सरकारी हरामखोरी के चलते उठान न होने से लाखों टन गेहूं बर्बादी की ओर

सरकारी हरामखोरी के चलते उठान न होने से लाखों टन गेहूं बर्बादी की ओर
April 15 17:00 2024

फरीदाबाद (मज़दूर मोर्चा) फरीदाबाद, बल्लबगढ़, पलवल, होडल क्षेत्र की अनेकों मंडियों में खुले में पड़ा लाखों टन गेहूं आज-कल में होने वाली बरसात से भीगने की बाट जोह रहा है। किसान को उसकी फसल का वाजिब मूल्य अथवा खड़ी फसलों को होने वाले नुक्सान का मुआवजा देने में तो सरकार की जान निकलती है; लेकिन उसके खून-पसीने की कमाई को बर्बादी से बचाने में सरकार की कोई रुचि नहीं।

मौजूदा मंडी व्यवस्था के तहत किसानों द्वारा ट्रॉलियों में भरकर जो गेहूं लाया जाता है उसे कांटे पर तौल कर आढ़ती की दुकान पर डाल दिया जाता है। गौरतलब है कि ट्राली समेत होने वाली इस तुलाई में प्रति क्विंटल दो किलो गेहूं अतिरिक्त लिया जाता है। यानी कि गेहूं की होने वाली सम्भावित बर्बादी का भुगतान भी किसान से ही करा लिया जाता है। नियमानुसार इस गेहूं को बोरों में तब भरा जायेगा जब सरकार की कोई एजेंसी उसे खरीद ले। अन्यथा वह ज्यों का त्यों पड़ा रहेगा। किसानों के भुगतान की प्रक्रिया भी इसी भराई के बाद ही शुरू होती है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार दोनों जि़लों की मंडियों में 6 से 8 दिन तक सरकार ने कोई खरीदारी नहीं की थी। और जब खरीदारी कर भी ली गई तो बोरों को मंडी से उठाने का कोई प्रबंध नहीं किया गया। इसके चलते मंडियों में और गेहूं डालने की जगह ही नहीं बची। दूसरी ओर किसान गेहूं से भरी ट्रॉलियों पर ट्रॉलियां लाये जा रहे हैं।

दरअसल होता यह है कि किसान तो फसल तैयार होते ही उसे लेकर मंडी की ओर भागता है। लेकिन मंडी व्यवस्था को चलाने वाली निकम्मी सरकार के नालायक अधिकारी कुंभकरण की नींद सोये रहते हैं। जब गेहूं मंडी में आ गिरता है तब नींद खुलने पर सरकार उसे उठाने के लिये बोरियों का इंतजाम सोचने लगती है। जब बोरियां भर जायें तो उन्हें उठाकर गोदामों तक ले जाने के लिये ट्रॉंसपोर्ट की व्यवस्था करने बाबत सोचा जाता है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार पलवल जि़ले की ठसाठस भरी तमाम मंडियों से गेहूं उठाने के लिये 11 अप्रैल को टेंडर छोडऩे की बात चल रही थी।

मंडियों में गेहूं कोई पहली बार तो आ नहीं रहा, जो अधिकारी इसकी आवक से अनभिज्ञ हों। हर साल होने वाली इस प्रक्रिया की तैयारी एक महीना पहले से क्यों नहीं की जा सकती? क्यों नहीं खाली बोरों की खरीदारी व उठान के लिये ट्रांसपोर्ट का प्रबंध मार्च के महीने में ही कर लिया जाता? लेकिन ऐसा सब कुछ कर लें तो फिर इन्हें निकम्मे व हरामखोर कौन कहेगा? यह स्थिति कोई अकेले फरीदाबाद व पलवल की नहीं बल्कि राज्य भर की लगभग तमाम मंडियों की यही स्थिति रहती है। यही सब कुछ छ: महीने बाद धान की $फसल आने पर भी दोहराया जाता है। इसके लिये सीधे-सीधे जि़लों के उपायुक्त जिम्मेदार होते हैं।

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Mazdoor Morcha
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