सत्यवीर सिंह नीलम चौक और बाटा चौक के बीच, रेलवे लाइन के पश्चिम में बसी मज़दूर बस्ती, ‘ए सी नगर’ कहलाती है. रेलवे लाइन के पूर्व में कृष्णा नगर और पश्चिम में ए सी नगर। ‘ए सी नगर’ फरीदाबाद की सबसे पहली मज़दूर बस्ती है। ये बस्ती, 1960 के दशक के शुरू में, मतलब पंजाब में रहते हुए ही, बसनी शुरू हो गई थी। उस समय हरियाणा राज्य नहीं बना था। हरियाणा और हिमाचल राज्य तो, 1 नवम्बर 1966 को पंजाब से अलग हुए। पहले इसका नाम ‘अम्बेडकर नगर’ था, लेकिन मज़दूर बस्तियों को उखडऩे से बचने के लिए, किसी ‘नेता’ के नाम का आसरा चाहिए होता है, और ‘नेताओं’ को एक निश्चित वोट बैंक। यही कारण था, कि बाद में ये बस्ती, फरीदाबाद के कांग्रेस के एक कद्दावर पंजाबी नेता ‘एकाग्र चन्द्र चौधरी’ के नाम से ‘एसी नगर’ बन गई। ये मज़दूर बस्ती, फरीदाबाद में सबसे पुरानी और बड़ी है। इसका कुल क्षेत्रफल 27.5 एकड़ है। यहाँ, दर्जी की एक दुकान पर, जब संजय नाम के कारीगर को, ‘क्रांतिकारी मज़दूर मोर्चा का परचा दिया गया, तो उन्होंने पूछा, ‘किस बारे में है?’ ‘मज़दूरों और मज़दूर बस्तियों की समस्याओं को मज़दूर विरोधी प्रशासन तक पहुँचाने के लिए’, हमने बताया। “हमारी, कोई मज़दूर बस्ती नहीं है जी, हमारी तो पक्की बस्ती है” ठसक के साथ संजय द्वारा दिया ये जवाब, दिल खुश कर गया। इस बात में, मज़दूर बस्तियों की आज की दुर्दशा का रहस्य भी छुपा हुआ है।
पिछले 10 साल से यहाँ कोई राशन कार्ड ज़ारी नहीं हुआ, फिर भी इस बस्ती में लगभग 5000 राशन कार्ड हैं। इस बस्ती की आबादी 30,000 से अधिक है। इस बस्ती के काफ़ी घरों में शौचालय हैं। यहाँ दो सुलभ शौचालय भी हैं। एक ‘के ब्लॉक’ में, और दूसरा ‘रोनाल्ड गेस्ट हाउस’ के पास ‘कबेला’ में। इन्हें 1994 में नगर निगम ने बनाकर ‘सुलभ शौचालय’ संस्था को दे दिया था। सुलभ शौचालय, इनके रखरखाव का खर्च मज़दूरों से ही वसूलता है, क्योंकि फरीदाबाद नगर निगम मेंटेनेंस का कोई खर्च नहीं उठाता। ‘कबेला’ नाम से एक क्षेत्र यहाँ मशहूर है. ‘कबेला’ का अर्थ है, जानवरों का कत्लखाना। किसी ज़माने में यहाँ, बकरे व मुर्गे कटते थे और उनका गोश्त बिकता था।
रेलवे लाइन के पश्चिम में, पटरियों से लग कर, लगभग एक किमी लम्बी झुग्गियों की पहली लाइन है। उसके ठीक पश्चिम में, एक विशाल गटर बहता है। बीच में हो या साइड में, बड़ा, बदबूदार गटर होना, मज़दूर बस्ती होने की एक अनिवार्य शर्त है! यही कारण है, कि सबसे स्वस्थ मच्छर, और सबसे कमज़ोर बच्चे व महिलाएं, मज़दूर बस्तियों में ही निवास करते हैं। तंदुरुस्त मच्छरों के झुण्ड, आस-पास की संभ्रांत कोठियों में भी चक्कर मारने के लिए आज़ाद हैं, लेकिन वहाँ उनके पनपने के लिए अनुकूल परिस्थितियां नहीं होतीं, इसलिए वे जल्दी ही मज़दूरों के पास ‘अपने परिवेश’ में वापस लौट जाते हैं।
मज़दूर बस्ती ना हो, तो भी गटर होते हैं, लेकिन वे ढके हुए होते हैं। नजऱ नहीं आते, बदबू नहीं मारते, मच्छर-कीटाणु नहीं पनपाते, बीमारियाँ नहीं फैलाते। ये सुविधा, लेकिन, मज़दूरों को कैसे दी जा सकती है! हाँ, संविधान में ज़रूर लिखा है, ‘सब नागरिक बराबर हैं’. जऱा सोचिए, ‘सेंट्रल विस्टा’, जहाँ अभी तक उद्घाटन की जगमग हो रही है, के बीचोंबीच ए सी नगर जैसा खुला गटर हो, तो कैसा लगेगा! बुर्जुआ लोकतंत्र अपने संविधानों में बहुत रसीली, आनंददायक बातें लिखकर रखता है. गटर-पूरब वाली झुग्गियों में रहने वाले मज़दूरों ने, गटर-पश्चिम वाले अपने मज़दूर साथियों से संपर्क के लिए, जि़न्दगी से अर्जित इंजीनियरिंग ज्ञान का इस्तेमाल करते हुए, हर 5 मीटर पर ‘पुल’ बनाए हुए हैं, जो आवागमन के साथ, बच्चों के खुले में शौच करने के आधार के रूप में भी इस्तेमाल होते हैं। ए सी नगर का ये विशाल और खुला गटर, कोई मामूली गटर नहीं है। सारे एनआईटी, मतलब 1, 2, 3, 4 और 5 नंबर की सारी गन्दगी इसी में बहती है। विभाजन के समय, बड़े पैमाने में पाकिस्तान से आए शरणार्थियों को फरीदाबाद में बसाया गया था। यहाँ उनके 5 ‘रिफ्यूजी कैंप’ थे। उन्हीं के नाम पर एनआईटी के 5 मोहल्ले जाने जाते हैं; 1, 2, 3, 4 और 5 नंबर। ये गटर, फरीदाबाद नगर निगम के भ्रष्ट अधिकारियों और ठेकेदारों की सतत आमदनी का जरिया भी है।
हर दो साल में इस गटर की सफ़ाई का लगभग 18 लाख का टेंडर ज़ारी होता है। इस ‘सफाई’ में, अब तक कई करोड़ रुपये साफ हो चुके। गन्दगी ज्यों की त्यों बरकऱार है, जिससे अनंत काल तक बड़े-बड़े टेंडर होते रहें, अधिकारीयों-ठेकेदारों-नेताओं का ‘विकास’ होता रहे!
‘एसी नगर’ के मज़दूरों के संघर्ष का शानदार इतिहास 17 फरवरी 2003 की बात है। उस समय हरियाणा में ओमप्रकाश चौटाला के नेतृत्व में इनेलो (इंडियन नेशनल लोकदल) और भाजपा की मिली-जुली सरकार थी और केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी वाले एनडीए की सरकार थी। फरीदाबाद नगर निगम ने, बिना किसी पूर्व सूचना के, ए सी नगर में ढोल बजवाकर घोषणा कराई, “2 दिन में ये सारी बस्ती खाली कर दो। आप कहाँ जाओगे, ये आप लोगों को तय करना है।” बस्ती के लोग गुस्से में उबल पड़े. फरीदाबाद नगर निगम का दफ्तर, बी के चौक पर, बस्ती के नज़दीक ही है। आदमी, औरतें, बच्चे, लगभग 12,000 लोगों ने नगर निगम के दफ़्तर को उसी दिन घेर लिया। नगर निगम के कर्मचारियों और अधिकारीयों ने जन-आक्रोश की तीव्रता को भांपने में कोई ग़लती नहीं की और ना ही देर लगाई। निगम आयुक्त समेत, नगर निगम के सारे अधिकारी-कर्मचारी, पिछली गली से दफ्तर छोडक़र भाग गए। पुलिस भी दहशत में आ गई और लोगों के रास्ते से हट गई। गुस्से में तमतमाए लोगों ने, नगर निगम के दफ़्तर पर क़ब्ज़ा कर लिया। रिकॉर्ड को कोई नुकसान नहीं पहुँचाया, लेकिन सारी कुर्सियां उलट-पलट कर डालीं।
प्रशासन के अधिकारीयों की लोगों के सामने आने की हिम्मत नहीं हुई. ऐसे में लड़ें किससे, लोगों को कुछ समझ नहीं आ रहा था। तब ही मज़दूरों की नेतृत्वकारी टीम ने तय किया, कि सरकार के घुटने टिकाने हैं, तो दिल्ली-आगरा हाई वे जाम कर दो। सारी भीड़ उस ओर उमड़ पड़ी। दोपहर 1 बजे अजरौंदा चौक पर, मथुरा रोड जाम कर दी गई। गुस्से में उबल रहे लोगों ने मथुरा रोड पर मोर्चेबंदी शुरू कर दी।
चंडीगढ़ ही नहीं, दिल्ली दरबार में भी हडक़ंप मच गया. प्रशासन के हाथ-पांव फूल गए। तब पता चला, कि ये ज़मीन तो केंद्र सरकार के ‘विस्थापन विभाग’ की है। फरीदाबाद नगर निगम जिस ज़मीन को 2 दिन में खाली कराना चाहता है, वह तो उसकी है ही नहीं! उस वक़्त भी, लेकिन, ‘डबल इंजन’ की सरकार थी. तुरंत, ‘विस्थापन विभाग’ ने वह 27.5 एकड़ का प्लाट,1 रु. प्रति मीटर के भाव से, फरीदाबाद नगर निगम के नाम स्थानांतरित किया गया। इस तरह, इस ताबड़तोड़ योजना के पीछे के षडयंत्र का भंडाफोड़ भी हो गया। दरअसल, इनेलो के स्थानीय नेताओं और बिल्डर माफिय़ा के बीच तय हुआ था, कि ‘ए सी नगर’ तो कांग्रेस समर्थकों की बस्ती है, 27.5 एकड़ का बेशकीमती प्लाट शहर की सबसे अहम जगह पर है। डबल इंजन की सरकार है ही, लोग डर जाएँगे, बस्ती खाली हो ही जाएगी। भकोसने को इतना माल मिलेगा, बिल्डर-नेता माफिय़ा तो ख़ुशी से पागल हो गया!! इस साजिश से पर्दा हटा, तो इसने आग में पेट्रोल का काम किया।
लोग चिल्लाने लगे, आज तो हिसाब बराबर करके ही जाएँगे! दोपहर बाद, लगभग 4 बजे सारे प्रशासनिक अधिकारी और उनके साथ, वर्त्तमान केन्द्रीय मंत्री, कृष्ण पाल गुर्जर, जो उस वक़्त हरियाणा के परिवहन मंत्री थे, हाथ जोडक़र लोगों के सामने प्रकट हुए, ‘भाईयो-बहनों, ऊपर सरकार से बात हो गई है, शांत हो जाइये, अपने घरों को वापस लौट जाइये, आपके घरों को कोई नहीं तोड़ सकता। हमारा भरोसा कीजिए।’ लोग ‘सरकारी आश्वासन’ पर भरोसा कर, वापस लौटने लगे। जैसे ही भीड़ पीछे मुड़ी और लगभग आधे लोग नीलम फ्लाई ओवर पर पहुंचे, तो आन्दोलन के जो नेता अगुवाई कर रहे थे, वे अब स्वाभाविक रूप से लोगों के पीछे थे। सोची-समझी साजिश के तहत, पुलिस की टुकडिय़ाँ ल_ लेकर उन पर टूट पड़ीं। सैकड़ों लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया। बहुत सारे ज़ख्मी हुए। “इन मज़दूरों की सत्ता के सामने बग़ावत करने की जुर्रत कैसे हुई”, ख़ूनी प्रशासन मज़दूरों को सबक़ सिखाने की योजना पहले से ही बनाए बैठा था। लोग समझ नहीं पाए, ये क्या हुआ! उनका शांत हुआ गुस्सा फिर उबल पड़ा। सरकारी साजिश के अनुसार लोग भाग खड़े होने चाहिए थे, दहशत से उन्हें अपने घरों में दुबक जाना चाहिए था, लेकिन वैसा नहीं हुआ। हुआ ठीक उल्टा। ज़बरदस्त पथराव फिर शुरू हो गया। गुस्साए लोग पिल पड़े. रेलवे लाइन भी, मथुरा रोड के पास, उसके सामानांतर ही चलती है। क्रोध से उबलती भीड़, जो अब पहले से भी ज्यादा हो गई थी, इस बार मथुरा रोड के साथ ही, रेलवे लाइन पर भी बैठ गई। रेलवे सिगनल तोड़ डाले।
नीलम फ्लाई ओवर के पास, इनेलो के नेता परमजीत गुलाटी की बिल्डिंग है, ‘दशमेश’। गुस्साई भीड़ ने उसे घेर लिया, पथराव किया, तोड़-फोड़ हुई, दरवाजे, शीशे तोड़ डाले। अब स्थिति वाक़ई ऐसी हो गई, ‘जिसमें कुछ भी हो सकता था’! सरकारी भाषा में कहा जाए तो ‘स्थिति नियंत्रण से बाहर भी जा सकती थी’। प्रशासन, लोगों के सामने, अक्षरसह घुटनों पर आ गया। ‘हमें माफ़ कर दो, रेलवे लाइन से हट जाओ, आप जो चाहोगे, वही होगा’।
दूध के जले लोग, इस बार कोई जोखि़म नहीं लेना चाहते थे। रेलवे लाइन से हटने का तो फैसला हुआ, लेकिन साथ ही ये भी तय हुआ कि कल, मतलब 18 फरवरी 2003 को, सुबह 10 बजे, सारे लोग होटल डिलाइट के सामने धर्मकांटे के पास वाले मैदान में इकट्ठे होंगे और इस बार, जो भी तय होगा, लिखित में होगा। अगर, इस बार भी धोखा हुआ, तो फिर लड़ाई आर-पार की ही होगी। 18 फरवरी की मीटिंग ज़बरदस्त हुई। भाजपा-इनेलो के सारे नेता और प्रशासन का सारा अमला डर से कांप रहा था। पहले ये तय हुआ, कि अगर हमारी झुग्गियों को तोड़ा जाता है, तो इन सभी नेताओं के घर तुरंत तोड़ दिए जाएँगे। मंत्री-संत्री हाथ जोडक़र लोगों के सामने प्रस्तुत हुए, और तत्कालीन डी सी ने लिख कर दिया, कि ए सी नगर नहीं टूटेगा, मज़दूरों की जो भी मांगें हैं, वे पूरी की जाएंगी। उस संघर्ष से अर्जित जीत का आत्म सम्मान ही था, जो दर्जी की दुकान पर काम कर रहे मज़दूर, संजय के उस बयान में झलक रहा था जिसका जि़क्र हमने शुरू में किया था; ‘हमारी मज़दूर बस्ती नहीं है, हमारी तो पक्की बस्ती है’।
‘ए सी नगर’ बस्ती के मज़दूरों ने देश को बता दिया है, कि मज़दूर बस्तियां उजडऩे से कैसे बचाई जा सकती हैं। हालाँकि, उन्हें खुद भी जन-आन्दोलन का दूसरा अध्याय गढऩे के लिए, आगे आना पड़ेगा, तब ही उन्हें, उस गटर की गन्दगी से मुक्ति मिल सकती है। ए सी नगर मज़दूर बस्ती की प्रमुख समस्याएँ नीचे इस उम्मीद से दी जा रही हैं, कि प्रशासन उन्हें दूर करने के लिए तुरंत कदम उठाएगा, अन्यथा इन मांगों को पूरा करने के लिए जन आन्दोलन संगठित किए जाएँगे।
बस्ती के बीचों-बीच बहते, बीमारियों और दुर्गन्ध के स्रोत, गटर को गहरा करने और उसे अच्छी तरह, पाटने के लिए तत्काल योजना बनाई जाए. बार-बार उसकी सफ़ाई के नाम पर उगाही का धंधा बंद होना चाहिए; 30,000 की बस्ती में एक भी सरकारी स्कूल नहीं है। मज़दूरों के बच्चों को शिक्षा मिलनी अत्यावश्यक है। तत्काल सरकारी स्कूल खोला जाए; दो सुलभ शौचालय, आबादी की ज़रूरतों से बहुत कम हैं। बड़े आकार के और दो सुलभ शौचालयों का निर्माण किया जाए जिनकी देख-रेख का सारा खर्च फरीदाबाद नगर निगम उठाए; बस्ती में एक मेडिकल डिस्पेंसरी है, लेकिन उसमें पर्याप्त स्टाफ व दवाईयां नहीं रहतीं। वहाँ दो डॉक्टर और पर्याप्त स्टाफ, दवाईयों की समुचित व्यवस्था की जाए; बस्ती में नियमित स्वच्छता की व्यवस्था हो। नियमित ‘स्वच्छता अभियान’ की सभी मज़दूर बस्तियों में नितांत आवश्यकता है।
‘सामाजिक न्याय एवं अधिकार समिति’ और ‘रेहड़ी पटरी विकास संघ’ चलाने वाले, श्री दीन दयाल गौतम जी से, जो इसी बस्ती में ही पैदा हुए, बस्ती के संघर्षों के इतिहास के बारे में अहम जानकारी प्राप्त हुई।
साथी दीन दयाल गौतम जी का तहेदिल से आभार।