पूरी की पूरी शिक्षा ही मोदी सरकार के निशाने पर

पूरी की पूरी शिक्षा ही मोदी सरकार के निशाने पर
November 20 15:53 2022

‘भारत का उच्च शिक्षा आयोग बिल, 2022’

सत्यवीर सिंह
भारत में विश्वविद्यालयीन शिक्षा का स्तर बनाए रखने, उसे उपलब्ध कराने, मतलब ख़र्च वहन करने के लिए दृढ निश्चय और विश्वविद्यालयों में परस्पर सहयोग-सामंजस्य प्रस्थापित करने के उद्देश्य से, ‘विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC)’ की घोषणा, तत्कालीन शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल क़लाम आज़ाद ने, 28 दिसंबर 1953 में की थी. हालाँकि उसकी विधिवत स्थापना नवम्बर 1956 में हुई थी. देश में तकनीकी शिक्षा के विकास का आकलन, उसका क्रमबद्ध विकास और विस्तार करने के उद्देश्य से ‘तकनीकी शिक्षा की अखिल भारतीय परिषद (्रढ्ढष्टञ्जश्व)’ की स्थापना नवम्बर 1945 में हुई थी. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, अंग्रेज़ों ने भारत से अपना बोरिया बिस्तरा बांधने और कांग्रेस ने सत्ता संभालने की तैयारियां शुरू कर दी थीं. क्योंकि पूर्वी यूरोप को देखकर, सरमाएदारों को, उस वक़्त, कम्युनिस्ट क्रांतियों का भय सताने लगा था. ‘विश्वविद्यालय अनुदान आयोग’ तथा ‘तकनीकी शिक्षा की अखिल भारतीय परिषद’ का जि़क्र इस लिए आया, क्योंकि मोदी सरकार ने इन दोनों संस्थाओं को समाप्त करने का फ़ैसला कर लिया है. इनकी जगह, मोदी सरकार ‘भारत का उच्च शिक्षा आयोग, बिल, 2022’ (Higher Education Commission of India Bill, 2022), संसद के आगामी शीत कालीन सत्र में, जो 7 दिसंबर से 29 दिसंबर तक चलेगा, लाने का फैसला कर लिया है. कहने की ज़रूरत नहीं, कि मोदी सरकार जो क़ानून बनाने का फैसला कर लेती है, वह रुकता नहीं.

शिक्षा मंत्रालय की इसी साल की अगस्त महीने की रिपोर्ट बताती है, कि इस एक महीने में, कैबिनेट ने शिक्षा के क्षेत्र में कई अहम फ़ैसले लिए, कई ‘उपलब्धियां’ हांसिल कीं. इस रिपोर्ट को, इस लिए भी पढऩा-जानना ज़रूरी है, क्योंकि इससे इस बात का पता चलता है कि शिक्षा के मुद्दे को मोदी सरकार कितनी ‘संजीदगी’ से लेती है. जैसा कि आए दिन मोदी जी बच्चों को ज्ञान बांटते रहते हैं; ‘शिक्षा के दबाव को झेलने और नवाचार की संस्कृति विकसित करने’ के लिए 2017 में बच्चों का, सरकार प्रायोजित, एक खेल शुरू किया गया था- स्कूली बच्चों के लिए ‘स्मार्ट सिटी हैकाथौन (जूनियर)’ और उच्च शिक्षा के विद्यार्थियों के लिए ‘स्मार्ट सिटी हैकाथौन (सीनियर)’. मोदी सरकार की पहली उपलब्धि शिक्षा के मामले में ये रही, कि 2021 में, देश भर से, इस खेल में कुल 24,733 टीमों ने भाग लिया था, जबकि 2022 में टीमों की तादाद बढक़र 29,634 हो गई. इस साल 25 अगस्त को ये खेला, मोदी जी की उपस्थिति में खेला गया. शिक्षा मंत्रालय ने इससे ये निष्कर्ष निकाला, कि मोदी सरकार के इस खेला से, बच्चों में शिक्षा का दबाव झेलने की कूबत और ‘नवाचार की संस्कृति’ में बहुत इज़ाफ़ा हुआ है!! इसका ये मतलब भी निकाला जा सकता है कि जब बच्चों की दबाव झेलने की क्षमता बढ़ गई है, तब उनकी फ़ीस और बढाई जा सकती है!! गऱीबों के बच्चों को शिक्षा से दूर करने के लिए, एकलव्य की तरह उनका अंगूठा मांगना ज़रूरी नहीं, वही काम, शिक्षा को मंहगा करके भी किया जा सकता है.

दूसरी उपलब्धि, इस मासिक बुलेटिन में ये बताई गई है, कि सरकार द्वारा ‘केन्द्रीय विश्वविद्यालय क़ानून 2009’ में जो बदलाव किया गया था, उस ‘केन्द्रीय विश्वविद्यालय (संशोधन) क़ानून 2022 को 16 अगस्त को राष्ट्रपति की मंज़ूरी मिल गई (मानो, राष्ट्रपति मना भी कर सकती थीं!!) और उस संशोधित क़ानून के तहत सरकार ने बड़ौदा में ‘गति शक्ति विश्वविद्यालय’ की स्थापना भी कर दी है. ये विश्वविद्यालय, देश में माल ढोने की बढ़ती ज़रूरतों के मद्दे नजऱ, सिर्फ रेलवे ही नहीं बल्कि सडक़ अथवा जल मार्ग से माल ढोए जाने वाले व्यवसाय की बढ़ती ज़रूरतों के अनुसार काम करेगा!! पता नहीं, ये विश्वविद्यालय है या कारखाना!! ‘हर घर तिरंगा’ और ‘विभाजन विभीषिका’ कार्यक्रमों को देश भर में चमकाने के लिए सारे शिक्षा विभाग को जुट जाना है. 14 अगस्त को, सारे देश में, विभाजन में करोड़ों लोगों द्वारा झेली गई मुसीबतों को उजागर किया जाना है.

उसी जोश में, फऱीदाबाद के ऐतिहासिक भगतसिंह स्मारक में से शहीद-ए-आज़म भगतसिंह की प्रतिमा को तोड़ा गया, और रातों रात वहां मिटटी का भराव डालकर, उस पर भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव की ‘मर्यादाहीन’ मूर्तियाँ प्रस्थापित हुईं. इन क्रांतिकारियों को विभाजन विभीषिका से जोडऩे की हिमाक़त हुई, और उस अधबने ‘विभाजन विभीषिका स्मारक’ का उद्घाटन करने का काम भी खट्टर जी, 21 अगस्त को निबटा गए.

तीसरी उपलब्धि ये पढऩे को मिली, कि 26 अगस्त को देश में डिजिटल विश्वविद्यालय की स्थापना हो गई है. साथ ही, 13 अगस्त को बंगलुरु की विज्ञान अकादमी में मीटिंग हुई, और ‘विश्वविद्यालय अनुदान आयोग’ और ‘अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा कौंसिल’ को ख़त्म कर, ‘भारत का उच्च शिक्षा आयोग, 2022’ बिल, संसद के शीतकालीन सत्र में ही लाने का फैसला हुआ. 26 अगस्त को हैदराबाद में सरकारी सहायता प्राप्त केन्द्रीय विश्वविद्यालयों की क्षेत्रीय समीक्षा मीटिंग हुई जिसमें नई शिक्षा नीति 2020 को जल्दी से जल्दी लागू करने पर ज़ोर दिया गया. 27 अगस्त को एक और मीटिंग में ये तय हुआ कि ‘बौद्धिक विरासत विकास’, ‘ज्ञान संसाधन’ और ‘नए भारत का निर्माण’ परियोजनाओं को लागू किया जाए.
‘भारत का उच्च शिक्षा आयोग’ बनने से क्या बदलाव आएँगे?

उच्च शिक्षा आयोग के, 15 सदस्य होंगे जो विभिन्न विश्वविद्यालयों के उपकुलपति एवं प्रोफ़ेसर होंगे. सारा देश जानता है, कि भले इसके कुछ सदस्य राज्य सरकारों द्वारा भी क्यों ना चुने जाएँ, इसके अधिकतर सदस्य आर एस एस के ‘विचारक’ शिक्षा शास्त्री ही होंगे. आयोग के 4 विभाग होंगे. ‘राष्ट्रीय उच्च शिक्षा नियामक परिषद’, जो तकनीकी और गैरतकनीकी दोनों विभागों का नियंत्रण करेगी; ‘राष्ट्रीय मान्यता प्रदान करने वाली (accreditation) परिषद’, जो उच्च शिक्षा संस्थानों को मान्यता प्रदान करने वाली मुख्य संस्था होगी; ‘उच्च शिक्षा अनुदान परिषद’, जो उच्च शिक्षा संस्थानों को धन उपलब्ध कराएगी; और ‘सामान्य शिक्षा परिषद’, जो शिक्षा पाठ्यक्रम, कोर्स वगैरह तय करेगी. मोदी सरकार की एक बात की तारीफ़ करे बगैर, उसका कोई खांटी आलोचक भी नहीं रह सकता, वह है, बदलाव के उद्देश्यों का बखान करने के लिए इस्तेमाल की गई भाषा. पढक़र, मज़ा आ जाता है; बंदा, तालियाँ बजाए बिना नहीं रह सकता!! बानगी प्रस्तुत है- ‘उच्च शिक्षा संस्थाओं को, प्रतिभा एवं उत्कृष्टता का अधिकतम विस्तार, तथा छात्रों का समग्र विकास सुनिश्चित करने के लिए, पूर्ण कामकाजी स्वतंत्रता प्रदान की जाएगी. उच्च शिक्षा आयोग, गुणवत्ता के उच्च मापदंड और वंचित समाज की भी बराबरी की हिस्सेदारी लागू होना सुनिश्चित करेगा.’ हंसें या रोएँ, तालियाँ बजाएं या माथा पीटें, ये तय करने की छूट हमें उपलब्ध है!! ये सजावटी भाषा, कड़वी गोली पर गुड़ की तरह लगाई जाती है, इसीलिए लफ्फाज़ी कहलाती है.

उच्च शिक्षा आयोग द्वारा, एक बहुत उल्लेखनीय बदलाव ये आएगा कि ‘नियम ना मानने’, मतलब सरकारी हुक्म ना मानने वाले उच्च संस्थानों पर जुर्माने की रक़म को इतना बढ़ा दिया गया है, कि भुगतान करने में उस संस्थान प्रबंधन के मुंह में झाग आ जाएँगे!! आज, नियमों का उल्लंघन करने वाले उच्च शिक्षा संस्थानों पर, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को, जहाँ एक हज़ार रुपये का जुर्माना लगाने का अधिकार है; उच्च शिक्षा आयोग लागू होने के बाद ये रक़म, कम से कम 30 लाख और अधिकतम रु 5 करोड़ हो जाएगी. बाक़ी जुर्माने कितने होंगे, ये तय होना अभी बाक़ी है. दरअसल, मोदी सरकार पुराने संस्थानों/ कानूनों को उखाड़ फेंककर नए क़ानून लाने के लिए इतनी उतावली में है, कि इन बहुत अहम मुद्दों पर लोगों में चर्चा-बहस-डिबेट तो छोडिए, नए कानूनों के ड्राफ्ट भी ठीक से नहीं बन पाते. मोदी सरकार की कार्यशैली को देखते हुए, ये भारी-भरकम जुर्माने उन्हीं चंद शिक्षा संस्थाओं की बांह मरोडऩे के लिए लगेंगे, जो आज भी मोदी सरकार का राजनीतिक विरोध करने की जुर्रत कर रहे हैं. ऐसे संस्थान विपक्षी राज्य सरकारों वाले राज्यों में ही बचे हैं. इसके आलावा, इस आयोग के बन जाने के बाद, भाषाई विविधताओं वाले इस देश में सब कुछ एक समान बना देने की विघटनकारी लागू करना भी आसान हो जाएगा.

शिक्षा, पूर्ण रूप से राज्य का विषय था, जिसे इमरजेंसी के दौरान 1976 में, समवर्ती सूची में डाल दिया गया था. वर्त्तमान अघोषित इमरजेंसी में, बाक़ी सभी विषयों के साथ, शिक्षा भी केंद्र की मोदी सरकार ने सीधे अपने हाथ में ले ली है. उच्च शिक्षा आयोग बनाने का प्रयास मोदी सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में 2018 में भी किया था, लेकिन कई राज्यों से तीखा विरोध हुआ और सरकार ने अपने पैर पीछे खींच लिए थे. अपने दूसरे कार्यकाल में ही, मोदी सरकार अपने असली अजेंडे पर आई है. अब वह अपने पाँव पीछे कभी नहीं खींचती. हाँ, ये बात अलग है कि किसानों ने, सरकारी टांग को ज़बरदस्ती पीछे धकेला था. वैसा ही तजुर्बा, मोदी सरकार को, देश के मज़दूर कराने जा रहे हैं. शिक्षा संस्थानों से, छात्रों एवं अध्यापकों के संगठनों ने, इस सम्बन्ध में, अभी तक तो निराश ही किया है. इस वक़्त राज्यों से भी किसी तगड़े विरोध होने के इमकानात नजऱ नहीं आ रहे. दिखावे के लिए कुछ अधिकार भी राज्यों को दे गए हैं. जैसे पहले 2018 में था, कि केंद्र सरकार आयोग के चेयरमेन समेत किसी भी सदस्य को भी, ‘नैतिक पतन (moral turpitude)’ के आरोप में, जब चाहे, हटा सकती है. अब ये बदलाव हुआ है कि ‘जाँच’ के बाद ही हटा पाएगी.

शिक्षा के मामले में मोदी सरकार चाहती क्या है?
राजनीति एक गंभीर विषय है. कुछ लोग, जो राजनीति को गंभीरता से नहीं लेते, वे, पहले कार्यकाल में, मोदी सरकार की नीयत पर शक़ किया करते थे, कि उसकी नीयत देश के आम ‘बहनों-भाईयों’ के हित साधने की है, या बड़े सरमाएदारों की ताबेदारी करने की. 2019 के बाद, दूसरे कार्यकाल में किसी को कोई शक़ नहीं. मोदी सरकार सम्पूर्ण रूप से कॉर्पोरेट हित में समर्पित है. किसान, मज़दूर, महिलाऐं, शिक्षक, छात्र; सभी समूह मोदी सरकार की ‘कल्याणकारी’ नीतियों का स्वाद चख चुके हैं. ‘भक्त समुदाय’, ‘आई टी सेल’ भी हकीक़त से बे-ख़बर नहीं है, लेकिन ये ज़मात अपना ज़मीर बेच चुकी है. मोदी सरकार की मंशा, अगर देश के आम गऱीब-गुरबा के बच्चों को शिक्षित करने की होती तो, क्यों इतनी फीस बढाती, जिसे मिडिल क्लास भी ना झेल पाए, क्यों शिक्षकों के इतने पद रिक्त होते, क्यों स्कूल बंद हो रहे होते, एक दूसरे में विलीन हो रहे होते, क्यों शिक्षा संस्थानों को आर्थिक मदद की जगह, कज़ऱ् लेने को कहा जा रहा होता.

शिक्षा के मामले में भी, मोदी सरकार की नीतियों के बारे में किसी को कोई भ्रम नहीं: भगवाकरण, वैज्ञानिक- तकऱ्पूर्ण सोच ना विकसित होने देना, कूपमंडूकता व आध्यात्मिक ज़हालत को घनघोर एवं सर्वव्यापी बनाना, राज्यों से छीनकर सारे अधिकार अपने आधीन करना और कॉर्पोरेट वर्ग को समूचे बाज़ार को लूटने की खुली छूट देने की व्यवस्था करना है. भगवाकरण परियोजना में स्कूल पाठ्यक्रमों में, क्या पढाया जा रहा है, गौर कीजिए. ‘गौ विज्ञान, गोबर विज्ञान, गोमूत्र उपचार पद्धति, वैदिक गणित, कर्मकांड में डिप्लोमा, सरकारी इंजिनियरों को वास्तु ज्ञान का प्रशिक्षण, ‘गुप्त-काल’ को मनगढ़ंत तरीक़े से भारतवर्ष का स्वर्णिम काल मानना, महाभारत में धृतराष्ट्र को युद्ध की रनिंग कमेन्ट्री को संजय द्वारा इन्टरनेट का इस्तेमाल कर बताना, कर्ण पहले ‘टेस्ट ट्यूब बेबी’ थे, हमारे पूर्वजों ने 3 हज़ार साल पहले हवाई ज़हाज़ बना लिया था जिसे ‘पुष्पक विमान’ कहते थे, इन्सान के शरीर पर हाथी की सूंड लगाकर दुनिया में पहली सर्जरी से हमारे देश में गणेश पैदा हुए, ये उस वक़्त हहुआ जिसका अंदाज़ लगाना मुश्किल है, विज्ञान में दुनिया भर में जो भी तरक्क़ी हुई उसके स्रोत हमारे प्राचीन स्वर्णिम काल में मौजूद ‘ऋषि-मुनियों’ का ज्ञान ही है..आदि आदि’. ये सब गपोड़े या तो हमारे स्कूल पाठ्यक्रमों का हिस्सा बन चुके हैं, या जल्दी ही बनने वाले हैं.

भारत के उच्च शिक्षा आयोग की असलियत जाननी है, तो एक राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ‘विचारक’ के ब्लॉग को ध्यान से पढि़ए. “पहले ड्राफ्ट (2018) और इस साल हुए संशोधनों का मैं स्वागत करता हूँ…इसके उद्देश्य बहुत नेक हैं..खिचड़ी का स्वाद खाने से ही पता चलता है…स्वार्थी लोग इसके कार्यान्वयन में निश्चित रुकावटें डालेंगे…एक समस्या है जातिवादी राजनीति का ख़तरा…दूसरी तरफ़ सामाजिक व राजनीतिक संवेदनशीलताका अतिरेक (wokeism), विश्वविद्यालय, राजनीतिक कार्यकर्ता और परजीवी पैदा करने की उपजाऊ ज़मीन बनने से ऊपर उठें…सरकारी पैसे और दूसरी सुविधाएँ जैसे सस्ती ज़मीन आदि रोके जाने चाहिएं…निजी क्षेत्र के साथ विदेशी शिक्षा कंपनियों द्वारा हमारे देश के शिक्षा क्षेत्र में निवेश की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाया जाना चाहिए….साथ ही देश के शिक्षा संस्थानों को विदेशी शिक्षा बाज़ार में अपनी भागीदारी बढ़ाने को प्रोत्साहन मिलना चाहिए, जिससे विदेश के अंत्यंत तीव्र प्रतिस्पर्धा वाले शिक्षा बाज़ार में ‘ब्रांड इण्डिया’ की शोहरत बढ़े. सारांश में, इन सुधारों को उच्च शिक्षा आयोग अपनी परियोजना में शामिल करे. अगर ऐसा होता है तो ये क़दम खेल पलट डालने वाला (game changer) साबित होगा.”

शिक्षा को बाज़ार बनाना, और उसे लूटने की खुली छूट कॉर्पोरेट मगरमच्छों को देना, ये काम तो यूपीए सरकार ने ही कर डाला था. मोदी सरकार ने ‘नई शिक्षा नीति 2020’ के माध्यम से उसे और सुगम बनाया, उस रास्ते की रुकावटें दूर कीं और उसमें भगवाकरण को जोड़ दिया. ‘उच्च शिक्षा आयोग’ को, तेज़ी से मोटे होते जा रहे कॉर्पोरेट मगरमच्छों को, ‘विश्व शिक्षा बाज़ार’ में, शिकार करने में सक्षम बनाने में, उनकी मदद करने के मूल उद्देश्य से ही लाया गया है. चूँकि कॉर्पोरेट लूट, आज एकदम नंगी और उस स्तर पर पहुँच चुकी है, कि उसका तीखा विरोध होना लाजि़मी है. इसीलिए पुराने जनवादी कानूनों को, बिंदास तरीक़े से उखाडक़र फेंका जा रहा है, भले उनका स्थान लेने वाले कानूनी ढकोसले, पूरी तरह तैयार भी ना हों. साथ ही विरोध के, कमज़ोर व दिखावे के स्वरों को भी कुचलने के लिए, हर तरफ़ ‘डबल इंजन’ की सरकारों की व्यवस्था की जा रही है. प्रधानमंत्री सूरजकुंड के ‘चिंतन शिविर’ में सरकारी अजेंडा स्पष्ट कर ही चुके हैं. सरकारी योजना/ नीति, कितनी भी जन-विरोधी क्यों ना हो, उस पर सवाल उठाने वालों को ‘अरबन नक्सल’, ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ के साथ, अब एक और विशेषण आ गया है- ‘कलम वाले नक्सल’!! यही है बुर्जुआ जनवाद के फासीवादीकरण की परियोजना, जो अब संपन्न होने वाली है.

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Mazdoor Morcha
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