर का भारतीय मुख्यालय चौरंगी, कलकत्ता में होता था। कम्पनी अपना सारा उत्पादन बाहरी देशों से करा कर माल यहां बेचती थी। लेकिन यहां के सस्ते श्रम व अन्य सरकारी सुविधाओं के मद्देनज़र बाहर से माल लाने की अपेक्षा यहां उत्पादन करना कम्पनी को ज्यादा लाभदायक लगा। भारत की गरीबी व बेरोज़गारी के चलते कम्पनी ने अच्छे तगड़े जवानों को भर्ती किया। वेतन कम्पनी में प्रति घंटे के हिसाब से दिया जाता था जो अब भी वैसे ही दिया जाता है। महीने भर आठ घंटे प्रति दिन काम के बदले, उस जमाने में करीब 200 रु. मिल जाया करते थे जो देखने में बहुत ही शानदार वेतन लगता था। इतना शानदार कि उस वक्त थाना बल्लबगढ में तैनात एएसआई करतार सिंह तोमर ने अपनी 135 रु. मासिक की नौकरी से इस्तीफा देकर गुड ईयर में मज़दूरी शुरू कर दी। इतना ही नहीं थाने में तैनात 70-80 रु. मासिक वेतन पाने वाले सिपाहियों को भी करतार सिंह लगातार प्रेरित करते थे कि छोड़ो यह 24 घंटो की गुलामी आओ तुम्हे भी गुडईयर में भर्ती कराता हूं। सिपाही कहते न जनाब हमे तो 70-80 रु. की गुलामी ही ठीक है। लेकिन करतार सिंह को भी धरातल की हकीकत समझने में बहुत देर नहीं लगी। मात्र चंद माह में ही उन्होंने कम्पनी के उस प्रदूषित माहौल में हाड़तोड़ मेहनत के साथ-साथ प्रताडऩा का भी अनुभव होने लगा। सुरक्षा की पर्याप्त व्यवस्था न होने से आये दिन मशीनों की चपेट में आते मज़दूर का या तो कोई अंग भंग हो जाता था या अल्ला को प्यारा हो जाता था। मुआवज़े की कोई व्यवस्था नहीं थी। अंग-भंग श्रमिक को नौकरी से निकाल-बाहर किया जाता था।

करतार सिंह ने भी समझ लिया था कि अब यहां बहुत दिन तक नहीं टिका जा सकता; लिहाज़ा उन्होंने एक दिन प्लांट के फ्लोर पर ही एक मेज पर चढ कर तमाम श्रमिकों को एकत्र कर भाषण दिया और यूनियन का गठन कर दिया। तमाम मैनेजरों की मौजूदगी में अच्छी-खासी नारेबाज़ी करते हुए कम्पनी प्रबन्धन को खूब खरी-खोटी सुनाई। मज़दूर शोषण एवं प्रताडऩा से पहले ही भरे बैठे थे, केवल प्रतिक्षा कर रहे थे कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे? घंटी तो करतार सिंह ने बांध दी, जो बाद में कई तरह के यूनियन नेताओं ने अपने-अपने अंदाज में बजाई। हां, करतार सिंह जरूर कम्पनी से रूखसत हो गये लेकिन अपनी जुगाड़बाज़ी से पुन:अपनी पुलिस की नौकरी हथिया ली और आईपीएस हो कर एसपी के पद से सेवा निवृत हुए।

हर चमकने वाली चीज़ सोना नहीं होती। वेतन भले ही इस कम्पनी में अच्छा दिखता था परन्तु हर सांस के साथ श्रमिक जो ज़हर निगलता था, वह उसकी जीवन डोर को छोटा करता जाता था। हालांकि मेरे वक्त यानी 1975 आते तक हालात में काफी कुछ सुधार हुआ था। लेकिन इसे मुकम्मल नहीं कहा जा सकता। यूनियन बनने के बाद देश के श्रम कानूनों का पालन व कार्यस्थरल पर सुरक्षा उपायों व नियमों का पालन होने लगा था। लेकिन प्रबन्धन अपनी आदतों को पूर्णतया कभी नहीं छोड़ता। इसके लिये वह यूनियन नेतृत्व से सांठ-गांठ करने की नीति भी अपनाता है। जब यूनियन नेतृत्व मजबूत व ईमानदार रहा मज़दूरों ने कुछ न कुछ पाया। मेरे आने से पहले यूनियन ने काफी संघर्ष किये थे जिससे निपटने के लिये प्रबन्धन ने पुलिस द्वारा मज़दूरों का काफी उत्पीडऩ भी कराया था। क्रोधित मज़दूरों ने केपी अग्रवाल नामक एक मैनेजर को बुरी तरह से कम्पनी के भीतर ही पीट दिया था।

मेरे वक्त में ऐसी कोई घटना न कम्पनी के भीतर न कम्पनी के बाहर हुई। अपनी नौकरी के पहले ही वर्ष में 15 दिन सस्पेंड रह कर बहाल होने के करीब एक साल बाद मुझे दोबारा सस्पेंड कर दिया गया। तत्कालीन यूनियन नेता मेरे पास आये और मेरी घरेलू जांच में सहयोग तथा एक बढ़िया वकील दिल्ली से लाने की पेशकश की। लेकिन मैं यूनियन वालों के हथकंडे से सचेत था, लिहाजा मैंने बड़ी विनम्रता से कहा कि अपका आशीर्वाद मेरे साथ रहना चाहिये मैनेजमेंट से तो मैं निपट लूंगा। मैंने कम्पनी के चार्जशीट का जवाब दिया घरेलू जांच खुद ब खुद लड़ कर जीती। इस बीच मैं करीब दो माह सस्पेंड रहा। कम्पनी ने बहाल तो कर लिया लेकिन इस समय का वेतन नहीं दिया जिसके लिये मैंने ट्रब्यूनल में केस दायर कर दिया था।

उस वक्त के कानून के अनुसार मुझे इस तरह का केस दायर करने का अधिकार केवल तभी था जब (शायद) 20 प्रतिशत श्रमिक स्वीकृत (एक्सपाउजल) दें, अथवा यूनियन इस तरह का केस मेरे लिये डाल सकती थी। लेकिन यूनियन के साथ तो मेरा छत्तीस का आंकड़ा बन चुका था; ऐसे में मुझे मज़दूरों की स्वीकृति लेने में भी यूनियन ने रोड़े अटकाये, परंतु आवश्यक स्वीकृति मुझे मिल गयी थी।

दरअसल यूनियन वालों का मुझ से नाराज़ होने का वाजिब कारण भी था। मैनेजमेंट से मुझे अपने दम पर भिड़ते देख मज़दूरों ने अपनी हर तरह की समस्या व कानूनी राय के लिये यूनियन की बजाय मेरे पास आना शुरू कर दिया था। मैनेजमेंट द्वारा दिये गये आरोप पत्रों का जवाब लिखाने से लेकर घरेलू जांच तक कराने के लिये मज़दूर मेरे पास आने लगे। इस बीच मैंने गेट मीटिंग लेनी भी शुरू कर दी थी जो अब तक यूनियन का ही एकाधिकार समझा जाता था। कुल मिला कर यूनियन की दुकान बंद होने लगी चंदा भी दिन ब दिन घटने लगा। दूसरी ओर मैनेजमेंट की सिरदर्दी भी काफी बढ़ने लगी जो काम यूनियन की मिलीभगत से फौरन सुलट जाते थे, वे बंद हो गये। जिस चार्जशीट का जवाब मैं लिखवा देता था या जिस घरेलू जांच में मैं बतौर श्रमिक प्रतिनिधि बैठ जाता था उस श्रमिक का मैनेजमेंट कुछ नहीं बिगाड़ पाती थी। ऐसे में, जब यूनियन और मैनेजमेंट दोनों मेरे से परेशान हों तो यूनियन की सहमति से मैनेजमेंट ने एक निर्धारित जोखिम उठाते हुए 22 जून 1978  को मुझे फायर कर दिया। गेट पर 702 रु. का नोटिस वेतन भी मुझे गेट पर थमा दिया गया। कम्पनी के लिये यह काम इतना आसान नहीं था। इसके लिये थाना सेंट्रल के एसएचओ व बीसियों पुलिस वाले गेट पर मौजूद थे। शायद कम्पनी को किसी बड़ी प्रतिक्रिया-स्वरूप हंगामे की आशंका रही होगी। लेकिन मैं उस वक्त तक कुछ परिपक्व हो चुका था लिहाज़ा तत्कालीन कोई प्रतिक्रिया करके कम्पनी व प्रशासन को कोई मौका देने की अपेक्षा मैंने खुशी-खुशी यह कहते हुए कि इस छोटे से काम के लिये इतने भारी पुलिस बल की क्या जरूरत थी, अपना बर्खास्तगी (फायर) पत्र एवं नोटिस वेतन पकड़ लिया तथा अगले संघर्ष की तैयारी में जुट गया।

(सम्पादक मज़दूर मोर्चा)

  Article "tagged" as:
  Categories:
view more articles

About Article Author

Mazdoor Morcha
Mazdoor Morcha

View More Articles