मज़दूरों के लिए इतना बुरा वक़्त कभी नहीं रहा

मज़दूरों के लिए इतना बुरा वक़्त कभी नहीं रहा
April 28 13:09 2024

क्रांतिकारी मज़दूर मोर्चा
” बदलते पर्यावरण के मद्देनजऱ, कार्य क्षेत्र पर सुरक्षा एवं स्वास्थ्य सुनिश्चित करना” विषय पर विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट, 22 अप्रैल 24 को प्रकाशित हुई। मज़दूर वर्ग से प्रतिबद्धता रखने वाले संवेदनशील व्यक्ति के लिए इस रिपोर्ट को पढऩा बहुत मुश्किल काम है। समूची दुनिया में आज पूंजी का राज, कायम है। पूंजीवाद में पूंजी और श्रम के बीच प्रमुख अंतर्विरोध शुरू से अंत तक कायम रहता है। इन दो पहलवानों के बीच युद्ध जब निर्णायक दौर में पहुंच जाता है और श्रम, पूंजी को चारों खाने चित्त कर देता है तब ही समाज को पूंजी की जकड़बंदी से मुक्ति मिलती है, जिसे क्रांति कहा जाता है। परिणामस्वरूप, समाज अपनी उन्नत अवस्था ‘समाजवाद’ में प्रवेश करता है। ‘पैसे’ की जगह ‘मेहनत’ को सम्मान मिलता है। तब तक पूंजी और श्रम के बीच कभी छुपा और कभी खुला संघर्ष जारी रहता है। पूंजीवाद के लगभग 200 साल के इतिहास में पूंजी का पलड़ा, इतना भारी कभी नहीं रहा जैसा आज है।

‘विश्व जनसंख्या घड़ी’ के अनुसार दुनिया की मौजूदा कुल आबादी 810 करोड़ है जिसमें कुल 340 करोड़ मजदूर हैं। सुई से लेकर जहाज तक और अन्न के दानों से लेकर ताज तक, सारा निर्माण और उत्पादन करने वाली मज़दूरों की ये विशाल सेना न सिफऱ् इन्तेहाई गुरबत में जीने को मजबूर है बल्कि बदलते पर्यावरण की सबसे घातक मार भी ये लोग ही झेल रहे हैं। इसी बात का जायजा लेने के लिए आईएलओ ने दुनियाभर के मजदूरों पर ये शोध किया, जिसकी इसी सप्ताह जारी रिपोर्ट समूचे मानव समाज की संवेदनशीलता को झकझोरने के लिए काफ़ी है, बशर्ते, संवेदनशीलता को पूंजी की आंच ने पूरी तरह सुखा न दिया हो।

1. मज़दूरों पर बे-इन्तेहा गर्मी की मार
साल 2023 इतिहास का सबसे गर्म साल रहा। 2011 से 2020 के बीच के 10 सालों में धरती का औसत तापमान 1.1 डिग्री सेंटीग्रेड से बढ़ गया। दुनिया में कुल 241 करोड़ मजदूर भयानक गर्मी/ लू की चपेट में आए, इनमें सबसे ज्यादा मज़दूर खेती तथा निर्माण कार्य करने वाले हैं। 2.3 करोड़ मजदूर हीट-वेव से गंभीर रूप से प्रभावित हुए, जिनमें 18,970 की मौत हो गई तथा 20.90 लाख मजदूरों में अधिक तापमान में लगातार काम करते रहने से ऐसी शारीरिक अपंगता/ कमजोरियां पैदा हुईं जो उनकी मौत के साथ ही गईं। अर्थात ये लोग धीमी, कष्टदायक मौत मरे। अधिकतर देशों में मालिकों ने विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा ‘कार्य क्षेत्र पर सुरक्षा एवं स्वास्थ्य’ के सुझावों जैसे निश्चित तापमान से ज्यादा होने पर काम न करने देना, शरीर में नमी बनाए रखने के लिए पेय उपलब्ध कराना, नरम सूती कपड़े पहनना और शारीरिक श्रम की बजाए यंत्रों का उपयोग करना आदि को पैरों तरह कुचलते हुए, जला देने वाली गर्मी में काम करने को मजबूर किया। कई जगह मज़दूरों को आधे-नंगे बदन काम करना पड़ा। अधिकतर देशों ने आईएलओ के निर्देशों, क़ायदे-कानूनों की जगह अपने नियम-कायदे बना लिए हैं। मतलब, मालिक जो कहें, वही क़ायदा है।

2. प्राण-घातक अल्ट्रा-वायलेट किरणों से बचाव न होना
खेती, निर्माण कार्य, बिजली विभाग, माली तथा बंदरगाहों पर काम कर रहे मजदूरों को, बाहर, खुले आकाश में काम करना होता है, जहां प्राण-घातक अल्ट्रा वायलेट किरणों से कोई बचाव नहीं होता, त्वचा में जलन, फफोले पडऩा, त्वचा का कैंसर, आंखों में नुकसान, एक विशिष्ट प्रकार का मोतियाबिंद, रोगों से लडऩे की शारीरिक क्षमता नष्ट अथवा कम हो जाना, ये सभी रोग प्रमुख रूप से सूरज की अल्ट्रा वायलेट किरणों से होते हैं। दुनियाभर में 16 लाख मजदूर, अल्ट्रा वायलेट किरणों की गंभीर चपेट में आए, जिनमें 18,960 मजदूरों की मौत अकेले नॉन-मलेनोमा नाम के त्वचा कैंसर से हुई। विश्व स्वास्थ्य संगठन के निर्देश हैं कि सभी मज़दूरों को छाया में कार्य करने का बंदोबस्त किया जाए, जहां ये संभव नहीं वहां मजदूरों को पीपीई किट, गर्मी और घातक किरणों से बचाव के चश्मे तथा त्वचा पर सुरक्षा क्रीम लगाकर ही, काम की अनुमति दी जाए, इन ‘निर्देशों’ का कितना अनुपालन होता है हमारे देश में बच्चा-बच्चा जानता है। वैसे भी निर्देश ही तो हैं, निर्देशों का क्या!!

3. ख़तरनाक मौसम की जानलेवा घटनाएं
मेडिकल व्यवसाय, आग बुझाने वाले कर्मचारी, खेती, निर्माण कार्य, सफ़ाई कर्मचारी, मछली पालन मज़दूर तथा अन्य कई आपातकालीन सेवाओं में काम करने वाले मज़दूरों के प्राण ज़रूरी सुरक्षा उपायों के न होने की वजह से मौसम की चरम-तीखी अवस्था ने वक्त से पहले ही ले लिए। इन परिस्थितियों से कुल कितने मज़दूर प्रभावित हुए वह आंकड़ा तो विश्व स्वास्थ्य संगठन भी इकठ्ठा नहीं कर पाया। हां, रिपोर्ट में इतना ज़रूर उल्लेख है कि 1970 से 2019 तक कुल 20,60,000 मजदूर काम करते वक्त विपरीत मौसम की भेंट चढ़े। मौसम द्वारा अचानक उग्र रूप धारण कर लेने पर आईएलओ ने बहुत से आपातकालीन उपाए सुझाए हैं, जिनकी व्यवस्था करना तथाकथित विकसित देशों ने भी छोड़ दिया है। भारत जैसे देशों का तो कहना ही क्या!!

4. कार्यस्थल पर दूषित वातावरण
लगभग सभी मज़दूर, कार्यस्थल पर दूषित/ विषाक्त वातावरण में कार्य करने को विवश हैं। मज़दूरों में तरह-तरह की सांस की बीमारियां, फेफड़ों का कैंसर तथा हृदय रोग बहुत सामान्य हैं, और ये सब कार्यस्थल पर अस्वस्थ वातावरण होने की ही सौगात हैं। इसी रिपोर्ट के अनुसार, 16 लाख से भी अधिक मज़दूर, कार्यस्थल पर दूषित वातावरण के फलस्वरूप घातक जानलेवा रोगों की चपेट में आए, हर साल लगभग 8,60,000 मज़दूरों के प्राण, दूषित कार्यस्थल वातावरण लेता है। धीमी मौत मर रहे मजदूरों की तो गिनती ही असंभव है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कार्यस्थल पर स्वस्थ वातावरण सुनिश्चित करने के लिए लम्बे-चौड़े सुझाव दिए हैं, काफ़ी कागज काले किए हैं, लिखने वाले, उपदेश देने वाले भी अच्छी जानते हैं ये सब लिखने की बातें हैं। धरातल पर, मालिकों की मुनाफ़े की अजगरी भूख के सामने, सारी लिखावट दम तोड़ देती है।

5. मक्खी-मच्छर-कीटाणु जनित रोग
सभी मज़दूर हर वक्त रोगों के इन कारकों से घिरे रहते हैं। कार्यस्थल से भी ज्यादा भयावह हालात उनकी झुग्गी-झोंपडिय़ों में होते हैं, जिनका गंदे नाले के किनारे होना आवश्यक शर्त है, जहां खतरनाक मच्छरों के घने बादल हर वक्त मंडराते रहते हैं। मक्खी-मच्छर-कीटाणु ही तो मज़दूरों के हर वक़्त के साथी हैं। मज़दूरों, उनके मासूम बच्चों, महिलाओं को लगातार उनसे युद्ध करते रहना होता है। मौत हर वक़्त उनकी झोंपडिय़ों का दरवाजा खटखटाती रहती है, वे हर रोज़ मौत की तरफ़ खिसकते जाते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने, 132 पेज की अपनी रिपोर्ट में ये पता करने की कोशिश नहीं की कि मज़दूरों की औसत आयु इतनी कम क्यों है? उन्हें भी तो मज़दूरों का कल्याण करने का दिखावा ही तो करना होता है। ये रस्म अदायगी कितनी क्रूर है!! मलेरिया, डेंगू, चिकनगुनिया से ही न जाने कितने मज़दूर हर रोज़ मरते हैं। संगठन ने रिपोर्ट में ठीक ही कहा, सही आंकड़े मुमकिन नहीं !! उसके बावजूद हर साल 15,170 मज़दूरों की मौत इस वज़ह से होनी बताई गई है। मतलब तुक्का ही मारा है!!

6. ख़तरनाक रसायन
खेती-बाड़ी में कीटनाशक के रूप में इस्तेमाल होने वाले ज़हर और रासायनिक उद्योगों से लगातार बहते ज़हर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से कुल कितने लोगों की मौत की वज़ह बन रहे हैं, आकलन असंभव है। खाने-पीने में धीमा ज़हर, मतलब धीमी गति से मौत, मस्तिष्क  रोग, पागलपन, तरह- तरह के कैंसर, प्रजनन क्षमता खत्म होना, अवसाद, शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता कमजोर होना, रोगों की बहुत ही लम्बी लिस्ट में, ये प्रमुख नाम हैं, जो खतरनाक रसायनों से हर रोज़ हो रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की इस रिपोर्ट के मुताबिक, अकेले खेती में लगे, खेत मज़दूरों तथा लघु-सीमांत किसानों में से 87.30 करोड़ लोग, खतरनाक रसायनों के सीधे और गंभीर शिकार हो चुके हैं। वैसे तो ज़हरीले खाद्यान्न, फल, सब्जिय़ां खाकर कितने लोग हर रोज़, कितना ज़हर अपने शरीर में जमा करते जा रहे हैं हिसाब लगाना संभव नहीं। रिपोर्ट के मुताबिक़ हर साल 3 लाख से अधिक लोग ज़हरीले रसायनों की वजह से मौत के मुंह में पहुंच जाते हैं। इस बाबत बहुत सारे क़ानून हर देश में मौजूद हैं, श्रम संगठन के सुझाव तो बहुत ही व्यापक हैं जो सिर्फ पढक़र खुश हो जाने के लिए ही हैं। अधिकतम मुनाफे की हवस के सामने कोई क़ानून कहीं नहीं ठहरता।

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Mazdoor Morcha
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