फरहत दुर्रानी क़ुरबानी न फर्ज़़ है और न वाजिब सिवाए हज के दौरान, हजरत इब्राहीम का ये टेस्ट सिर्फ इब्राहीम के लिए था ना कि लोगो के लिए। एनिमल सैक्रिफाइस करना है तो वो भी सिर्फ काबा (बैतुल अतीक, एंशेंट हाउस) पर ही हो सकता है। सूरा 22 अल हज वर्सेज 25-37।
यही बात गोल कर दी गई है, और पूरी क़ौम पर इसका बोझ डाल दिया गया कि जो साहिब-ए-हैसियत नहीं है वो भी बकरा कर्ज़़ ले दे कर क़ुरबानी करने को मजबूर है, और बकरा भी कहीं रियायती दामों पर नहीं मिलता , महंगे से महंगा ही दस्तयाब है, यानि जानवर से ज़्यादा इंसान की खाल उतारी जा रही है। इंसान अपनी ज़बान का ग़ुलाम है और ले दे के सारे झगड़े/ युद्ध भी बलशाली बनने के लिए दुनिया भर की ऐशपरस्ती हासिल करने के लिए ही हैं, मानव भी एक समाजिक पशु ही है और दूसरे पशुओं को प्राचीन काल से खाता आया है तो इसमें और भी गिरावट की ही सम्भावना है, कि कल को ज़ायक़े के लिए दूसरे मनुष्यों को ही न खाने लगे, वैसे भी नरभक्षता के बहुत से उदाहरण हमें देखने को मिलते हैं, हां प्रकृति स्वयं इस पर लग़ाम ला सकती है, मांस जनित रोगों के द्वारा। मनुष्य मांस भक्षण तभी छोड़ेगा जब उसे अपनी जान का ख़तरा होगा।
रही बात क़ुरबानी की तो त्यौहार खाने पीने उत्सव मनाने का एक ज़रिया भर हैं, बस बहाना ढूंढा जाता है किसी न किसी पहलू से, वरना इसका कोई औचित्य ही नहीं है कि अल्लाह ने अपने एक नबी का इम्तिहान लिया, तो आपको ये लाइसेंस कैसे मिल गया कि आप जानवरों को उस दिन की याद में ज़िबह करने लगे, और यदि याद ही मनाना मक़सूद है तो अपने बेटों को ज़िबह करिए की इब्राहीम अ.स. ने ऐसा किया था। मगर यहां भी चालाकी से अपने खाने पीने का इंतिज़ाम मज़हब की आड़ में कर लिया।