एम असीम हम अक्सर सुनते हैं कि बेरोजगारी की दर बढक़र 8 प्रतिशत हो गई या घटकर 6 प्रतिशत रह गई। किंतु ये खबरें संपूर्ण सच्चाई के बजाय बुर्जुआ विद्वानों व मीडिया की प्रिय आधी-अधूरी ‘सच्चाइयों’ का ही उदाहरण हैं जिसका मकसद वास्तविकता को छिपाना होता है। इसे समझने के लिए पहले हमें रोजगार व बेरोजगार का अर्थ समझना होगा।
इन सरकारी/गैरसरकारी आंकड़ों हेतु आय के लिए काम में लगे व्यक्ति को रोजगाररत माना जाता है जबकि ऐसे काम में नहीं लगे हुए पर ऐसा काम ढूंढ रहे व्यक्ति को बेरोजगार माना जाता है। उदाहरण के लिए काम करने की उम्र के 100 व्यक्ति हैं जिनमें से 36 आय वाले काम में लगे हैं और 4 व्यक्ति ऐसा काम ढूंढ रहे हैं तब इन 40 के आधार पर रोजगार की दर 90 प्रतिशत व बेरोजगारी की दर 10 प्रतिशत होगी। इन 40 को कार्यबल कहा जाता है। किंतु बाकी 60 का क्या? वे कहां गये?
इन 60 में से कुछ अभी शिक्षा व प्रशिक्षण में लगे होते हैं, कुछ अस्वस्थता की वजह से काम करने में असमर्थ हैं और कुछ अमीर परिवार वालों को रोजगार की वास्तविक जरूरत नहीं, वे आराम के साथ दूसरों की मेहनत पर जीते हुए मटरगश्ती करते हैं। जिन देशों में समाजवाद रहा है वहां मटरगश्ती की तो गुंजाइश नहीं थी पर 10-15 प्रतिशत संख्या शेष दो श्रेणियों में रहती थी अर्थात काम करने वाली उम्र के 85 प्रतिशत लोग कार्यबल में शामिल हो किसी न किसी उत्पादक काम में लगकर स्वाभिमान व मर्यादा का जीवन जीते हुए समाज के विकास में योगदान करते थे।
परंतु निजी संपत्ति व मुनाफे की पूंजीवादी व्यवस्था में ऐसा मुमकिन नहीं। वहां सबको रोजगार मिल जाये तो पूंजीपतियों को कम मजदूरी पर दिन रात खटने को तैयार मजबूर श्रमिक कहां से मिलेंगे? ऐसे बेरोजगार मजदूरों की लंबी लाइन न रहे तो पूंजीपति अपने यहां काम करते श्रमिकों को कम मजदूरी पर अधिक घंटे काम करवा कर उनके लिए उच्चतम अधिशेष मूल्य अर्थात मुनाफा उत्पादित करने के दबाव में कैसे रखेंगे?
इस तरह बेरोजगारों की यह रिजर्व फौज हर पूंजीवादी मुल्क में है पर भारत में इसकी विकरालता भयानक है। अन्य पूंजीवादी देशों में औसतन काम योग्य उम्र के 100 में से 57-60 व्यक्ति कार्यबल में हैं अर्थात काम में लगे हैं या बेरोजगारों की गिनती में हैं अर्थात काम ढूंढ रहे हैं। बाकी 20-25 प्रतिशत बेरोजगारी से मजबूर हताश हो कुछ लोग काम ढूंढना तक छोड़ देते हैं और या तो दूसरों पर निर्भर हो परमुखापेक्षी बन कर रह जाते हैं (इनमें स्त्रियों की संख्या अधिक होती है) या लंपट, अपराधी, भिखारी, आदि बनकर समाज के तलछट में पहुंच जाते हैं।
भारत में हालत यह है कि काम करने योग्य उम्र के सिर्फ 40 प्रतिशत ही कार्यबल में शामिल हैं जिसमें से औसतन 6-8 प्रतिशत बेरोजगारी दर में गिने जाते हैं, शेष कम या अधिक आय वाले किसी रोजगार में हैं। अर्थात भारतीय शासक वर्ग द्वारा जनित आर्थिक संकट व उसके संपूर्ण दिवालियापन ने अन्य पूंजीवादी देशों के मुकाबले भी उत्पादक उम्र की आबादी के लगभग 20 प्रतिशत अधिक व्यक्तियों को इस परमुखापेक्षी व तलछट की श्रेणी में रहने को मजबूर कर दिया है। समाज की स्वाभिमान के साथ जीने और सामाजिक विकास में भागीदारी करने में सक्षम जनसंख्या में से आधे से अधिक की यह विवशता भारतीय समाज में मौजूदा राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक व नैतिक अध:पतन का प्रमुख कारण है।
निश्चय ही इसमें बहुसंख्या स्त्रियों की है जिनमें से अधिकांश दिनरात घरेलू या पारिवारिक दायरे में कमरतोड़ काम में खटती हैं पर उससे उनकी अपनी कोई स्वतंत्र आय न होने से इतनी सख्त मेहनत के बाद भी परमुखापेक्षी बनकर गुलामी का जीवन बिताती हैं। यह उनके पिछड़ेपन का मुख्य कारण है और इसके समाधान बिना उनकी वास्तविक मुक्ति व समानता संभव नहीं। हालांकि कुछ लोग ‘तर्क’ देंगे कि महिलाओं का पिछड़ापन उनकी बेरोजगारी व पितृसत्ता की गुलामी का कारण है पर वास्तविकता उलटी है।
उदाहरण के तौर पर अधिकतम आठ घंटे काम के दिन व न्यूनतम मात्र 20 हजार रुपये महीना वाले रोजगार का मौका देकर देखिए, फिर देखें किस धर्म-जाति के कितने पितृसत्तात्मक परिवार स्त्रियों को काम पर जाने से रोकते हैं या रोक पाते हैं? समस्या का मूल व्यक्तियों के पिछड़ेपन में नहीं, कालातीत हो चुकी सामाजिक व्यवस्था के पिछड़ेपन में है।