फऱीदाबाद की मज़दूर बस्तियां लाल झंडे से बहुत पुराना नाता है, ‘ऑटो पिन झुग्गी बस्ती’ का

फऱीदाबाद की मज़दूर बस्तियां  लाल झंडे से बहुत पुराना नाता है, ‘ऑटो पिन झुग्गी बस्ती’ का
October 09 14:48 2022

सत्यवीर सिंह
सबसे पहले, फरीदाबाद का ही नहीं, देश-विदेश का एक बहुत खास पता; कॉमरेड शेर सिंह, ऑटो पिन झुग्गी न 4, फरीदाबाद, इंडिया. जी हाँ, ये पता बिलकुल ऐसे ही लिखा जाना चाहिए। यहाँ वो कम्युनिस्ट योद्धा निवास करता है, जिसने दशकों तक अकेले ही फरीदाबाद में लाल झंडे को ऊँचा उठाए रखा। मज़दूरों की एक बुलंद आवाज़, ‘मज़दूर समाचार’, यहीं से प्रकाशित होता था, जिसे कॉमरेड शेरसिंह, फरीदाबाद के कारखानों के गेट पर या चौराहों पर खड़े होकर बांटा करते थे. कम्युनिस्ट आन्दोलन से सम्बद्ध शायद ही कोई व्यक्ति हो जो, कॉमरेड शेरसिंह, ‘मज़दूर समाचार’ और 4 नंबर की ऑटो पिन झुग्गी को ना जानता हो।

इस प्रतिष्ठित झुग्गी में देश के ही नहीं कई बार विदेशों से आए मज़दूर प्रतिनिधियों की भी बैठकें संपन्न हुई हैं। कम्युनिस्ट, सिर्फ मज़दूरों की बातें ही नहीं करते, ज़रूरत हो तो, आई आई टी कानपुर और मद्रास में पढ़ा एक कम्युनिस्ट योद्धा, मज़दूरों के बीच बिलकुल उन्हीं की तरह, रह भी सकता है. कॉमरेड शेरसिंह से कम खर्च में शायद ही कोई जीवित रह पाए. उम्र हो गई, लेकिन परचा पढ़ते वक़्त उनकी आँखों की चमक देखते ही बनती थी. ज़मीन से छत तक लगे कि़ताबों के चट्टे में, आपको अपने बैठने की जगह सावधानीपूर्वक बनानी पड़ेगी. ‘बड़े दिन बाद इस घर में कॉफ़ी बनी है’, कॉमरेड का ये कमेंट कितनी आत्मीयता भरा था. बस्ती में घूमते वक़्त सबसे पहले, जो बात ज़हन में नोट होती है, वह है कि इस बस्ती में मंदिर और दूसरे ‘आध्यात्मिक सेवा केंद्र’ बाक़ी बस्तियों से ज्यादा हैं. अध्यात्मवादी, यथास्थितिवादी जानते हैं, कि ऐसा कर्मठ कम्युनिस्ट अगर दिन-रात, आस-पास रह रहा हो तो सभी प्रकार के भगवानों की मदद चाहिए होगी!!

एनआईटी औद्योगिक क्षेत्र में स्थित,‘ऑटो पिन झुग्गी मज़दूर बस्ती’ का नाम ‘तिलक नगर’ है, जो फरीदाबाद के ही बहुत काम लोगों को मालूम होगा. ‘ऑटो पिन इंडिया’ नाम का उद्योग, फरीदाबाद के सबसे पुराने उद्योगों में से एक है. 1952 में डॉ त्रिलोक सिंह ने ये कारखाना स्थापित किया था, जो 1976 में पब्लिक लिमिटेड कंपनी बन गया. यहाँ भारी वाहनों, ट्रकों आदि में लगने वाले बहुत महत्वपूर्ण पुर्जे , कमानियाँ और शाफ़्ट बनते हैं. 1970 के दशक में ये कंपनी अपने शबाब पर थी. ये बस्ती, हालाँकि, उससे पहले बसने लगी थी, लेकिन फली-फूली उसी वक़्त. औद्योगिक क्षेत्र का उतार-चढाव, मज़दूर बस्तियों में भी नजऱ आता है. हजारों मज़दूर, तीन-तीन पालियों में काम किया करते थे. मज़दूरों के आवास की व्यवस्था करना, कारखानेदार की जि़म्मेदारी थी, जो उसने पूरी नहीं की और सरकार ने उसका साथ दिया. उद्योगपतियों और सरकार ने ये जि़म्मेदारी कहीं भी पूरी नहीं की. पूंजीवाद भी इस मुल्क में लंगड़ा-लूला ही आया, जो मज़दूरों से सिर्फ मुनाफ़ा निचोडऩा ही जानता है. इस बस्ती में रहने वाले मज़दूर खुद, या उनकी पिछली पीढ़ी, ऑटो पिन कारखाने में, वो मज़बूत कमानियां और शाफ़्ट बनाते आए हैं, जो टाटा मोटर्स के मंहगे ट्रकों में या महिंद्रा के भारी वाहनों में लगते हैं. पहले, इन मज़दूरों को मालिक ने ही नज़दीक के श्मशान के पास खाली जगह में बसाया था, जिससे उनसे किसी भी वक़्त तक काम लिया जा सके. आपातकाल में भी, झुग्गियों को, शहरी शानो-शौक़त पर बदनुमा दाग, कोढ़ समझकर, संजय गाँधी की सनक के अनुसार, बड़े पैमाने पर तोडा-उजाड़ा गया था. इन मज़दूरों को भी जब, उसी पागलपन के तहत, वहाँ से उजाड़ा गया तो इन्होंने जमकर संघर्ष किया. वहाँ से उजडऩे को, लेकिन, वे रोक तो नहीं पाए, लेकिन बिलकुल ‘न्यायोचित’ फैसला लेते हुए, उसी ऑटो पिन कारखाने की पब्लिक पार्किंग पर क़ब्ज़ा करके बैठ गए, जहाँ वे काम किया करते थे. आगे, सडक़ के साथ बहते ज़हरीले पानी वाले बड़े गटर और पीछे ऑटो पिन कारखाने की बाहरी दीवार के बीच लम्बी पट्टी में बसी, इस मज़दूर बस्ती में कुल 1800 राशन कार्ड हैं. मतलब, कुल आबादी 10,000 के कऱीब है. पूंजीवाद का जब संग्रहालय बनेगा, तब ये भी नमूद होगा कि पूंजीवादी ‘अमृत काल’ में 10,000 लोग, एक कंपनी की पार्किंग में रहने को मज़बूर थे. जैसा कि अलिखित पूंजीवादी संविधान कहता है, मज़दूर बस्ती में एक बड़ा गटर या नाला, ना सिर्फ होना ज़रूरी है, बल्कि उसका खुला रहना ज़रूरी है, जिससे मच्छर-कीटाणु पनपते रहें, और वे ह्रष्ट-पुष्ट बने रहें और मज़दूरों का बचा-खुचा खून भी पीते रहें.

ऑटो पिन मज़दूर बस्ती की ये खासियत नोट किए बिना, ये रिपोर्ट पूरी नहीं हो सकती, कि यहाँ का विशाल गटर, बाक़ी बस्तियों के गटर जैसा नहीं है, उनसे कहीं ज्यादा ज़हरीला है. कोई भी कारखाना हो, उसमें रसायनों का प्रयोग किसी ना किसी रूप में ज़रूर होता है. वह रसायन, पानी के साथ मिलकर, ज़हरीले द्रव के रूप में बाहर निकलता है, और महामारियों का स्रोत बनता है. हमारे देश का ‘प्रदूषण नियंत्रण विभाग’ भी अपनी जगह मौजूद है और मज़े में है, लेकिन वो इसलिए नहीं है कि प्रदूषण को रोके. वह इसलिए है कि ये सुनिश्चित करे, कि कारखानों से, उनके प्रदूषण की विभिषिता के अनुसार, ‘उगाही’ हो रही है या नहीं. कम ज़हर फ़ैलाने वाले उद्योगों से ज्यादा और ज्यादा ज़हर फ़ैलाने वालों से कम ‘वसूली’ तो नहीं हो रही. कहीं ये अन्याय तो नहीं हो रहा!! हमारे देश में कारखानेदारों की, मुनाफ़ा गल्ले में डालने के आलावा, कोई जवाबदेही नहीं है. यहाँ तो, भोपाल में नरसंहार करने वाले रासायनिक कारखाने, यूनियन कार्बाइड के डायरेक्टर वारेन एंडरसन को, रात में लोगों के गुस्से से बचकर भाग जाने की व्यवस्था ख़ुद सरकार ने की थी. यही वज़ह है, कि दुनियाभर के उद्योगपति अपनी उत्पादन यूनिट भारत जैसे देशों में लगाते हैं. ना सिफऱ् कौडिय़ों के भाव सस्ता श्रम उपलब्ध होता है बल्कि प्रदुषण, दुर्घटना किसी बात की कोई जि़म्मेदारी नहीं. देश में कारखानों से लगातार रिसते रसायन से कितनी ज़मीन बंजऱ हुई, ज़मीन का पानी कितना ज़हरीला हुआ, कितने लोग मरे, कितने अपंग, नपुंसक और पागल हुए, कितने मवेशी मरे, इसका हिसाब रखने की भी ज़रूरत नहीं. ऑटो पिन झुग्गी वाले गटर में, बाक़ी कारखानों से निकले ज़हरीले पानी को पंप से डाला जाता है. ये किसी भी पश्चिमी देश में तो छोडिए, दुनियाभर में शायद ही कहीं मुमकिन हो.

यहाँ सब चलता है, क्योंकि 80 प्रतिशत लोगों को, चुनाव से पहले एक महीना छोडक़र, इन्सान ही नहीं समझा जाता. मोदी जी की ‘खुले में शौच मुक्त योजना’ भी, उसी गटर के किनारे चार डिब्बों के रूप में खड़ी, अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही है. इन डिब्बों के दरवाजे सेवानिवृत्त हो चुके हैं!! बंद में शौच करते वक़्त भी, खुले में शौच का आनंद लिया जा सकता है!! वैसे भी सरकार जानती ही है, कि शौचालय में अगर पानी नहीं होगा, तो वहाँ शौच के लिए जाने की जुर्रत कौन कर सकता है!! 10,000 लोगों के लिए चार डिब्बे खड़े कर दिए जाने से, फाइलों में ऑटो पिन झुग्गी, मतलब तिलक नगर खुले में शौच मुक्त हो चुका है. ‘गऱीब कल्याण’ के नाम पर सरकार कैसी-कैसी, कितनी क्रूर नौटंकियाँ करती है!! बस्ती में कोई डिस्पेंसरी नहीं है. एक स्कूल वहाँ ज़रूर है जो जज़ऱ्र हालत में है. कब मरम्मत हुई थी, मालूम नहीं. वहाँ कभी भी कोई भयानक हादसा हो सकता है.

बस्ती में पर्चे बांटते हुए एक सुखद अनुभव भी हुआ. अधिकतर लोगों का कहना था कि उन्हें गेहूं और चीनी की निर्धारित मात्रा हर महीने मिल रही है. एक शिकायत ज़रूर लोग दबी जुबान में करते रहे कि पहले उन्हें राशन की दुकान से सरसों का तेल भी मिला करता था. अब क्यों नहीं मिलता?

उन्हें कैसे समझाया जाए कि सरसों का तेल मज़दूरों के लिए दुर्लभ वस्तु बन चुका है!! अडानी दुनिया का नंबर 2 अमीर ऐसे ही नहीं बना है!! आगे नंबर 1 बनाना है, तो देश के लोग कुर्बानियां नहीं करेंगे तो कैसे होगा!! ‘ऑटो पिन झुग्गी-तिलक नगर बस्ती’ की भी वही ज़रूरतें हैं, जो दूसरी बस्तियों की है; 10,000 लोगों की ज़रूरत के मुताबिक़ सुलभ शौचालय, गटर को तुरंत अच्छी तरह ढका जाना, जिसका खर्च सरकारी खज़ाने से नहीं बल्कि प्रदुषण से बचाव की व्यवस्था ना करने वाले कारखानेदारों पर भारी जुर्माना लगाकर पूरा किया जाए, डिस्पेंसरी, राशन में सरसों के तेल की मासिक आपूर्ति, सरकारी स्कूल की अच्छी तरह मरम्मत. ऐसा ना होने पर वहाँ कोई भी गंभीर हादसा घटित हो सकता है. साथ ही सीवर की व्यवस्था और स्वच्छता अभियान.

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Mazdoor Morcha
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