फरीदाबाद (मज़दूर मोर्चा) ईएसआई कॉर्पोरेशन पर काबिज़ जनविरोधी मुख्यालय ने कभी नहीं चाहा कि जिन मज़दूरों से वह अपना खजाना भर रहा है उन्हें समुचित चिकित्सा सेवाएं मिलती रहें। सर्वविदित है कि जो स्पेशलिस्ट तथा सुपर-स्पेशलिस्ट चिकित्सा सेवाएं किसी मेडिकल कॉलेज से मिल सकती हैं वे अन्य अस्पताल से नहीं मिल सकती हैं। इसके बावजूद मुख्यालय में बैठे अधिकारियों ने नये मेडिकल कॉलेज खुलने का लगातार विरोध किया है। जो मेडिकल कॉलेज खुल भी पाए हैं वे केवल राजनीतिक दबावों की वजह से ही खुल पाए हैं।
मजबूरन, न चाहते हुए भी कॉर्पोरेशन ने देश भर में 10 मेडिकल कॉलेज खोल तो दिए परन्तु नीयत हमेशा इन्हें बर्बाद करने की ही रही है। इसके लिये पहला हथकंडा तो अपने जीडीएमओ (साधारण डॉक्टर) गिरोह में से किसी को इनमें चिकित्सा अधीक्षक (एमएस)नियुक्त करना रहा है, जबकि एनएमसी (नेशनल मेडिकल कमीशन) के अनुसार इस पद पर किसी प्रोफेसर को ही नियुक्त किया जा सकता है। मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल को चलाने के लिये आवश्यक तमाम वित्तीय अधिकार भी इसी एमएस के पास रखे गये थे जो इसका दुरुपयेाग करते हुए आवश्यक साज़ो-सामान कभी खरीदने ही नहीं देता था। इसका बेहतरीन उदाहरण दिल्ली स्थित बसई दारापुर मेडिकल कॉलेज है। इसी कारण से हजार बिस्तरों की क्षमता वाले इस अस्पताल में कभी 300 से ऊपर मरीज भर्ती नहीं रहते।
दूसरा हथकंडा मरीज़ों की संख्या बढऩे के बावजूद पर्याप्त एवं आवश्यक स्टाफ न देना, जिसका उदाहरण स्थानीय मेडिकल कॉलेज अस्पताल है। इसके बावजूद भी जब अस्पताल जैसे-तैसे चल रहा हो तो वहां की फैकल्टी एवं स्टाफ के तबादले कर दिये जाएं। इन्हीं तबादलों के चक्कर में यहां के दर्जन भर प्रोफेसर अदालतों के चक्कर काट रहे हैं, जाहिर है उनकी जो ऊर्जा संस्थान में लगनी चाहिए थी वह अदालतों में व्यर्थ जा रही है।
मुख्यालय की इसी नीति के कारण बैंगलुरू स्थित मेडिकल कॉलेज के रेडियोलॉजी विभाग में अब एक भी प्रोफेसर नहीं बचा है। यहां के प्रोफेसर सतीश प्रसाद का तबादला गुलबर्गा मेडिकल कॉलेज कर दिया गया। प्रोफेसर ने वहां जाने के बजाय इस्तीफा दे दिया। इसी तरह एसोसिएट प्रोफेसर शैलजा प्रशान्त का तबादला चेन्नई कर दिया गया तो उन्होंने भी इस्तीफा दे दिया। इसी तरह असिस्टेंट प्रोफेसर निशा पी का तबादला फरीदाबाद कर दिया गया तो उन्होंने भी पहले वाले दो प्रोफेसरों की तरह तीन माह के नोटिस के बदले अपने तीन माह का वेतन कॉर्पोरेशन के मुंह पर मार कर वहां से निजात पा लिया। गौरतलब है कि इन तीनों को रोकने के लिए डीन द्वारा की गई प्रार्थना को भी अनसुना कर दिया गया।
मजे की बात तो यह है कि इन इस्तीफों के चलते जब विभाग फैकल्टी विहीन हो गया तो जिस प्रो$फेसर सतीश प्रसाद को नौकरी से निकलने पर मज़बूर किया गया था उसी को अब ठेके पर रख लिया गया है। मतलब यह कि प्रोफेसर साहब वेतन तो कॉर्पोरेशन से वसूलेंगे ही, इसके साथ-साथ अपना निजी धंधा भी आराम से कर सकेंगे। फरीदाबाद में रेडियोलॉजी के एकमात्र प्रोफेसर जफर को बैंगलुरू जाने का आदेश दिया गया था, वह अदालत से स्टे ले कर यहीं पर कायम हैं। रेडियोलॉजी विभाग का मामला तो केवल एक उदाहरण मात्र है जबकि लगभग यही स्थिति तमाम मेडिकल कॉलेजों के सभी विभागों की है।
मज़दूरों की कमाई से मोटा वेतन वसूल रहे इन लाल फीताशाहों ने मेडिकल कॉलेजों को बर्बाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, किसी भी मेडिकल कॉलेज मेें पूरी फैकल्टी नहीं है। मेडिकल कॉलेज में एमबीबीएस के लिए इस विभाग में एक प्रोफेसर, एक एसोसिएट प्रोफेसर और एक असिस्टेंट प्रोफेसर होना आवश्यक है। अलवर, बिहटा, जोका, गुलबर्गा और चेन्नई मेडिकल कॉलेज बिना पर्याप्त फैकल्टी जैसे तैसे चलाए जा रहे हैं।
पीजी मेडिकल कॉलेज चलाने के लिए प्रति विभाग एक प्रोफेसर, दो एसोसिएट प्रोफेसर और दो असिस्टेंट प्रोफेसर आवश्यक हैं। कॉरपोरेशन के हैदराबाद, बैंगलुरू और फरीदाबाद पीजी मेडिकल कॉलेज एक एक प्रोफेसर के बल पर ही चलाए जा रहे हैं।
कॉरपोरेशन मुख्यालय में बैठे नाकाबिल अधिकारियों के एक भी फैकल्टी नहीं देने के कारण ही 2012 में पीजी शुरू होने के बावजूद बसई दारापुर और मानिकतला पीजी मेडिकल कॉलेज बेकार साबित हो रहे हैं, इसकी वजह से वहां रेडियोलॉजी में पोस्ट ग्रेजुएशन की सीटें खाली जा रही हैं।