फरीदाबाद (मज़दूर मोर्चा) स्कूली शिक्षा में सुधार एवं उसकी गुणवत्ता बढ़ाने के नाम पर सरकार द्वारा लफ्$फाज़ी एवं जुमलेबाज़ी तो खुलकर की जाती है लेकिन पढने को न तो किताबें और न ही पढ़ाने को शिक्षक मिलते हैं। जि़ले के अधिकांश प्राइमरी स्कूलों विशेष कर अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में अभी तक पाठ्य पुस्तकें नहीं पहुंच पाई हैं जबकि मार्च के प्रथम सप्ताह से परीक्षाएं शुरू होने वाली हैं। बताया जाता है कि शिक्षा विभाग ने जरूरत की एक चौथाई किताबें भेज कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली है। जाहिर है एक-एक किताब से चार-चार छात्रों को जैसे-तैसे पढ़ाई करनी पड़ रही है।
स्कूली शिक्षा में किताबों व शिक्षकों द्वारा पढ़ाई कराने का तरीका सैंकड़ों साल पुराना रहा है। सभी छात्र नया शिक्षा सत्र शुरू होते ही बाजार से आवश्यक किताबें बिना किसी दिक्कत के खरीद लिये जाते। इसके अलावा नई कक्षा में जाने वाले छात्र अपनी पुरानी किताबें आधी कीमत में या मुफ्त उनकी कक्षा में आने वाले नये छात्रों को दे दिया करते थे। लेकिन शिक्षा के व्यापारीकरण के चलते इस व्यवस्था को ध्वस्त कर हर वर्ष हर कक्षा के लिये नई किताबें छापने का खेल शुरू किया गया। निजी स्कूलों में इस खेल से भरपूर लूट कमाई की जाती है। ऐसे में भला सरकारी शिक्षा विभाग कैसे पीछे रह सकता था? उसने भी अपनी तमाम सरकारी स्कूलों के लिये किताबें छापने का धंधा शुरू कर दिया। लेखन व छपाई के लिये ठेके दिये जाने लगे तो कुछ लोगों को वितरण कार्य सौंपकर कमाई का अवसर दिया जाने लगा।
जब से सरकार ने किताबें छपवाने तथा बंटवाने का धंधा शुरू किया है तभी से सरकारी स्कूलों में पढऩे वाले छात्रों के लिये किताबों का संकट बना हुआ है। यह संकट कभी कभार नहीं बल्कि हर साल बना रहता है। दरअसल होता यह है कि पहले तो सरकार अपनी मर्जी के लेखक (शिक्षाविद्)छांटती है, फिर छपाई करने वाले छापे खाने तलाशती है, तमाम सौदेबाजियों व लेन-देन की प्रक्रिया पूरी होने पर जब किताब छप जाए तो इसके वितरण की व्यवस्था करने की सोचती है।
दरअसल, सरकारी स्कूलों में कक्षा और विषयवार कितनी पुस्तकों की आवश्यकता है इसकी रिपोर्ट शिक्षा विभाग के चंडीगढ़ स्थित निदेशालय सभी जिलों के डीईओ से मांगता हैं। सभी स्कूलों की मांग की समेकित रिपोर्ट निदेशालय भेजी जाती है। इसके आधार पर निदेशालय की ओर से प्रिंटर को ऑर्डर दिया जाता है। सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार इस शिक्षण सत्र के लिए करीब 550 करोड़ रुपये का ऑर्डर जारी किया गया था। प्रिंटर का काम पुस्तक छापना, हर स्कूल के लिए निर्धारित संख्या में पुस्तकों की पैकिंग कर वहां पहुंचाना है। प्रिंटर कितनी पुस्तकें भेज रहा इसकी कोई पड़ताल नहीं की जाती। यहीं खेल किया जाता है, प्रिंटर स्कूलों में बहुत कम पुस्तकें भेजता है। स्कूल प्रबंधन इसकी शिकायत डीईओ से करता है, डीईओ पहले सभी स्कूलों से आई शिकायतें इकट्ठा करता है फिर इन्हें निदेशालय भेजा जाता है। इसके बाद चलता है निदेशालय और प्रिंटर के बीच सौदेबाजी का दौर। इसी तरह पूरा शिक्षण सत्र निकाल दिया जाता है और कमीशनखारी व बंदरबांट कर मामला बंद कर दिया जाता है। प्रिंटर से लेकर अधिकारियों की जेब तो भरती है लेकिन बिना पुस्तकों के पढऩे से वंचित विद्यार्थियों का भविष्य चौपट होता है।
बिना किसी सामंजस्य के होने वाली इस प्रक्रिया में शिक्षा सत्र ही पूरा हो जाता है। इतनी ही नहीं वितरण व्यवस्था इतनी लचर होती है कि हिन्दी की जगह अंग्रेजी की और अंग्रेजी की जगह हिन्दी की किताबें पहुंच जाती हैं और जहां पहुंच गई वे वहीं की वहीं पड़ी रह जाती हैं, उन्हें अदलने-बदलने की कोई व्यवस्था नहीं की जाती है। यह स्थिति किसी एक इक्का-दुक्का जिले की न होकर पूरे राज्य की बनी हुई है।