सत्तासुख का हथियार बन चुका है मुसलमानों से नफरत का खेल

सत्तासुख का हथियार बन चुका है मुसलमानों से नफरत का खेल
May 19 08:40 2024

क्रांतिकारी मज़दूर मोर्चा
लगभग 700 साल के मुस्लिम शासकों के राज़ में, कट्टरवादी-ब्राह्मणवादी हिन्दुओं ने सत्ता-सुख भोगा। दरबारी बनकर, मुस्लिम शासकों का शासन संभाला, मलाई खाई। उस पूरे काल-खंड में, उन्हें कभी भी, इस्लाम से किसी तरह की कोई शिकायत नहीं रही. मौलवियों और पंडों ने, टीम वर्क से, बेहाल किसानों के विद्रोह कुचलने के काम किए और ये सुनिश्चित किया कि राजा बहादुर को शासन करने में कोई दिक्क़त ना आए. यहां तक कि औरंगज़ेब के 50 साल के शासन में 50% हिन्दू थे और उनमें लगभग सभी, कट्टरवादी-ब्राह्मणवादी मुफ्तखोर ज़मात से ही थे. युद्ध के लिए सेना में तो जाते नहीं थे लेकिन प्रशासन, लगान वसूली, दंड विभाग ये लोग ही देखते थे। फिर अचानक क्या हुआ कि इस कट्टरपंथी-ब्राह्मणवादी हिन्दू ज़मात को मुसलमानों से, इस्लाम से प्रचंड नफऱत हो गई? हर वक़्त मुसलमानों के विरुद्ध ज़हर उगलने में लग गए. हिन्दू-मुस्लिम दंगे गढऩे में लग गए. आज भी इनका मुख्य धंधा यही है. हर मुसलमान को आतंकी, देशद्रोही साबित करना, उनके विरुद्ध समाज में नफऱत फैलाना, उसे सघन बनाना. इस सवाल का जवाब मैं नहीं ढूंढ पाता था।

दरअसल उन्नीसवीं शताब्दी में, हमारे देश में, महात्मा ज्योतिबा फुले ने, समाज के इस भयानक रोग, ब्राह्मणवाद को पहचाना और इसके विरुद्ध, एक तरह की जंग का ऐलान कर दिया. देश में तकऱ्पूर्ण वैज्ञानिक सोच का माहौल बनने लगा. लोग मुफ्तखोर ब्राह्मणों के झांसों में आने से इंकार करने लगे और समाज बदलने लगा. ब्राह्मणवादी दहशत में आ गए. उन्होंने 1890 को ज्योतिबा फुले की मृत्यु के तुरंत बाद, अपने गढ़, पुणे में विचार-विमर्श किया। साफ़ नजऱ आ रहा था कि अब अंग्रेज़ों का राज़ मज़बूत हो चुका है, मुसलमान अब सत्ता में नहीं आने वाले। इसलिए उन्होंने तय किया कि हिन्दू-मुस्लिम दंगे गढ़ते रहने से ही वे हिन्दू समाज पर अपना वर्चस्व क़ायम रख सकते हैं. इस तरह वे अंग्रेजों की गुड बुक्स में भी रहेंगे और फिर से सत्ता से भी चिपक जाएंगे।

1893 में इस देश ने पहला हिन्दू-मुस्लिम दंगा देखा जो पहले मुंबई में हुआ और उसके बाद पुणे में। उसके बाद तो बताने की ज़रूरत ही नहीं कि ये ज़हरीली श्रंखला ही चल निकली। अँगरेज़ भी खुश हुए और आज के भाजपाई भी खुश हैं। समाज में मुस्लिम नफऱत की ज़हनियत से मुक्त बहुत ही कम लोग हैं क्योंकि इस ब्राह्मणवादी ज़हरीले प्रचार के विरुद्ध कोई सशक्त जनवादी, तकऱ्वादी तहरीक़ छिड़ी ही नहीं. पुलिस, प्रशासन, फ़ौज, न्यायपालिका सभी जगह ऐसे लोगों की भरमार है जिनके अंदर मुसलमानों के प्रति नफऱत कूट कूट कर भरी है। पूरे अंग्रेज़ शासन में ब्राह्मणवादियों ने अंगरेज़ हुकूमत का साथ दिया। आज भी वे सत्ता के साथ हैं।

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