हरियाणा खेल मंत्री पर ओलंपिक एथलीट द्वारा लगाए यौन शोषण के आरोपों पर भाजपा की राज्य सरकार के शर्मनाक ढुलमुल रवैए के बाद भारतीय कुश्ती फेडरेशन के अध्यक्ष भाजपा सांसद ब्रज भूषण सिंह की सरपरस्ती में अंतरराष्ट्रीय महिला पहलवानों के यौन शोषण का काफी समय से चल रहा स्कैंडल सामने आ गया है। बजरंग पूनिया, विनेश फोगाट, साक्षी मालिक जैसे नामी पहलवानों की अगुवाई में जंतर मंतर पर धरना दिया जा रहा है, और ठोस कार्यवाही के बजाय केंद्र सरकार का छल भरा दिखावा/सफाई अभियान सामने है।
हरियाणा की अंतरराष्ट्रीय महिला फुटबॉल कैप्टन सोना चौधरी के दो दशक पुराने उपन्यास ’पायदान’ और ’गेम इन गेम’ जीवंत दस्तावेज़ की तरह संबन्धित आयामों से परिचय कराते आए हैं। इन्हें आज व्यापक विमर्श में लाने की जरूरत है।
पायदान : समाज में लडक़ी अपनी जिन्दगी अपनी तरह जीना चाहे तो वह बेहद अकेली हो जाती है। लडक़ी की तैयारी, उसके निर्णय, उसके प्रयास, उसके समझौते सब उसी की कीमत पर होने होते हैं। पारिवारिक विरोध और सामाजिक तिरस्कार की शुरुआती पायदानें यदि उसके निश्चय को डिगा नहीं पातीं तो अगले चरण की पायदानें होती हैं उसके श्रम और यौन के शोषण की। अंत में वह सफल हो या असफल, अगर जिंदगी अपनी तरह चुनना है तो ये पायदानें भी तय करनी ही होंगी। उसे प्रसिद्धि और पैसा मिल सकता है, वह कीर्तिमान बना सकती है, वह कैरियर एवं परिवार में तरक्की कर सकती है। पर तब तक इन पायदानों को तय करते करते उसकी जिंदगी का घुन खाया अस्तित्व ही सच्चाई के नाम पर बचा रह पायेगा।
सोना चौधरी ने इन अनुभवों को खुद बहुत करीब से देखा है। स्वस्थ दिखते समाज में भी लडक़ी मन से बीमार होती है। उपन्यास में प्रसंग बेचारगी से नहीं निर्ममता से उकेरे गये हैं। अकाल का मारा सड़े गले जानवर का गोश्त भी खा लेता है; बाढ़ से घिरा आदमी सीवर के सड़ांध-कीड़े भरे पानी में डुबकी लगाता जाता है; वेश्या का जीवन भी क्या जीवन हुआ पर वह भी छूटता है क्या! विकल्प न हो तो आपद्धर्म का तर्क हावी हो क्या नहीं कराता। समाज में लडक़ी की भी यही स्थिति है। उसके पास, यदि किस्मतवाली हुई तो, पायदानें चुनने का विकल्प होगा—शादी और संतान वाली पायदानें यानी श्रम और यौन को गिरवी रख परजीविता की प्राप्ति, या फिर कैरियर और कीर्तिमान वाली पायदानें यानी श्रम और यौन के मोल-भाव में लिपटी आत्मनिर्भरता। विकल्पहीनता में विकल्प इन जैसी पायदानों में ढूंढना है उसे। तभी उपन्यास के दो अंत हैं पर शायद दोनो एक जैसे!
गेम इन गेम : स्त्री खिलाडिय़ों के साथ ‘खेल’ की अंतर कथा, मतलब? मतलब ये कि यहाँ बर्बरता का शासन है। यहाँ कमजोर होकर चलने में सबकी ताकत का बोझा ढोना पड़ता है, ताकतवर होने के लिए कमजोरियों से समझौता करना पड़ता है। कहीं कुछ चुभता सा रहता है। कभी-कभी लगता है चारों तरफ फंस गई हूँ। जहाँ उजाला था उसे छोडक़र जहाँ आ गई हूँ वहाँ अंधेरा है, चारों और पेड़ों के घने झुरमुट हैं जो राह रोकते हैं और जहाँ सोचने-भर की जगह भी नहीं वहां भी काले जंगल हैं। सोचने की जो अकेली जगह मैं पहले घेर चुकी थी वे जंगल उस पर भी हमलावार हो रहे हैं। कुछ बंजर झाडिय़ाँ सी उग आई हैं। इनमें कंटीली घास पनप रही है, सोचते-सोचते कई बार उद्विग्न हो जाती हूँ। फिर और सोचने लगती हूँ। सोचने की जगह नहीं पर सोचने से मुक्ति भी नहीं। जैसे कभी-कभी अपने ही मांस में अपने नाखून गड़ाते रहने पर खाल की तीखी जलन में भी कुछ मिलता सा है। जैसे कोई अपनी ही हथेली पर बेंत लगाता है और कुछ हासिल करता है। खेलने का मैदान, उससे जुड़ी यादें और ये सारे हादसे भी मेरे लिए ऐसे ही हैं। लेकिन फिर भी कुछ ऐसा है जो मुझे मजबूर करता है इस सबसे जुड़े रहने को।
उपन्यास से