उचन्ती वारदातों से होती है पुलिस की काली कमाई
फरीदाबाद (म.मो.) मुदई से एफआईआर लिखने व कड़ी कार्रवाई करने के नाम पर पुलिस की वसूली होती है तो मुलजिम से कर्रवाई न करने या केस को ढीला करने के नाम पर वसूली की जाती है। हाल ही में ऐसी दो घटनायें ‘मज़दूर मोर्चा’ के संज्ञान में आई हैं।
6 जुलाई को उर्मिला गर्ग नामक महिला पाली गांव स्थित अपने एक भू-खंड विक्रय को पंजीकृत कराने बडख़ल तहसील में बेटों नवीन व रवि के साथ आई थी। इन लोगों पर प्रमोद नामक पाली निवासी ने कुछ गुंडों को साथ लाकर हमला कर दिया। प्रमोद चाहता था कि महिला उस जमीन को किसी और को बेचने की बजाय उसी को औने-पौने में दे दे। इसी नीयत से प्रमोद ने करीब डेढ वर्ष पूर्व एक एग्रीमेंट भी किया था। एग्रीमेंट के मुताबिक वह पेमेंट करके रजिस्ट्री नहीं करा रहा था, इसलिये वह केवल गुंडागर्दी के बल पर विक्रेता महिला को डरा कर उसे दूसरी पार्टी को बेचने से रोकना चाहता था।
वारदात की सूचना पुलिस कंट्रोल रूम को दी गई। मौके पर पीसीआर आई भी और बिना कुछ किये चली भी गई। घटना की रिपोर्ट लिखाने महिला के दोनो बेटे दोपहर करीब दो बजे थाना कोतवाली पहुंचे। थाने में उन्हें बताया गया कि एसएचओ के आने पर ही कोई कार्रवाई होगी। इंतजार में शिकायतकर्ता थाने में बैठे रहे। शाम करीब सात बजे एसएचओ रामवीर के आने पर उन्होंने अपनी लिखित शिकायत पेश की, जिसके बदले उन्हें उचित कार्रवाई का आश्वासन दिया गया जो आज तक नहीं हुई।
उपलब्ध जानकारी के अनुसार ऐसी ही एक दरखास्त हमलावर पार्टी से भी ले ली गई। इसके बाद पुलिस चौकी एनएच दो ने असल शिकायतकर्ता गर्ग भाइयों को चौकी बुलाने का सिलसिला शुरू कर दिया। पहली अगस्त को रवि चौकी में आकर इंचार्ज सब इन्स्पेक्टर सतीश के सामने पेश हुआ। बजाय लड़ाई-झगड़े से सम्बन्धित तथ्यों पर बात करने के इंचार्ज महोदय ने एग्रीमेंट व रजिस्ट्री सम्बन्धी कानूनी पहलुओं को लेकर मामले को उलझाना चाहा। रवि ने साफ कर दिया कि इसके लिये दूसरी पार्टी अदालत जा सकती है, उसकी शिकायत तो केवल लड़ाई-झगड़े व गुंडागर्दी के खिलाफ है।
काफी देर इंतजार करने के बाद भी जब दूसरी पार्टी चौकी में न आई तो थानेदार ने रवि को तीन अगस्त को आने के लिये कहा। उसने जब बार-बार चौकी आने से इन्कार किया तो थानेदार ने दोनों पक्षों के खिलाफ धारा 107/151 की कार्रवाई करके हवालात में डालने की बात कही। लिहाजा रवि तीन अगस्त को पुन: अपने भाई नवीन के साथ चौकी में आया। दूसरी पार्टी उस दिन भी न आई थी। बार-बार आने-जाने के चक्कर से बचने के लिये नवीन ने लिख कर दे दिया कि उनकी रजिस्ट्री तो हो चुकी है और अब वे कोई कार्रवाई नहीं चाहते। रवि ने बाद में इस संवाददाता को बताया कि पुलिस खर्चे के नाम पर उसकी ओर से 50 हजार रुपये जा चुके थे। जानकार बताते हैं कि इससे भी कहीं बड़ी रकम मुलजिम पक्ष से भी वसूली जा चुकी थी। जाहिर है कि अपनी ऐसी ही लूट कमाई के चक्कर में पुलिस गुंडागर्दी के विरुद्ध कोई कड़ी कार्रवाई न करके मामले को इधर से उधर घुमाती रहती है जिससे गुंडों के हौंसले बढते हैं, वरना पुलिस को तुरन्त कार्रवाई करते हुए हमलावरों को हिरासत में लेकर उचित सबक सिखाना चाहिये था।
नि:संदेह पुलिसवाले तो इस तरह की किसी भी वसूली से इन्कार करेंगे ही, देने वाले भी पुलिसिया भय के चलते मुकर सकते हैं। लेकिन वारदात की सूचना मिलने के बाद पुलिस ने कार्रवाई क्या की? हफ्तों बाद शिकायतकर्ता को पुलिस चौकी बुलाने का मतलब क्या था? यही प्रश्न पुलिस की बदनीयती को सिद्ध करने के लिये पर्याप्त हैं।
वाहन दुर्घटना से भी पुलिस को होती है कमाई
दिनांक 10 अगस्त को प्रात: करीब चार-पांच बजे अखबार सप्लाई करने वाली एक कार को अवैध रूप से चल रहे ट्रैक्टर ने ठोक दिया। दुर्घटना बल्लबगढ़ बसअड्डा पुलिस चौकी के निकट हुई थी। सूचना मिलने पर थाना शहर पुलिस ने कार मालिक विनोद लाल को दुर्घटनाग्रस्त वाहन को थाने लाने का आदेश दिया। दुर्घटना स्थल से महज 100 मीटर के फासले तक इसे क्रेन द्वारा ले जाने के लिये विनोद को 1000 रुपये खर्च करने पड़े।
करीब 9 बजे, ट्रैक्टर मालिक के आने के बाद शुरू होता है पुलिस का खेल। उससे सौदा तय हो जाने के बाद पुलिस ने विनोद को मात्र 2000 रुपये लेकर राजीनामा करने का दवाब बनाया। विनोद ने इससे साफ इन्कार कर दिया और अपनी लिखित शिकायत थाने में छोड़ कर जाने लगा तो कई पुलिस वालों ने मिल कर उसे घेर लिया और समझाने लगे कि मुकदमे में क्या रखा है, कोर्ट कचहरी के चक्कर लगाता रहेगा, आनी-जानी कुछ नहीं। गाड़ी का नुक्सान हुआ है तो बीमा कम्पनी से क्लेम करो। नुक्सान तो ट्रैक्टर का भी हुआ है। करीब चार-पांच घंटे चली इस कवायद के बाद पुलिस ने विनोद को 20 हजार रुपये ट्रैक्टर मालिक से दिलवाये जबकि उसका नुकसान सवा लाख से कम का नहीं था। इसके बाद 2000 रुपये में क्रेन करके वह अपनी गाड़ी को दिल्ली ले गया।
गौरतलब है कि ट्रैक्टर चालक के पास कोई ड्राइविंग लाइसेंस नहीं था। विनोद को दबाव में लेने के लिये पुलिस ने ट्रैक्टर का ड्राइवर तक बदलने की बात कही थी। ट्राली सहित शहर में घूम रहे ट्रैक्टर के पास न तो कमर्शियल परमिट था, न ही इन्श्योरेंस, न ही पंजीकरण और न ही फिटनेस प्रमाणपत्र।
सर्वविदित है कि कृषि कार्य के लिये बने ट्रैक्टर को शहर में लाकर कमर्शियल काम करने के लिये विशेष परमिट लेना अनिवार्य होता है। इसके अलावा वाहन सडक़ पर चलने के लायक है या नहीं, इसका प्रमाणपत्र बाकायदा मोटर व्हीकल इन्स्पेक्टर द्वारा जारी किया जाता है। इन सब उल्लंघनाओं के चलते पुलिस द्वारा उस ट्रैक्टर को कब्जे में लेकर चालान किया जाना चाहिये था।
जाहिर है कि पुलिस ने उसे इन सब गुनाहों से मुफ्त में तो नहीं ही छोड़ दिया होगा। बेशक विनोद ने जैसे-तैसे रोते-पीटते दबाव में समझौता कर लिया, लेकिन इससे ट्रैक्टर का शहर में चलना तो वैध नहीं हो गया था। पुलिस विनोद की शिकायत वापस लिये जाने के बाद भी मोटर व्हीकल एक्ट में चालान कर सकती थी। रिश्वतखोरी के बल पर चलते इस तरह के अवैध वाहनों का सडक़ दुर्घटनाओं में बड़ा योगदान रहता है।