फरीदाबाद (म.मो.) वायु-प्रदूषण के लगातार बढ़ते स्तर को नियंत्रित करने के नाम पर पिछले कई सप्ताहों से शहर की सैंकड़ों फैक्ट्रियों को बंद करा दिया गया है। अनेकों के ऊपर सप्ताह में केवल पांच दिन व दिन में केवल आठ घंटे तक चलाने की पावंदी लगा दी गई है। जाहिर है कि इसका सीधा असर, पहले से ही महंगाई व बेरोजगारी की मार झेलते लाखों मज़दूरों पर तो पड़ेगा ही, उद्योगपति भी भारी घाटा सहने को मज़बूर होंगे। देश भर की सिरिंज खपत का दो तिहाई भाग का उत्पादन करने वाली एचएमडी कम्पनी को भी बंद करा दिया गया है। इस पर आरोप है कि डीजल जनरेटर सेट का इस्तेमाल करते हैं। यदि सरकार बिजली की आपूर्ति सही ढंग से करती रहे तो किसी को जनरेटर सेट चलाने का शौक नहीं है।
जब सिरिंज का उत्पादन ही बंद हो जायेगा तो देश भर में चलाये जा रहे टीका करण अभियान का क्या होगा? टीकाकरण अभियान के अलावा भी देश भर के अस्पतालों में इस्तेमाल होने वाली सिरिंज का जब अकाल पड़ेगा तब शासक वर्ग की नींद टूटेगी और हाथ-पांव फूलेंगे, ठीक वैसे ही जैसे बीते दिनों ऑक्सीजन की कमी के चलते हजारों लोगों की जान चली गई थी।
निसंदेह प्रदूषण पर नियंत्रण करना तो बहुत जरूरी है लेकिन शासन-प्रशासन की आंख तभी क्यों खुलती है जब पानी सिर से ऊपर निकल जाता है? यह वायु प्रदूषण कोई एक दिन में यकायक नहीं बढ़ गया है, बीते कई वर्षों से बढ़ता आ रहा है। नवम्बर के महीने में, प्रति वर्ष, प्रदूषण का दंश जब हद से ज्यादा चुभने लगता है, केवल तब ही प्रशासन हरकत में क्यों आता है और वह भी सुप्रीम कोर्ट की झाड़-फटकार के बाद ही? करीब 20-25 दिन तो पराली जलाने के नाम पर सारी तोहमत किसानों के सर मंढते रहते हैं। उसके बाद अब उद्योगों के पीछे लठ लिये घूम रहे हैं। भवन-निर्माण प्रक्रिया के दौरान प्रदूषण नियंत्रण के जो उपाय शासन को अब सूझ रहें हैं, उन्हें स्थाई तौर पर लागू क्यों नहीं कराया जाता?
आज के दिन इस शहर में सबसे बड़े वायु-प्रदूषक नगर निगम, स्मार्ट सिटी कम्पनी लिमिटेड व ‘हूडा’ आदि हैं। ये तमाम सरकारी महकमे हैं। इनमें पीडब्लूडी को भी जोड़ा जा सकता है। ये तमाम महकमे यातायात के लिये उचित एवं साफ-सुथरी सडक़ें बनाने के लिये उत्तरदायी हैं। इनकी लापरवाही, इनमें व्याप्त हरामखोरी व रिश्वतखोरी के चलते सडक़ों की इतनी भयंकर दुर्दशा हो चुकी है कि शहर भर में धूल के गुबार छाये रहते हैं।
धूल के ये कण टेलकम पाउडर जैसे महीन होने के चलते हवा में इस कदर घुल-मिल जाते हैं कि बिना बरसात के ये हवा से निकल ही नहीं सकते। धूल के ये कण सांस के जरिये फेफड़ों में जाकर इस कदर जम जाते हैं कि कोई दवाई इन्हें बाहर नहीं निकाल सकती।
टूटी सडक़ों व अन्य कारणों से लगने वाले वाहनों के जाम से धुंआ वायु मंडल में समाता रहता है वह तो कोढ में खाज के समान है। शहर में सडक़ों की दुर्दशा कोई आज यकायक नहीं हो गई है, यह सदैव ही बनी रहती है। तमाम सडक़ों के साथ जो कच्ची एवं रेतीली जगह रहती है उससे भी धूल का उड़ते रहना स्वाभाविक है। इसकी ओर कभी किसी ने ध्यान नहीं दिया। पर्यावरण के इस महासंकट के दौरान सडक़ों पर पानी छिडक़ाव की बात की जा रही है। नगर निगम प्रति दिन दावा करता है कि उसने सैंकड़ों ट्रैक्टर टैंकर इस काम पर लगा रखें हैं। लगा रखें होंगे, ट्रैक्टर गिनने की जरूरत नहीं है, देखने की बात तो केवल इतनी भर है कि हवा में धूल कितनी उड़ रही है। जितनी भारी-भरकम बिलिंग पानी छिडक़ाव के नाम पर बनाई जा रही है, यदि उसे सडक़ों को दुरुस्त करने पर लगाते तो समस्या का कोई स्थाई समाधान हो पाता। लेकिन इतनी समझदारी तो कहीं नज़र आती नहीं। कत्र्तव्य निभाने के नाम पर प्रदूषण विभाग नगर निगम पर 10-20 लाख का जुर्माना कर देता है। 10-20 लाख की जगह यदि 10-20 करोड़ का भी जुर्माना लग जाय तो निगम की सेहत पर कोई असर पडऩे वाला नहीं। लगा हुआ जुर्माना यदि निगम अदा भी कर देगा तो जायेगा तो सरकार के खाते में ही और किसी ग्रांट के रूप में सरकार से निगम को मिल जायेगा। यानी इस तरह के जुर्माने पूरी तरह बेमानी एवं दिखावटी होते हैं। टुटी सडक़ों को दुरुस्त न करा पाने का कारण यह बताया जाता है कि सडक़ बनाने से प्रदूषण बढता है। मजे की बात तो यह है कि वाइपास व दिल्ली में सेंट्रल विस्टा के धुंआधार चल रहे निर्माण कार्य किसी प्रकार की कोई रोक नहीं है।
सडक़ों के अलावा सीवरेज़ सिस्टम भी प्रदूषण में अपना पूरा योगदान दे रहा है। सड़ते एवं उफनते सीवरों से सडक़ों पर आकर सडऩे वाले कीचड़ की दुर्गंध वायु प्रदूषण में बढावा ही करता है। इतना ही नहीं इस कीचड़ के सूख जाने के बाद यह भी महीन पाउडर बन कर वायु में घूल-मिल जाता है। यह सिलसिला वर्षों से निर्बाध चला आ रहा है। इस ओर शासन-प्रशासन, एनजीटी तथा प्रदूषण विभाग ने कभी ध्यान देने की जरूरत नहीं समझी।