पूंंजीवाद के जर्जर बॉयलर में राख होते मज़दूर

पूंंजीवाद के जर्जर बॉयलर में राख होते मज़दूर
June 02 06:56 2024

क्रांतिकारी मज़दूर मोर्चा
डोंबीवली के एमआईडीसी इलाके में स्थित अमुदान केमिकल फैक्टरी में 23 मई को बॉयलर फटने से भयंकर आग लग गई जिसमें 11 कामगारों की दर्दनाक मौत हो गई और 68 से अधिक गंभीर रूप से घायल हुए। घायलों में कई आज भी जिंदगी और मौत के बीच झूल रहे हैं तो अनेक स्थायी रूप से अपंग हो चुके हैं। महाराष्ट्र के उप मुख्यमंत्री देवेंद्र फणनवीस ने आठ लोगों के निलंबन और घटना की जांच के आदेश देकर अपनी सारी जिम्मेदारियां पूरी कर लीं। सरकार ने छोटी मोटी आर्थिक सहायता की घोषणा कर पल्ला झाड़ लिया। कुछ समय बाद निलंबित अधिकारी बहाल हो जाएंगे और फैक्ट्री भी मरम्मत के बाद दोबारा चालू हो जाएगी, हादसे में मारे गए और स्थायी रूप से अपंग मज़दूर और उनके परिवार किस हाल में हैं इसकी कोई सुधी नहीं ली जाएगी।

जर्जर बायलर फटने, भीषण विस्फोट होने और फिर मज़दरों के शरीर राख के ढेर मेंं तब्दील होने की देशव्यापी विनाशकारी श्रंखला मेंं 23 मई को अमुदान केमिकल्स प्राइवेट लिमिटेड की बारी थी। अमुदान प्रबंधन के अनुसार फैक्टरी में खाद्य रंग बनाए जाते हैं। एनडीआरएफ के अधिकारी ने बताया कि इस प्रक्रिया में बेहद खतरनाक रासायनिक प्रतिक्रिया करने वाले विस्फोटक रसायन का प्रयोग होता था। दर्ज एफआईआर के अनुसार रसायनों के मिश्रण में हुई कोई भी चूक, इतना भयंकर विस्फोट पैदा कर सकती है जिससे फैक्टरी ही नहीं आसपास की फैक्टरियां भी तबाह हो सकती हैं, जान माल का भयंकर नुकसान हो सकता था। बावजूद इसके फैक्टरी मालिकों ने इन खतरनाक विस्फोटक रसायनों का मिश्रण बनाने, उन्हें स्टोर करने की न कोई अनुमति ली ओर न आवश्यक सावधानी बरती।

सवाल उठता है कि खाने के पदार्थों में मिलाए जाने वाले रसायनों में, इतने ख़तरनाक रसायनों का प्रयोग होता ही क्यों था? मालती प्रदीप मेहता और मलय प्रदीप मेहता के मालिकाने वाली यह फैक्ट्री सचमुच ‘फूड कलर्स’ ही बनाती थी, या कुछ और? इन गंभीर और सिहरन पैदा करने वाले सवालों का जवाब कैसे मिले? मीडिया से यह रिपोर्ट दो दिन बाद ही ग़ायब हो चुकी है जबकि पुणे के एक पतित रईसज़ादे के, बेवड़े बेटे की 4 करोड़ की कार की दुर्घटना और उसे बचाने की रिपोट्र्स हफ्ते भर से लगातार आ रही हैं। मीडिया के पतन को बयान करने के लिए अल्फाज़ नहीं।

कारखानों में हर रोज़ फटते जर्जर बॉयलर और उनमें जलकर खाक़ होते मज़दूरों की वारदातें इतनी सामान्य सी हो गई हैं कि ‘द हिन्दू’ जैसे अख़बार ने डोम्बिविली में 23 मई को हुए इस भयानक ब्लास्ट की रिपोर्ट अलग से लिखने की ज़हमत नहीं उठाई, बल्कि बिलकुल ऐसी ही पिछली वारदात जो मुंबई में ही 2023 में हुई थी, उसे ही अपडेट कर के काम चलाया है। नाम और संख्या ही तो बदलने हैं, बाक़ी कहानी तो वही रहने वाली है। फिर से लिखने की ज़हमत कौन उठाए?

प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के नियमानुसार, रिहाइश और औद्योगिक क्षेत्र के बीच कम से कम 500 मीटर का बफऱ ज़ोन ज़रूरी है, लेकिन धीरे-धीरे उस बफऱ ज़ोन में प्लाट कटते जाते हैं और ‘विकास’ होता जाता है। ‘डायरेक्टरेट ऑफ़ इंडस्ट्रियल सेफ्टी एंड हेल्थ’ की जि़म्मेदारी है कि वह सभी बॉयलर का समय-समय पर, अर्थात गर्मी के हर सीजन में कम से कम एक बार मुआयना करे और ‘बायलर उपयोग के क़ाबिल हैं, सुरक्षित हैं, यह सर्टिफिकेट जारी करे। कांग्रेस के ज़माने में कम से कम ये सर्टिफिकेट जारी तो होते थे, भले ‘सुविधा शुल्क’ लेकर ही होते हों, मोदी सरकार ने वह झंझट की ख़त्म कर डाली है। श्रम कार्यालयों में मौजूद इन विभागों में मोटे-मोटे ताले लटक रहे हैं। इसी साल, 16 मार्च को धारूहेड़ा, जिला रेवाड़ी की लाइफ लॉन्ग ऑटो कंपोनेंट्स प्रा. लि. में बिलकुल इसी तरह बॉयलर फटने से भयानक विस्फोट हुआ था जिसमें आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार 14 मज़दूर जलकर राख हुए थे, तथा सैकड़ों ज़ख्मी हुए थे जिनमें 28 गंभीर रूप से जल चुके थे और रेवाड़ी सरकारी अस्पताल, रोहतक मेडिकल कॉलेज तथा सफदरजंग अस्पताल में आईसीयू में भर्ती रहे थे। हरियाणा के मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी ने प्रत्येक मृत मज़दूर के परिवार को 5 लाख तथा गंभीर रूप से जल चुके मज़दूर को 2 लाख रु देने की घोषणा की थी। साथ ही, कंपनी मालिक ने प्रत्येक मृत मज़दूर के परिवार को 7 लाख तथा गंभीर रूप से ज़ख्मी परिवार को 2 लाख तथा ठेकेदार कंपनी ने प्रत्येक मृत मज़दूर के परिवार को 1 लाख तथा गंभीर रूप से ज़ख्मी मज़दूर को 50,000 रुपये नक़द मुआवज़ा देने की घोषणा की थी। सभी अख़बारों में ये ख़बर, हेडलाइन बनी थी।

इस रिपोर्ट के लेखक ने मुआवज़ा मिलने की असलियत जानने के लिए बिहार में रहने वाले एक ऐसे गंभीर ज़ख़्मी मज़दूर से बात की जो 60 प्रतिशत जल चुके थे और कई दिन तक रोहतक मेडिकल कॉलेज की आईसीयू में अपनी मौत से लड़े थे। पुलिस और मालिक ने उन्हें मीडिया को कुछ भी ना बताने के लिए भयंकर रूप से धमकाया हुआ है, इसलिए अपना नाम न छापने की शर्त पर उन्होंने बताया कि अभी तक मेरे खाते में बस 1 लाख रुपया जमा हुआ है जो लगभग ख़त्म हो चुका, क्योंकि मैं काम नहीं कर सकता और कम से कम एक साल आगे तक काम नहीं कर पाऊंगा। कोई दूसरा कमाने वाला नहीं है, घर में चूल्हा उसी पैसे तो जल रहा है। उन्होंने यह भी बताया कि अपनी जान गंवा चुके मज़दूरों के परिवारों को भी अभी तक 5 लाख रुपया ही मिला है, मालिक और ठेकेदार ने कुछ नहीं दिया।

दरअसल, ये हादसे नहीं संस्थागत हत्याएं हैं। जब बड़ी तादाद में मज़दूर मर जाते हैं और ख़बर दबाने में मज़दूरों का हत्यारा मालिक नाकाम हो जाता है तो पुलिस, लोकल नेता और श्रम-विभाग मिलकर क़ातिल मालिक को बचाने में लग जाते हैं। सबसे पहले, सुध-बुध खो चुके बेहाल मज़दूर परिवार को तुरंत बॉडी का अंतिम संस्कार करने के लिए मनाया जाता है। अधिकतर मज़दूर सुदूर राज्यों से आए हुए होते हैं और परिवार मज़दूर की मृत देह को वहीं ले जाना चाहते हैं जहां वह पैदा हुआ, पला-बढ़ा-खेला और फिर रोजी-रोटी का जुगाड़ करने के लिए एक दिन ट्रेन में धकेल दिया गया था। ‘डेड बॉडी’ को वापस अपने गांव ले जाने की हैसियत भी मज़दूर परिवार की नहीं होती। इसीलिए सबसे पहले मालिक के गुर्गे और पुलिस एम्बुलेंस बुलाते हैं, मज़दूर की डेड बॉडी उसमें रख दी जाती है, और यह कहते हुए कि ‘यह एम्बुलेंस तुम्हारे गांव तक जाएगी तुम्हें कोई पैसा नहीं देना, होनी को कौन टाल सकता है, हर बंदे की सांसें गिनी हुई होती हैं, परमात्मा की मर्जी के आगे भला किसी की चली है’, मज़दूर परिवार को शव के साथ वहां से चलता कर दिया जाता है। मज़दूर की डेड बॉडी हटते ही पुलिस और मालिक का अमला राहत की लंबी सांस लेते हैं। मुआवजे की सौदेबाजी शुरू हो जाती है। मंत्री जी मुंह लटकाकर प्रकट होते हैं मानो मज़दूर की मौत से उनके पेट में मरोड़ उठ रही हो !

1926 में, अंग्रेज़ों के राज़ में हासिल ट्रेड यूनियन बनाने का अधिकार मज़दूरों से छिन चुका है। मज़दूरों द्वारा यूनियन बनाने की ख़बर मिलते ही मालिक के सर पर खून सवार हो जाता है। बिलकुल माफिय़ा की तरह व्यवहार करते हुए पुलिस को अपनी बाजू में खड़ी कर, यूनियन बनाने को कंपनी से गद्दारी घोषित किया जाता है। फिर मज़दूर कार्यकर्ता को सबक़ सिखाने की कवायद शुरू होती है। फैक्ट्री में गंभीर हादसा, मतलब मज़दूरों की मौत होते ही मालिक, फैक्ट्री में काफ़ी दिन से मौजूद अदृश्य यूनियन के नेता के साथ प्रकट होता है। मुआवजे की घोषणा होती है, परस्पर हाथ मिलते हैं और सारे षडयंत्रकारी उसे वहीं भूल जाते हैं। घोषित मुआवज़ा भी मज़दूर परिवार को मयस्सर नहीं होता। मृत अथवा जख्मी मज़दूर का परिवार भी धीरे-धीरे मौत के मुंह में समा जाता है।

                                                                    मोदी सरकार द्वारा प्रस्तावित, ‘लेबर कोड’, मज़दूरों के लिए मौत का पैगाम साबित होंगे
इस देश का विकास करने से मोदी सरकार को रोका नहीं जा सकता! 2047 तक इस देश को सातवें आसमान तक पहुंचाने की सारी तैयारियां हो चुकी हैं। इन्हीं तैयारियों के मद्देनजऱ बेहद कुर्बानियों और लहू बहाकर हासिल मज़दूरों के 44 अधिकार छीनकर उन्हें 4 लेबर कोड का झुनझुना थमाया गया है। मज़दूरों-किसानों के साथ आ जाने से विकराल हुए किसान आंदोलन से डरकर लेबर कोड का कार्यान्वयन फिलहाल ‘पॉज’ मोड पर डाला हुआ है। 4 जून को अगर चुनाव में फिर जीत मिल गई तो ‘विकास’ के शिकंजे से फिर मज़दूर नहीं बच सकता।

सड़े हुए बॉयलरों के फटने से हर रोज़ शहीद हो रहे मज़दूरों की दिल दहलाने वाली वारदातों के मद्देनजऱ 4 लेबर कोड में इस बाबत परखना मौजूं है। ‘फैक्ट्री अधिनियम 1848, ठेका श्रमिक (उन्मूलन एवं विनियमन) अधिनियम 1970, ‘खदान श्रमिक अधिनियम, 1952, बागान श्रमिक अधिनयम, 1951 समेत विभिन्न क्षेत्रों में काम कर रहे मज़दूरों की जान व सुरक्षा एवं स्वास्थ्य से जुड़े 13 क़ानूनों की जगह ‘लेबर कोड 2:व्यवसायिक संरक्षा, स्वास्थ्य एवं कार्य-दिशा सम्बन्धी संहिता, 2020’ को लाया गया है। आइये देखें, इसमें मालिकों को कौन सी छूट मिलने जा रही हैं।

फैक्ट्री की परिभाषा ही बदल दी गई है। जहां बिजली से काम होता है वहां 20 मज़दूर और बगैर बिजली काम वाली जगह 40 मज़दूरों द्वारा काम किए जाने वाले संस्थान को ही ‘फैक्ट्री’ माना जाएगा। पहले यह संख्या क्रमश: 10 और 20 थी। ‘फैक्ट्री अधिनियम 1848’ के तहत, दुर्घटना रोकने के उपाय मशीनों की स्थिति, साफ-सफाई, रख-रखाव, शौचालय, पीने का साफ़ पानी, कैंटीन, शिशुओं के लिए क्रैच आदि की सुविधाओं सम्बन्धी शर्तें अभी तक सभी फैक्ट्री मालिकान पर आयद होती थीं। अब इन सभी प्रावधानों को अस्पष्ट, मतलब राम-भरोसे छोड़ दिया गया है। पहले हर फैक्ट्री में ‘सेफ्टी कमेटी’ बनने का प्रावधान था। अब संहिता की धारा 22 (1, 2) के तहत 500 से अधिक मज़दूरों वाली तथा ख़तरनाक उद्योगों में 250 मज़दूरों वाली कंपनियों में ही ‘सेफ्टी कमेटियां’ बनेंगी। 10 या अधिक प्रवासी मज़दूर होने पर ही उनका रिकॉर्ड रखा जाएगा पहले ये संख्या 5 थी। बर्बर लॉक डाउन के बाद अनंत यात्रा में शहीद 991 मज़दूरों की मौत को मोदी सरकार पूरी बेशर्मी से संसद में नकार ही चुकी है।

संहिता की धारा 45 (1) के अनुसार, 50 मज़दूरों तक भर्ती करने वाले ठेकेदार सभी क़ानूनों से मुक्त होंगे। इतना ही नहीं इस स्थिति में ठेकेदार को नियुक्त करने वाले नियोक्ता अर्थात मुख्य एम्प्लायर भी मज़दूरों के स्वास्थ्य-सुरक्षा की ‘झंझट’ से मुक्त होंगे। पहले ये संख्या 20 थी और प्रमुख नियोक्ता मतलब असली मालिक कभी भी इन जिम्मेदारियों से मुक्त नहीं होता था। संहिता की धारा 43 में मालिकों को महिलाओं से रात में तथा ख़तरनाक उद्योगों में भी काम कराने की छूट दे दी गई है। अभी तक शाम 7 बजे से सुबह 6 बजे तक महिलाओं से काम कराने पर पाबंदी थी।

गुंडों-बलात्कारियों-ठरकियों के लिए इतने अच्छे दिन कभी नहीं रहे। 2800 महिलाओं से बलात्कार कर डिप्लोमेटिक पासपोर्ट से विदेश भाग जाने समेत हर सुविधा उन्हें उपलब्ध है। अभी तक दिन में 12 घंटे और 3 महीने में अधिकतम 50 घंटे तक ही ओवरटाइम कराया जा सकता था। साथ ही 8 घंटे की अवधि समाप्त होते ही ओवरटाइम शुरू हो जाता था मतलब डबल रेट से भुगतान करना होता था। अब ये सारी बंदिशें हटा ली गई हैं। पलवल जि़ले में ऐसी भी फैक्टोरियां हैं जो ये फऱमान सुनाते हुए फैक्ट्री का बाहर का गेट बंद कर देती हैं; कंटेनर, पोर्ट पर लगा हुआ है सारा काम ख़त्म कर गाड़ी में लोड कर ही आप बाहर जा पाएंगे। ओवरटाइम के डबल रेट से भुगतान की तो परंपरा ही बंद हो चुकी है।

कारखानेदार बहुत शातिर और काइयां वर्ग होता है। मज़दूर अधिकारों को लागू करने की मंशा उनकी कभी रही ही नहीं। वहीं सरकार द्वारा ‘व्यवसाय की सुगमता’ के नाम पर किए जा रहे बदलाव, किस दिशा में हैं, उन्हें समझने में उन्हें बिलकुल देर नहीं लगती। वैसे भी कारखाने में कुल कितने मज़दूर काम करते हैं, यह पता लगाना ही आज संभव नहीं रहा क्योंकि कुल 1000 मज़दूर हैं तो उनमें 100 ही नियमित अर्थात कंपनी के हाजऱी रजिस्टर में होते हैं बाक़ी सभी ठेका मज़दूर, अपरेंटिस, नीम ट्रेनी या निश्चित अवधि के लिए काम पर लिए हुए होते हैं, जो होकर भी नहीं होते। निजी सरमाएदारों की छोडि़ए, पास के किसी भी थाने, अस्पताल, प्रशासनिक ऑफिस, अदालत में जाइये, सामने एक स्मार्ट, टेक एक्सपर्ट युवक को पाएंगे जो जब तक साहब कहें काम करता है, 4 नियमित क्लर्क की जगह अकेला काम करता है, जिसे महीने में 15,000 रुपये ही मिलते हैं। छुट्टी, यूनियन, प्रमोशन, वेतन वृद्धि, पेंशन की कोई ‘झंझट’ नहीं। ठेका प्रथा सर्वव्यापी हो चुकी।

पूंजीवाद के ये बॉयलर और उसकी रखवाली करने वाला तंत्र, जर्जर हो चुके। मरम्मत करने, थेगली लगाने की गुंजाईश नहीं बची। ये बॉयलर जिंदा मज़दूरों को भूनने की भट्टियां बन चुके हैं। क्या करना है? ये मज़दूरों को सोचना है।

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Mazdoor Morcha
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