श्री अटल बिहारी मेडिकल कॉलेज अस्पताल छांयसा (म.मो.) खट्टर सरकार बीते दो साल से छांयसा के गांव मोठुका स्थित मेडिकल कॉलेज अस्पताल को चलाने के दावे लगातार करती आ रही है। बीते करीब डेढ़ वर्ष पूर्व दिखावे के लिये फौजी मेडिकल स्टॉफ भी तैनात कर दिया गया था। जनता को बेवकूफ बनाने के लिये तमाम स्थानीय सत्तारूढ़ सांसद, विधायक, मंत्री आदि ने यहां हवन आदि का ढोंग करके अस्पताल को चालू घोषित कर दिया था। परन्तु ड्रामा तो ड्रामा ही होता है, सो कुछ दिन चलने के बाद टांय-टांय फिस हो गया।
इस महीने फिर से सरकार ने इस अस्पताल की केवल ओपीडी चालू करने की बात कही है। ओपीडी यानी मरीज़ आयें, डॉक्टर को दिखायें, आवश्यक जांच आदि करायें और दवा लेकर घर जायें। इसमें मरीज़ को भर्ती नहीं किया जाता। किसी भी अस्पताल में सर्वप्रथम जरूरी कैजुअल्टी विभाग यानी जहां कोई भी मरीज़ आपात स्थिति में चिकित्सा सुविधा ले सके , उसकी व्यवस्था यहां नही है। दूसरे नम्बर पर आता है प्रसूति विभाग यानी जहां गर्भवती महिलाओं की डिलिवरी हो सके, वह भी यहां नदारद है। जहां ये दोनों चिकित्सा सुविधायें उपलब्ध न हों तो उसे अस्पताल कैसे कहा जा सकता है और वो भी ‘श्री अटल बिहारी मेडिकल कॉलेज अस्पताल’?
सबसे अधिक रोगी मेडिसिन विभाग के आते हैं जिसका कोई डॉक्टर यहां मौजूद नहीं है। किसी की हड्डी-पसली टूट जाये तो उसकी जांच करने के लिये यहां एक्सरे मशीन तक भी नहीं है। इसके अभाव में हड्डी सम्बन्धित कोई इलाज नहीं हो सकता। एमआरआई व सिटी स्कैन जैसे उपकरणों की बात तो छोड़ ही दीजिये रेडियोलॉजिस्ट डॉक्टर व रेडियोग्राफर तक यहां नहीं है। खून व मल-मूत्र आदि की जांच के लिये भी यहां कोई व्यवस्था नहीं है। इसके लिये मरीज़ों को बीके अस्पताल रेफर किया जाता है जो खुद अपने मरीजों की जांच अस्पताल के बाहर दुकान सजाये बैठे लैबोरेट्री वालों से कराते हैं।
ऑपरेशन थियेटर की तो यहां जरूरत ही नहीं क्योंकि ऑपरेशन के बाद मरीज़ को भर्ती करना पड़ता है। जिससे इन्होंने पहले ही हाथ खड़े कर लिये हैं। प्रोपेगेंडे के तौर पर 10 रुपये में कैंसर का इलाज करने का दावा किया जा रहा है। कहा जा रहा है कि यहां रेडियो थेरेपी से कैंसर का इलाज किया जायेगा। यह मात्र प्रोपेगेंडा है।
रेडियो थेरेपी के लिये जो आवश्यक उपकरण होने चाहिये वो यहां नहीं है। इनके पास है तो केवल एक डॉक्टर जो कैंसर के इलाज बाबत कुछ जानते हैं लेकिन वे भी आवश्यक उपकरणों के बिना कुछ भी नहीं कर सकते।
प्रोपेगेंडे के तौर पर इस संस्थान के डायरेक्टर गौतम गोले आसपास के 26 गांवों में पूरे जोर-शोर से प्रचार करके इलाज के लिये लोगों को अपने यहां आमंत्रित कर रहें है। लेकिन प्रचार क्या करेगा जब वहां सौदा ही कुछ न हो तो? दिन भर में भूले-भटके बमुश्किल 10-20 लोग ही यहां आते जरूर हैं लेकिन लौटते खाली हाथ हैं। इन लोगों का ही मौखिक प्रचार पूरे देहात में ज्यादा असरकारी होता है। इसलिये फिजूल में यहां धक्के खाने कौन और क्यों आये?
गौरतलब है कि इसी अस्पताल में, जब ये प्राइवेट था, करीब दो हजार मरीज़ रोजाना ओपीडी में आते थे। इन्हीं में से जरूरतमंद मरीज़ों को भर्ती भी किया जाता था। अस्पताल के कुल 300 में से 200 बेड भरे रहते थे। बतौर फेकल्टी जो डॉक्टर भर्ती कर रखे हैं वे भी दुखी हैं। करने को कोई काम नहीं और उठने-बैठने की कोई समुचित व्यवस्था नहीं। कुछ डॉक्टरों ने तो अपने पल्ले से खरीद कर एसी तक लगवाये हैं। इस सबके बावजूद कैदियों की तरह उनकी हाजरी पर डायरेक्टर का ज्यादा ध्यान रहता है।