सनाउल्लाह अहमद रिजवी महादलित समाज से आने वाले इस शख्सियत को फिल्मकारों ने अपने हिसाब से उनकी कहानी को भुनाया और करोड़ों कमाई की मगर उनका परिवार आज भी झोपड़ी में रहता है । उसी झोपड़ी में फिल्म की शूटिंग भी हुई थी । कुछ रुपये दिए और कहा कि फिल्म रिलीज के बाद 2 प्रतिशत देंगे मगर परिवार का कहना है कुछ भी नहीं दिया ।
उनकी झोपड़ी के आगे मांझी जी और महात्मा बुद्ध की मूर्तियां लगी हैं जिसे 2015 में जन अधिकार पार्टी के अध्यक्ष पप्पू यादव जी ने बनवाया था ।
उनके घर पर ही बातों-बातों में जब दशरथ मांझी जी के बेटे भगीरथ मांझी से पूछा कि फिल्म में जो लव स्टोरी , प्यार मुहब्बत दिखाया गया है वो सही है तो वो थोड़ा शर्माते हुए कहते हैं कि “भक ऐसा थोड़े होवल था उ फिलिम सब अपन मन से दिखा दिया है ,हमनी के बतइबो न किया था ।” मतलब नॉर्मल शादी हुई थी ।
फिर पूछा ये सच है कि आपकी माँ के मरने के बाद प्यार में बाबा पहाड़ तोड़ … फिर उन्होंने बताया कि प्यार में त करबे किये लेकिन पहाड़ तोड़े समय भी माँ जिंदा रही। मैंने पूछा कि आखिर ये प्रेरणा कहाँ से मिली थोडा डिटेल में बताईये तो कहा “ये पूरा गहलौर की पहाडिय़ां देख रहे हैं कितना ऊंचा है । पहाड़ पार करने में काफी कठनाई भी होती थी और गिरने का डर भी । बीच मे थोड़ा कम ऊँचाई का छोटा सा एक खोह टाइप (दर्रा) था जिससे थोड़ा मुश्किल कर एक आदमी निकल सकता था ।
बाबा पहाड़ के दूसरे साइड डेली खेती और जलावन इक्कठा करने जाते थे और माँ खाना-पानी ले कर जाती थी । इसी क्रम में एक दिन दर्रा पार करते हुए माँ गिर गयी , घड़ा भी फूटा और चोट भी लगी , उधर बाबा इंतजार ही करते रह गए। यहीं से उनके दिमाग में बात क्लिक हुई और दर्रा को चौड़ा करने की जुगत में लग गए ।
60 के अंतिम दशक के आसपास अधिकारियों से बात हुई मगर कोई फायदा नहीं तो अपनी दो बकरियों को वजीरगंज बाजार में बेच कर खुद ही बाजार से छेनी हथौड़ी इत्यादि सामान ले कर चौड़ा करना शुरू कर दिया । घर के खर्चा पानी के लिए अपना काम भी करते और टाइम टू टाइम पहाड़ भी तोड़ते ।
इसी क्रम में वो रास्ता चौड़ा हो जाता है तो एक स्थानीय अखबार में इनके पहाड़ तोडऩे के हौसले पर खबर छपती है और धीरे धीरे ये मशहूर होने लगते हैं । फिर पूछा दिल्ली कैसे गए कोई कारण था या आंदोलन वगैरह ? बेटे ने कहा “न कोई आंदोलन ई सब न था , ऐसेही खेल में गाँव के आदमी बोला के दिल्ली दूर है त बाबा कहे कित्ता दूर है एकरो नापीए लेते हैं । बाबा के दिल्ली घूमे के बड़े इच्छा थी तो पैदले निकल लिए । 2 महीना लगा था , यहीं वजीरगंज स्टेशन से चले थे । दिल्ली इंदिरा गांधी जी से मिले भी थे । मैंने पूछा सरकार ने कोई मदद की या नहीं तो मांझी जी के भतीजे ने बताया कि सबसे पहले बाबा को विनोबा भावे जी (भू-दान आंदोलन के जनक) ने जमीन दी तो बाबा ने और लोगों को बसाया और एक कॉलोनी टाइप बन गयी । (पुराना घर वहीं है) लालू यादव जी के काल मे बाबा जब लालू जी से मिलने गए तो गेट पर ही पुलिस ने रोक दिया तो बाबा के साथ मे छेनी हथौड़ी हमेशा रहता ही था ,गेट से लगे दूसरे साइड बाउंड्री को तोडऩे लगे । पुलिस ने रोक कर कहा बाबा ये क्या कर रहे हो तब बाबा ने कहा जब गेट से घुसे न दोगे त दूसरा रास्ता निकालना ही न पड़ेगा ? फिर बाबा को लालू जी से मिलाया जाता है । लालू जी बाबा को पहाड़ के उस साइड जिधर बाबा लकड़ी चुनने जाते थे वो जमीन 1.5 एकड़ के गरीब बाबा को दिया । आज वो ता? से घेरा हुआ है ।
बाकी नीतीश कुमार की सरकार आते ही इनको खू ख्याति भी प्राप्त हुई और सहायता भी सबसे अधिक नीतीश जी ने किया । मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जी ने सबसे पहले उस घाटी को और चौड़ा कर रोड बनवाया । उनके नाम से जमीन आवंटित की गई । बाबा ने मुख्यमंत्री से हॉस्पिटल बनवाने को कहा नीतीश जी ने हॉस्पिटल के साथ थाना भी बनवा दिया । पास के गाँव मे एक बरसाती नदी है बाबा उसमे एकबार फंस गए नीतीश जी को बताया नीतीश जी ने उसपर पुल बनवा दिया ।
आगे बताते हैं कि अंतिम समय मे जब बाबा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जी से मिलने गए तो नीतीश जी सम्मानित करते हुए उन्हें अपनी कुर्सी पर बैठा कर उन्हें 1 घंटे का मुख्यमंत्री कहा । इस सम्मान से वो अभिभूत हो गए । वो सम्मान उनके दिल से निकल न सका ।
2007 में नीतीश कुमार जी की पत्नी की मृत्यु के बाद महाभोज में गए और वहां से लौटने के क्रम में अचानक उनकी तबियत खराब हुई कुछ दिन गाँव के ही डॉक्टरों से इलाज करवाया सुधार न होने पर गया और फिर पटना भर्ती हुए , मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जी ने बेहतर सुविधा के लिए दिल्ली एम्स में भर्ती करवाया और वहीं 17 अगस्त2007 में उन्होंने आखिरी सांस ली ।
उनके अंतिम संस्कार को बड़े पैमाने पर राजकीय सम्मान के तहत तोपों की सलामी के साथ किया गया। मरने के बाद नीतीश सरकार ने उनकी याद में कटे पहाड़ के नीचे स्मृति स्थल या समाधी स्थल बनवाया और साथ मे थोड़ी दूर पर एक म्यूजियम का भी निर्माण करवाया। अंतिम में मैंने यूं ही पूछा तब आपलोग वोट किसको देते हैं? कहने लगे नीतीश हमलोग के लिए बहुत किए हैं और एक कहावत कही (नीमक कर के याद नहीं आ रहा ) और कहा हारे चाहे जीते वोट त हमनी के नीतीशवे के जाता है ।
(17 अगस्त “माउंटेन मैन” दशरथ मांझी जी की पुण्यतिथि थी ।)