पराली तो खत्म हुई अब प्रदूषण का दोष किस पर मढ़ेंगेे?

पराली तो खत्म हुई अब प्रदूषण  का दोष किस पर मढ़ेंगेे?
December 20 01:58 2022

फरीदाबाद (म.मो.) अक्टूबर माह में बढते प्रदूषण के लिये सारा दोष किसानों पर पराली जलाने के लिये मढ़ा जा रहा था। बड़े पैमाने पर किसानों को प्रताडि़त किया गया, उन पर जुर्माने किये गये तथा कई तरीके से परेशान किया गया। उनकी कोई भी दलील सुनने को कोई तैयार नहीं था।

अब उन तमाम खेतों में गेहूं की फसल बो दी गई है। पराली कहीं ढूंढने से भी नहीं मिल रही। इसके बावजूद वायु प्रदूषण में कहीं कोई कमी नजर नहीं आ रही। हां, कभी-कभार जब हवा चल पड़े तो वायु गुणवत्ता में कुछ सुधार जरूर हो जाता है जिसे लेकर तमाम सरकारी एजेंसियां अपनी पीठ थपथपा लेती हैं।

प्रदूषण के असल कारणों को दूर करने के लिये कहीं भी कोई प्रयास नजर नहीं आ रहा। शहर भर की तमाम पक्की कही जाने वाली सडक़ों से धूल के गुबार कभी भी देखे जा सकते हैं। बीते तीन दिन से तो, हाईवे की ओर से बाटा रेलवे ओवर ब्रिज पर चढ़ते समय धूल के गुबार में अजब-गजब बढोत्तरी हुई है। इस तरह की तमाम सडक़ों को दुरूस्त करके समस्या का स्थायी हल करने की बजाय ट्रैक्टर-टैंकरों द्वारा पानी छिडक़ने का धंधा चला दिया गया है। दो टैंकर पानी छिडक़ा गया या बीस टैंकर, इसका हिसाब रखने वाले भ्रष्ट कर्मचारियों की तो मानो लॉटरी ही निकल आई। छिडक़ाव के बिल भी खूब बन रहे हैं और धूल के गुबार भी खूब उड़ रहे हैं। रात-दिन धूल उड़ाने व छिडक़ाव का सबसे मोटा धंधा तो बाईपास पर बन रहे नये हाइवे पर चल रहा है।

कूड़ा तथा कबाडिय़ों द्वारा रबड़ व प्लास्टिक आदि जलाने पर तो मानो कोई रोक-टोक है ही नहीं । रात के अंधेरे में, जब सरकार सो रही होती है तो यह काम पूरे जोर से चल रहा होता है। सरकार द्वारा गैस के भाव बेतहाशा बढ़ा दिये जाने के चलते मजबूरन गरीब लोग लकड़ी, उपले आदि का प्रयोग इंधन के रूप में करते हैं। इसका असर प्रात: व सायं झुग्गी-बस्तियों तथा कच्ची कॉलोनियों में बखूबी देखा जा सकता है। गैस की इसी महंगाई के चलते अनेकों छोटे उद्योग भी काला धुआं उगलने वाले ईंधनों का प्रयोग करने को मजबूर हैं। बिजली की पर्याप्त आपूर्ति न होने पर घरों व उद्योगों में डीजल-जनरेटर धुआं उगलने लगते हैं।

शादी हो या कोई त्योहार हो या कोई मैच जीत लिया जाये अथवा खुशी का कोई भी मौका हो तो वह बिना पटाखों के नहीं मनाया जाता। पटाखे चाहे ग्रीन हों या रेड, ऑक्सीजन तो कोई देने वाले हैं नहीं, सभी के सभी बारूदी धुआं ही उगलते हैं। समझ नहीं आता कि पर्यावरण की दुहाई देने वाली सरकार को इन पटाखों के उत्पादन पर प्रतिबंध लगाने में क्या दिक्कत है?

सडक़ों पर उडऩे वाली धूल के अतिरिक्त वाहनों के धुएं, खासतौर पर लगातार लगने वाले जामों के समय निकलने वाले धुएं की भी प्रदूषण बढ़ाने में अहम भूमिका रहती है। इससे निपटना कतई कोई मुश्किल काम नहीं है। इसके लिये केवल निपटने की इच्छा शक्ति की जरूरत है। जो सडक़े वाहनों के चलने के लिए बनाई गई है उन पर बे-रोकटोक इस कद्र वाहन खड़े कर दिये जाते हैं कि जाम तो लगे ही लगे और धुआं उगले ही उगले।

वायु प्रदूषण के उक्त बताये गये कारणों से निजात पाना कतई कोई कठिन काम नहीं है। इस के लिए आवश्यकता है तो केवल अच्छी नीयत की। इनका निदान प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड या नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल जैसी दुकानें खोलने से होने वाला नहीं है। ये दुकानें पिछले बीसियों-तीसियों वर्षो से तथाकथित नियंत्रण कर रही है और नियंत्रण महिषासुर की मुंह की तरह फैलता ही जा रहा है।

प्रदूषण रोकने के नाम पर तैनात किये गये ये विशेष अधिकारीगण इसे नियंत्रण करने की अपेक्षा अपनी-अपनी दुकानदारी चलाने में ज्यादा व्यस्त है। चलो, सरकार व उसके ये अधिकारी जो कर रहे है सो कर ही रहे हैं, प्रदूषण को भुगत रही जनता क्या कर रही है यह सबसे गंभीर प्रश्र है।

जनता प्रदूषण के चलते गंभीर बीमारियों का शिकार होती जा रही है, लोग वक्त से पहले मौत के मुंह में समाते जा रहे हैं लेकिन इसके विरूद्ध किसी भी तरह की आवाज बुलंद करने की कोई आवश्यकता नहीं समझते।

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Mazdoor Morcha
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