पत्रकारिता की गौरवशाली विरासत; गणेश शंकर विद्यार्थी

पत्रकारिता की गौरवशाली विरासत; गणेश शंकर विद्यार्थी
March 31 07:31 2024

क्रांतिकारी मज़दूर मोर्चा, हरियाणा
आजादी आंदोलन की क्रांतिकारी धारा; लुटेरे औपनिवेशिक अंग्रेज़ शासकों के साथ ही, उनके देसी पिट्ठुओ, सामंतों-जमींदारों से भी लड़ रही थी. यह शानदार तहरीक, अखबारों को औजार बनाकर भी चलाई जा रही थी. ‘प्रताप’ अखबार की स्थापना 1913 में हुई थी, जिसके संस्थापक एवं संपादक, गणेश शंकर विद्यार्थी थे. यह अखबार समूचे उत्तर भारत में, अपना क्रांतिकारी फर्ज़ बखूबी निभा रहा था. इसीलिए, हमेशा सत्ता के निशाने पर रहता था. सामंती शोषण और अंग्रेज-सामंत गठजोड़ के विरुद्ध, किसानों को संगठित करने में, ये अखबार, इतना आगे बढ़ चुका था कि उसमें लिखने वाले कई पत्रकार जेलों में डाल दिए गए थे.

1920 का दशक, हमारे देश में, क्रांतिकारी उभार का दशक था. उस वक़्त के दो बहुत अहम आंदोलनों के लिए, राज-सत्ता, ‘प्रताप’ को जिम्मेदार ठहरा रही थी. बिहार के चंपारण क्षेत्र में, अंग्रेज, किसानों से ज़बरदस्ती नील की खेती कराते थे, क्योंकि ब्रिटिश उद्योग को उसकी बहुत ज़रूरत थी. उन किसानों को गोलबंद कर, निर्णायक संघर्ष के रास्ते पर बढ़ाने में, गणेश शंकर विद्यार्थी और ‘प्रताप’ पूरी तरह समर्पित थे. दूसरी घटना, यूपी (यूनाईटेड प्रोविंस) में रायबरेली जिले की थी, जहां सामंतों ने, आंदोलनकारी किसानों की भीड़ पर गोली चला दी थी, जिसमें सैकड़ों किसान शहीद हुए थे. अंग्रेज और उनके देसी पिङ्ग-ताबेदार सामंत, जहां, ‘प्रताप’ का गला घोंट देना चाहते थे, वहीं ‘प्रताप’ के पाठक, अपने अखबार के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार थे.

1923 में, भगतसिंह 16 साल के थे, कि उनके पिताजी, उनके पैरों में शादी की बेडिय़ां डाल देना चाहते थे. भगतसिंह इस जाल में कहां फंसने वाले थे, वे घर से भाग गए, कानपुर में ‘प्रताप’ के दफ़्तर में गणेश शंकर विद्यार्थी से मिले, दोनों के गुण-धर्म समान थे, तो दोस्ती होने में भला, उम्र क्या आड़े आनी थी !! भगतसिंह, प्रताप अखबार में, बलवंत सिंह के नाम से लिखते थे. 1924 में विश्व प्रेम’ तथा 1925 में ‘युवा’, भगतसिंह के लिखे, दो लेख बहुल लोकप्रिय हुए थे, जो उन्होंने ‘बलवंत सिंह’ नाम से लिखे थे. ये दोनों लेख, ‘प्रताप’ की मासिक पत्रिका ‘मतवाला’ में छपे थे. भगतसिंह के अलावा, बाल कृष्ण शर्मा ‘नवीन’, सोहन लाल द्विवेदी, सनेही, प्रताप नारायण मिश्र भी ‘प्रताप’ के लिए लिखते थे, और ये सभी क्रांतिकारी आंदोलनों में भाग लेते थे. क्रांतिकारी तहरीकों का हिस्सा बनना, दरअसल, उस वक्त, पत्रकार होने की ही अतिरिक्त जिम्मेदारी थी. 1926 में, अंग्रेज सरकार ने, गणेश शंकर विद्यार्थी और ‘प्रताप’ अखबार पर, मानहानी का मुक़दमा दायर कर दिया, जिसमें उन पर 400 रु का जुर्माना लगा. यह रकम, उन दिनों बहुत बड़ी थी. ये पैसा भरना उनके लिए मुमकिन नहीं था और वे जेल जाने वाले थे. तब ही ‘प्रताप’ के पाठकों ने, ये पूरी रक्कम इकट्ठी कर जमा करा दी थी.

1928 में गणेश शंकर विद्यार्थी ने, ‘मजदूर सभा’ नाम से, मजदूरों के संघर्षों के औजार का निर्माण किया और अपनी आखरी साँस तक, वे इसके अध्यक्ष रहे. 1929 में, वे यूपी कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष चुने गए, उन्होंने अनेक क्रांतिकारियों को, ‘प्रताप’, ‘मजदूर सभा’ से जोड़ा और जो इन दोनों संगठनों में फिट नहीं हुआ, उसे कांग्रेस से जोड़ लिया. गणेश शंकर विद्यार्थी कुल 5 बार जेल गए, पुलिस की लाठियां खाई, लेकिन अपने रास्ते से एक इंच भी नहीं भटके, बड़े राजनीतिक आक्रोश को भटकाने के लिए, हिन्दू-मुस्लिम दंगे कराने का सिस्टम उस वक्त शुरू हो चुका था, जिसमें आज की सत्ता विशेष योग्यता हांसिल कर चुकी है. शहीद-ए-आजम भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव को 23 मार्च को हुई फांसी के बाद, देश भर में तीव्र आक्रोश बढ़ता जा रहा था. लोग सडक़ों पर उतर कर बग़ावत करने पर उतारू थे. तब ही, सत्ता द्वारा पूरे देश में दंगे भडक़ाए गए, कानपुर, उन दिनों क्रांतिकारी गतिविधियों का प्रमुख केंद्र था. वहां दंगे भडक़ते ही, गणेश शंकर विद्यार्थी अपनी पूरी टीम के साथ, आग बुझाने में कूद पड़े. कानपुर के बंगाली मोहल्ले में, लगभग 200 मुसलमानों को हिन्दू कठमुल्लों ने घेर लिया था. गणेश शंकर विद्यार्थी ठीक वहीं पहुँच गए, सभी को सुरक्षित निकाल लाए, तो एक बुजुर्ग ने उनके हाथ पर बोसा देकर, भावुक होकर, उन्हें ‘फ़रिश्ता’ घोषित किया था.

उसके बाद, एक दूसरे मोहल्ले में, हिन्दू-मुस्लिम, एक दूसरे की जान के प्यासे हो रहे थे. गणेश शंकर विद्यार्थी, अकेले ही वहां पहुँच गए, वे लोगों को लारी में बिठा रहे थे, कि एक धार्मिक जाहिल ने, उनके पेट में भाला घोंप दिया. वे कुछ कर पाते, इससे पहले ही उस धर्माध गिरोह ने, उनके सर पर लाठियों से वार कर दिया. वे वहीं ढेर हो गए, उनके साथियों को उनकी मौत का कुछ पता नहीं चला. उन्होंने उन्हें ढूंढते हुए पूरा कानपुर शहर छान मारा. एक जगह लाशों का ढेर लगा था, उसे उलट-पलट कर देखा गया था, तो गणेश शंकर विद्यार्थी की लाश उसी ढेर में मिली.

29 मार्च 1931 को, गणेश शंकर विद्यार्थी की अंतिम यात्रा में, लाखों लोग बिलख रहे थे. इस मिट्टी ने, पत्रकारिता के नाम पर, सड़े हुए, रेंगने वाले कीड़े ही पैदा नहीं किए, जांबाज दीदावर भी पैदा किए हैं. पत्रकारिता के, ऐसे ही एक हीरे को, उनके स्मृति दिवस पर, ‘क्रांतिकारी मजदूर मोर्चा, हरियाणा’, लाल सलाम पेश करता है.

  Article "tagged" as:
  Categories:
view more articles

About Article Author

Mazdoor Morcha
Mazdoor Morcha

View More Articles