पिछले 75 सालों का हासिल क्या है ?

पिछले 75 सालों का हासिल क्या है ?
July 09 06:27 2024

उमेश तिवारी ‘विश्वास’
कई बार सवाल उठाया जाता है कि एक देश की तरह हमने पिछले 75 वर्षों में क्या हासिल किया ! बेशक पूछा जाएगा कि एक विकसित राष्ट्र की श्रेणी में पहुंचने के लिए क्या हम सर्वांगीण उन्नति कर रहे हैं और क्या उसकी गति संतोषजनक है ? क्या हम औद्योगिकीकरण के क्षेत्र में अपेक्षित तरक्की कर पाए हैं ? साथ ही शिक्षा और स्वास्थ्य से जुड़े ऐसे ही कई बड़े बुनियादी सवालों से भी हमारा सामना होगा। परंतु अन्याय से लड़ता हुआ एक आम आदमी जब सामने वाले से कहता है ‘तुझे मैं कोर्ट में देख लूंगा’ या किसी सत्ता को निरंकुश देखकर कोई लिखता है कि चुनाव आने पर तुम्हें बदल देंगे या अपने हक़ के लिए ट्रेड यूनियनों के धरना-प्रदर्शन जैसी लोकतांत्रिक प्रक्रियायें क्या मुल्क के लिए विकास का सूचकांक नहीं हैं ? क्या हमें प्रेस की स्वतंत्रता के इंडेक्स में घटती पायदानों पर जा टिकने या प्रसन्नता के इंडेक्स में पिछडऩे को विकास से जोडक़र नहीं देखना चाहिए ?

पिछले स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री के मुख्य आर्थिक सलाहकार बिबेक देबरॉय साहब का एक लेख एक राष्ट्रीय अंग्रेज़ी दैनिक में प्रकाशित हुआ जिसमें उन्होंने देश के तीव्रतर विकास के लिए नए संविधान की आवश्यकता बताई। उनके विचार में संविधान में आमूलचूल परिवर्तन करके ही तीव्र गति से विकसित भारत का निर्माण किया जा सकता है। वह आज़ादी के बाद के 75 वर्षों में पंचायती राज व्यवस्था, सूचना या मनरेगा जैसे क़ानूनों का प्रवर्तन, नये राज्यों के निर्माण के साथ-साथ सत्ता विकेंद्रीकरण और लोकतांत्रिक संस्थाओं की मज़बूती या विघटन के प्रयासों की भी अनदेखी कर देते हैं। उनका मानना है कि भारत की धीमी प्रगति के लिये इसका संविधान जि़म्मेदार है। सच्चाई यह है कि वह मुख्य रूप से आर्थिकी के विशेषज्ञ हैं अत: मानवीय विकास की अन्य महत्वपूर्ण कसौटियों को सरसरी तौर पर चर्चा में लाते हैं परंतु अंतत: केंद्रीकृत आर्थिक व्यवस्था की पैरवी करते दिखते हैं। बहस के लिए मान भी लिया जाए कि आर्थिकी के विशेष क्षेत्रों में दजऱ् प्रगति के आधार पर विकास को आंका जाये, तब भी आंकड़ों की शुचिता के बिना विकास की ऐसी तस्वीर बेमानी होगी। धरातल की सच्चाई से आंखें मूद कर आंकड़ों की बाज़ीगरी से पैदा किया गया विकास कितना भ्रामक हो सकता है उसे निम्न उदाहरण से समझा जा सकता है।

विकास का महत्वपूर्ण सूचकांक माने जाने वाले जी डी पी के आंकड़ों पर पिछले दिनों तब बड़ा प्रश्नचिन्ह लगा जब हमारी औसत जीडीपी वृद्धि की दर 7.5 आंकी गई पर प्रिंसटन यूनिवर्सिटी के अर्थशास्त्री प्रोफ़ेसर अशोक मोदी ने इनकी सत्यता पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए। उनके अनुसार भारत की वास्तविक जीडीपी वृद्धि दर 7.5 न होकर 4.5 थी, जो प्रथम दृष्टया सरकारी आंकड़ों के सारे खेल को बेनकाब कर देती है। बात यहीं समाप्त नहीं होती, जीडीपी और अन्य दूसरे जनसंखिकीय आंकड़े जारी करने वाली भारत सरकार की संस्था एनएसओ द्वारा 2021 में अपेक्षित राष्ट्रीय सेंसस नहीं करवाने से अनुमानित आंकड़ों की बाढ़ सी आ गई है जिससे जीडीपी, प्रति व्यक्ति आय आदि समेत जनसंख्या के ठोस आंकड़ों की प्रमाणिकता संदिग्ध हो गई है। आज जि़म्मेदार लोगों के वक्तव्यों में भारत की जनसंख्या को सुविधानुसार 125 से लेकर 150 करोड़ और अर्थव्यवस्था को सर्वाधिक तीव्रता से विकसित हो रही अर्थव्यस्था बता दिया जाता है। यह लापरवाही चुनावी भाषणों में ही नहीं पिछली संसद में दिए गए वक्तव्यों में भी देखी गई। आंकड़ों की इस स्तर की बाज़ीगरी देश के विकास की सही तस्वीर पेश नहीं कर सकती। दूसरी ओर किसानों, बेरोजग़ारों और हाल के परीक्षा घपलों के आंदोलन विकास के असंतुलन को उजागर करते दिख रहे हैं।

18वीं लोकसभा का अभी गठन हुआ ही है, नई सरकार का पहला महत्वपूर्ण आर्थिक दस्तावेज बजट के रूप में प्रस्तुत होगा। देखना दिलचस्प होगा की बजट आबंटन के लिए सरकार किस तरह के जनसांख्यकीय आंकड़ों का उपयोग करती है। सरकार जातीय जनगणना से संबंधित उपलब्ध आँकड़ों को सामान्यीकृत कर इस्तेमाल करती है अथवा 2011 की जनगणना को ही आधार मान कर बजट निर्धारण करती है। प्रभावशाली नियोजन और अच्छी गवर्नेंस के लिए ज़मीनी स्थितियों का ईमानदारी से आकलन करना बेहद ज़रूरी है। हवा-हवाई दावे हेडलाइन तो बना सकते हैं पर ज़मीनी तस्वीर इससे जुदा हो तो नई सरकार की चुनौतियों में इज़ाफ़ा तय है।

ग़ौर से देखें तो यह पिछले 75 सालों का ही हासिल है कि संविधान पर ख़तरे की आहट से देश की जनता सत्ता के विरुद्ध लामबंद हो गई और 2024 के आम चुनावों में बीजेपी को अपेक्षा से बहुत कम सीटें मिलीं। संविधान में बदलाव का नेरेटिव विबेक देवराय के लेख से उठकर जब बीजेपी के चुनावी मंच पर ‘अबकी बार 400 पार’ के नारे के रूप में पहुंचा तो साढ़े सात दशकों से आरक्षण के माध्यम से सामाजिक बराबरी की जद्दोज़हद में लगा पिछड़ा वर्ग चौकन्ना हो गया।

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Mazdoor Morcha
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