डॉक्टर अम्बरीष राय आजमी
बेशर्मी की चादर ओढ़े वो बोल रहा था कि मैं होता तो 35 क्या 36 टुकड़े कर देता. देखते सुनते ही तनबदन में आग लग गई. मेरे अंदर का अमर अब्दुल को निपटाने के लिए मोदी योगी की तरफ आस भारी निगाहों से तकने लगा. बुखारी से लेकर मुहम्मद तक मेरे कहर भरी सोच में जलने लगे. तभी मेरे अंदर के आज़मी साहब बोले, ‘क्या मियां तुम भी भेंड़ …’ मैं तो हिन्दू सम्राट मोदी और हिंदुत्व के शिखर योद्धा योगी के प्रभामण्डल में डूबा था. मैंने कहा आज़मी साहब आप लोगों का मुखौटा उतर चुका है और आज अभी से मैं आपको अपने नाम और हिस्से से आज़ाद करता हूं. आज़मी साहब हंसने लगे. कलम के मजदूर अम्बरीष ने अपनी छोटी छोटी आंखों को सिकोड़ा और अपने सूत्रों को काम सौंपा. सूत्र बहुत तेज निकले अम्बरीष राय के. तीन घंटे के अंदर वाट्सअप की दीवारें सच की तपिश से तपने लगीं. आज़मी साहब सूनी आंखों से शून्य में निहार रहे थे. उनकी आंखों में 75 साल की बेबसी कुछ कहना चाहती थी लेकिन मौजूदा हालात के मद्देनजर बस मुझसे शिक़ायत कर सन्नाटा ओढ़ लीं. शिक़ायत क्या कहें, दर्द कहना ज़्यादा सही होगा. बेबसी ने बस इतना कहा आखिऱ कब तक हम और हमसे टेस्ट टेस्ट खेला जाएगा.
मैं भी चुप रहा और एक बार फिर राशिद खान के वीडियो को खुली आंखों और खुले कानों से देखने सुनने लगा. वीडियो टेप किसी न्यूज़ चैनल का था. जिसमें लेडी रिपोर्टर पूर्वाग्रह से भरी सवालों की तोप से लैस थी और राशिद खान उसके पूर्वाग्रह पर जबर्दस्त तरीके से मुहर लगाए जा रहा था. राशिद की बातों से लग रहा था कि आफ़ताब अमीन पूनावाला जिसने अपने लिव इन पार्टनर का क़त्ल करने के बाद उसके 35 टुकड़े कर घर के फ्रिज में डाल दिया, एकदम सही किया. राशिद की बातों से आफ़ताब के कुकृत्य को सही ठहराते देखना दरअसल नफऱत और घृणा के स्तर को नई ऊंचाईयां देना था. साथ ही न्यूज़ चैनल की टीआरपी को आसमान तक पहुंचा देना भी था. राशिद खलनायक बनकर खुश था. न्यूज़ चैनल एक मुस्लिम युवक के इस अमानवीय घटना को न्यायसंगत ठहराते देखकर और भी खुश था.
लेकिन कोई दु:खी था, परेशान था, हैरान था तो वो था कटघरे में खड़ा मुस्लिम तबक़ा. जिसके ऊपर बस सफाईयां देने का अभिशाप लगा हुआ है. लेकिन ये अधूरा सच था. ये एक जबरदस्ती का लादा गया सच था, जिसके पांव नहीं थे. उसको भरभरा कर गिरना ही था. और गिरा भी. दरअसल राशिद, राशिद नहीं विकास था. मैं लगातार इस जघन्य हत्याकाण्ड पर हिंदुस्तान की दूसरी सबसे बड़ी आबादी की प्रतिक्रियाओं की खोजख़बर ले रहा था . ये पूरी आबादी इस घटनाक्रम से सकते में थी. किसी के मुंह से बोल नहीं फूट रहा था. कारण बस इतना कि आफ़ताब के इस घिनौनेपन को पूरी आबादी की सोच और उनके मज़हब से जोड़ा जा रहा था.
हिंदुत्व की सियासत के सफल मॉडल गुजरात में विधानसभा के चुनाव हो रहे हैं. वो गुजरात जो नरेंद्र मोदी की निज़ामत में जानो माल के सबसे बड़े डिजास्टर से जूझ चुका है. 2002 के उस दंगे में मुस्लिमों ने अपना बहुत कुछ खोया, हासिल की ज़मीन बस सूखी रह गई. सियासत ने ऐसी करवट बदली कि मुस्लिम समुदाय सियासत के हासिये पर टंग गया. 2002 दंगों के नफरत का नायक जब 2014 में दिल्ली के तख़्त पर बैठा तो ये समुदाय सियासी तौर पर पूरी तरह से नेपथ्य में चला गया. टोपी दाढ़ी वालों के हिस्से में बस इतना आया कि बहुसंख्यक हिन्दू समाज के बहुसंख्यक वोटर सिफऱ् इस बात पर भाजपा को वोट करने लगे कि इन मनबढ़ मुस्लिमों को मोदी ही हिसाब में रख सकते हैं. इसी हिसाब कि़ताब में भगवा ब्रिगेड ने योगी आदित्यनाथ नाथ को अपना अगला कट्टर झट्टर हिन्दू चेहरा बनाते हुए 2017 में उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बना दिया. भगवा ब्रिगेड का ये फैसला सौ फीसदी सही साबित हुआ.
गंगा में बहती लाशों के बीच, अंतिम संस्कारों को तड़पती लाशों के बावजूद उत्तर प्रदेश में 2022 का विधान सभा चुनाव योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में भाजपा जीत गई. अपनी तमाम जवाबदेहियों से भगवा ब्रिगेड तब आसानी से बच जाती है, जब उसके अमर को ये एहसास होता है कि अब्दुल मियां ढ़ंग से टाइट किए जा रहे हैं. सहमते संसाधनों और रसोईघर की रस्साकशी के बावजूद भगवा ब्रिगेड की चुनावी जीतों ने ये साबित कर दिया है कि इस देश की समस्या भूख, बेरोजगारी, बीमारी नहीं बल्कि अब्दुल है. और अब्दुल को टाइट करने के लिए, अब्दुल को हर चुनावों में मेन एजेंडे में रखना रायसीना हिल्स की पहाडिय़ों पर बैठी मधुमास को एन्जॉय करती मोदी सरकार और भगवा थिंक टैंक को खूब सुहाता है.
आप बुनियादी मुद्दे उठाएंगे वो अब्दुल से होने वाली, हो सकने वाली कृत्रिम परेशानियां और चुनौती का डरावना कैनवास खींचेगे. जब जब भगवा ओढ़ी ये जमात मुश्कि़ल में फंसती है तब तब अब्दुल खलनायक बन अमर के खिलाफ़ खड़ा हो जाता है. नफऱत की इस ज़मीन पर खड़े वातानुकूलित भगवा साम्राज्य के गृहमंत्री अमित शाह के अधीन काम करने वाली दिल्ली पुलिस मई में क़त्ल कर दी गई श्रद्धा वोल्कर के हत्यारे को नवम्बर में गिरफ़्तार करती है. चुनाव चल रहे हैं. बिग बॉस के रहमोकरम पर चल रहे चौबीस घंटे वाले न्यूज़ चैनल लिव इन पार्टनर रहे श्रद्धा और आफ़ताब की प्रेम कहानी दिखाते हुए आफ़ताब का वो चेहरा दिखा रहे हैं, जिसमें वो क्रूर हत्यारा है. जिसने अपनी लिव इन पार्टनर को ना सिफऱ् मारा बल्कि उसके शरीर के 35 टुकड़े कर घर के फ्रिज में रख दिया. फिर आराम से लाश के दो दो टुकड़े फेंकता रहा.
आफ़ताब अमीन पूनावाला की इस दरिंदगी की जितनी लानत मलानत की जाए कम है. लेकिन जिस तरह से इस घटनाक्रम का सियासी माइलेज लेने की अघोषित कोशिश की जा रही है, वो एक बदतर भारत की तस्वीर दिखा रहा है. जिसमें एक राष्ट्र के तौर पर हम बस बिखर रहे हैं. विकास को राशिद बनकर आफ़ताब की साइड लेने की ज़रूरत क्यों पड़ी, ये आपको सोचना है.
अगर उस न्यूज़ चैनल को विकास को राशिद के तौर पर दिखाना पड़ा तो क्यों पड़ा, ये आपको सोचना है. इस पूरे घटनाक्रम में किसका फ़ायदा है किसका नुक़सान है, ये आपको सोचना है. मुझे तो बस 2020 की मई के वो तपते दिन याद आ रहे हैं जब मेरा ज़ेहन कुलबुलाया था और हफऱ् मचल पड़े थे अपने सफऱ पर जाने के लिए. तो एक शेर मुक़म्मल हुआ था…
कमाल का हुनर रखती है ये सियासत भी आलम कुछ भी हो बेरोजगार नहीं होती