विजय सिंह एवं सत्यवीर सिंह पिछली सदी के अंत तक, फऱीदाबाद महानगर की पूर्वी सीमा, ‘दिल्ली आगरा नहर’ हुआ करती थी. 80 और 90 के दशक में, अर्थव्यवस्था के ‘सेवा उद्योग’ के क्षेत्र में आए उछाल से मिलने वाले लाभ के मामले में, फऱीदाबाद के साथ गुडगाँव की तुलना में दुहांत हुआ. इसीलिए पूंजीवादी चमक-दमक के मामले में इस पक्षपात का असर, दोनों महानगरों में साफ़ नजऱ आता है. ‘वस्तु उत्पादन उद्योग’ में आई मंदी भी इसका कारण रहा. इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में, फऱीदाबाद में एक महत्वाकांक्षी परियोजना बनी और ‘नहर पार’ क्षेत्र में हरियाणा सरकार ने, ‘हरियाणा शहरी विकास निगम (हुडा) के माध्यम से, कई गांवों की ज़मीन अधिग्रहित की और 24 नए सेक्टर (66 से 89) बनाए. ‘ग्रेटर फऱीदाबाद’ के नाम से अनेकों निर्माण योजनाओं पर काम शुरू किया. 66 से 74 सेक्टर औद्योगिक सेक्टर हैं, जबकि 75 से 89 आवासीय सेक्टर हैं.
इस सम्बन्ध में फरीदाबाद को ‘जवाहरलाल नेहरू शहरी विकास निगम (JnNURM) के तहत आवश्यक धन उपलब्ध हुआ. इस सदी के पहले ही दशक में, भयंकर पूंजीवादी संकट के फलस्वरूप आई, वैश्विक अभूतपूर्व मंदी ने, इन परियोजनाओं की खूबसूरती छीनकर, इन्हें कुरूप बना दिया. घिसट-घिसटकर सरक रही परियोजनाएं लंबित हुईं, कुछ बंद ही पड़ गईं. कितने ही बिल्डरों के दिवाले निकले, कुछ जेल में हैं. अपने घर का ख़्वाब देख रहे मध्यवर्ग के मुंगेरी ख़्वाब भी टूटकर बिखरे. जाने कितने अवसादग्रस्त हुए. फिर भी ‘नहर पार’ आज का नया, चमकता फऱीदाबाद है, इसमें दो मत नहीं.
कोई भी निर्माण हो, कैसा भी विकास हो, मज़दूरों के हाथों के बगैर नहीं होता, ये एक शाश्वत सत्य है. पूंजीवादी चमक-दमक, मज़दूरों का खून चूसकर ही आती है. इसी का नतीज़ा था कि जैसे-जैसे निर्माण परियोजनाएं ऊपर उठीं, मज़दूर बस्तियां भी बसनी शुरू हो गईं. इसी क्रम में बसी एक बस्ती है; ‘भारत नगर’, जो फऱीदाबाद के सेक्टर 87 में पड़ती है. सेक्टर 28 पर नहर के पुल से शुरू हुई, मास्टर रोड के दक्षिण में और खेड़ी रोड के उत्तर में, फैली विशाल मज़दूर बसाहत ‘भारत कॉलोनी’ कहलाती है. इसके अधिकतर निवासी निर्माण मज़दूर और निर्माण कार्य से जुड़े ‘स्व-व्यवसायी’ हैं, जिन्हें मज़दूरों की श्रेणी में रखा जाना ही उचित है, भले वे ख़ुद भी दो-चार मज़दूरों को मज़दूरी पर क्यों ना रखते हों. सीमांत किसानों की भांति, वे, मज़दूरों से भी ज्यादा श्रम करते हैं और उनके काम के घंटे भी तब तक रहते हैं, जब तक उनका शरीर साथ देता है. इस बस्ती के कुछ लोग, जिन्हें अपनी ज़मीनों का मुआवज़ा मिला था, बड़े आहातों वाले घरों में रहते हैं, और किसानी परंपरा के अनुसार गाय-भैंस भी पालते हैं. बिलकुल किसानी अंदाज़ में, वे, घर के दरवाज़े पर मूढा डालकर हुक्का गुडग़ुड़ाते रहते हैं.
जिस दिन ‘क्रांतिकारी मज़दूर मोर्चा’ की टीम भारत कॉलोनी गई थी, उसके 4 दिन पहले बहुत मामूली बूंदा- बांदी हुई थी. बस्ती में चलते हुए लगा, मानो भारी बारिश होकर बस अभी रुकी है. ‘सडक़’ पर पैदल चलने के लिए, लगातार उसके दाएं कोने से बाएँ कोने तक, सडक़ की चौड़ाई नापनी पड़ती थी. पानी के निकास की कोई व्यवस्था नहीं है. न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण नियम के अनुसार, पानी, समतल सडक़ पर वहीँ ठहरा रहता है, जो घर ऊँचे बने हैं, उनसे बहकर सडक़ पर, तथा जो नीचे बने हैं, सडक़ से उनकी दिशा में प्रवाहित होता रहता है.
सीवर की कोई व्यवस्था नहीं, इसलिए सडक़ पर सीवर के पानी के भी गड्ढे बन गए हैं, जो गन्दगी से बजबजाते रहते हैं. मच्छर और बिमारियों के कीटाणु फलते-फूलते रहते हैं. अगर आप सोच रहे हैं कि सडक़ पर चलना सिर्फ बरसात में ही दुश्वार होता है, तो आप ग़लत सोच रहे हैं. क्रांतिकारी जन-कवि ‘पाश’ की एक बहुत मक़बूल नज़्म की लाइन है, “सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना”. मज़दूर बस्तियों में सबसे खतरनाक होता है, नाली बनाने और चौड़ा करने के लिए सडकों को तोड़ा जाना और उसे वैसा ही छोडक़र, भूल जाना. भारत कॉलोनी की मुख्य सडक़ को फरवरी के महीने में तोड़ दिया गया था कि इसे चौड़ा किया जाएगा और सीवर लाइन बिछेगी. आज तक वो वैसी ही टूटी पड़ी है. निर्माण कार्य, नाम मात्र के लिए भी, कहीं शुरू नहीं हुआ है. क्या वज़ह है, किसी को नहीं मालूम. शायद नगर निगम चुनाव का इंतज़ार है. आखिर, चुनाव के वक़्त, डबल इंजन सरकार का विकास भी तो दिखाना है! नगर निगम में कोई फोन नहीं उठाता. यहाँ मिटटी थोड़ी रेतीली है, इसलिए हर वक़्त धूल उड़ती रहती है. सीवर के पानी की गन्दगी से पैदा हुए कीटाणुओं से भी अगर कोई बीमार ना पड़ रहा हो तो, उसकी इम्युनिटी उसके फेफड़ों में जमी धूल से टेस्ट हो जाएगी!!
भारत कॉलोनी, हनुमान नगर और इंदिरा कॉम्प्लेक्स एक साथ मिले हुए हैं, और इन बस्तियों की कुल जनसंख्या 40,000 से कम नहीं होगी. हालाँकि कुल कितने राशन कार्ड या वोटर कार्ड हैं, ये जानकारी नहीं मिल पाई. बस्ती की सबसे मूलभूत समस्या है; यहाँ नगर निगम के पानी की आपूर्ति है ही नहीं. क्या कोई सोच सकता है कि इतनी बड़ी बस्ती में पानी की सप्लाई नहीं है!!
अधिकतर घरों में सब-मरसिबल बोरिंग हैं. जिन लोगों की हैसियत, ऐसे खर्चीले बोरिंग कराने और निजी पंपसेट मोटर रखने की नहीं है, वे या तो पैसे देकर पानी खऱीदते हैं, या बोरिंग वालों की अप्रत्यक्ष, आंशिक गुलामी या बेगार झेलने को मज़बूर हैं.
पानी की ये व्यवस्था बहुत मंहगी है, 25,000 तक खर्च हो जाता है. दूसरी समस्या ये है कि ज़मीन का पानी लगातार प्रदूषित होता जा रहा है. पानी का प्रदूषण गहराई तक होता जा रहा है. इस पानी का अगर टेस्ट किया जाए तो गंभीर हानिकारक अवयव पाए जाएँगे, लेकिन ज़द्दोज़हद अगर किसी भी तरह आज जिंदा रहने की हो, तो धीमी मौत की परवाह कौन करे? जो बरदाश्त कर सकते हैं वे बिमारियों से बचाव के लिए 20 लीटर वाले बिसलेरी के केन खऱीदने को मज़बूर हैं.
एक मज़दूर साथी ने, जो वहां 15 साल से रह रहे हैं, क्रांतिकारी मज़दूर मोर्चा को बताया कि बस्ती में एक भी सरकारी स्कूल नहीं है. मज़दूरों के बच्चों को शिक्षा से क्या मतलब!!! तालीम नहीं पहुंची, लेकिन बस्ती में कई तरह के ‘भगवान’ पहुँच चुके हैं, और सभी आबाद हैं. ‘मातारानी के जगराते’ ज़ोर-शोर से होते हैं. मज़हबी ख़ुराक की कोई किल्लत नहीं. कोई सरकारी डिस्पेंसरी भी नहीं है. सामुदायिक केंद्र नहीं, बच्चों को खेलने के पार्क नहीं, सार्वजनिक शौचालय नहीं. इन सुविधाओं के लिए जन-जागरण करने वाले, सामाजिक-राजनीतिक संगठन भी नहीं. लोगों का गुस्सा वहीँ आपस में एक-दूसरे पर फूटता रहता है.
नहरपार के नए फऱीदाबाद, ग्रेटर फऱीदाबाद में, मॉडर्न दिल्ली पब्लिक स्कूल आया, कई चमचाते व्यवसायिक संस्थान आए, आधुनिक मार्केट, मॉल आए, ‘ओमेक्स वर्ल्ड स्ट्रीट’ आया, लेकिन मज़दूरों के हिस्से वही गन्दी झोपडिय़ाँ, धूल उड़ाती टूटी सडक़ें, बजबजाती नालियों पर मच्छरों के बादल और कीटाणु ही आए. 2600 बिस्तर वाले एशिया के सबसे बड़े ‘अमृता अस्पताल’ का उद्घाटन 28 अगस्त को मोदी जी ने यहीं पास में किया था. लोग उसे ‘मोदी हॉस्पिटल’ बोलने लगे हैं. वहां ओपीडी में अब तक शुल्क तो कम है, 276 रुपये, लेकिन परीक्षणों के पैसे अलग से लिए जाते हैं. मज़दूर इसीलिए उससे दूर ही रहते हैं. ओपीडी फ़ीस भी क्या पता, दूसरे अस्पतालों के ग्राहक तोडऩे के लिए ही अभी कम है, जैसे जिओ ने शुरू में बहुत सस्ती मोबाइल सेवा उपलब्ध कराई थी, आज पिछला भी वसूल रहा है. वहां का स्टाफ़ कहने लगा है कि अगले साल से यहाँ की फ़ीस भी बाज़ार से ही तय होगी.
नागरिक सुविधाएँ नहीं हैं, आप लोग लड़ते क्यों नहीं? इस सवाल का जवाब ये मिलता है कि सरकार कहती है कि ‘ये कॉलोनी अवैध है’. लम्बी-लम्बी, बे-सिरपैर की छोडऩे वाले, लच्छेदार डींगें हांकने वाले हुक्मरानों से कोई पूछे कि सारे देश में कोई जगह बताई जाए, जहाँ देश की 100 करोड़ मेहनतक़श आबादी अपना वैध घर बना सके. ‘जहाँ झुग्गी, वहीँ पक्का घर’ जुमला तो चुनावों के सीजन के लिए आरक्षित है. शहरों की तो छोडिए, वहां तो मध्य वर्ग भी मकान नहीं खरिद सकता, सुदूर गाँव में भी रहने लायक़ पक्का ‘वैध’ घर बनाने की हैसियत मज़दूरों की नहीं रही. ये लोग क्या करें? कहाँ जाएँ? इन सवालों के जवाब, मज़दूरों के घरों को ‘अवैध’ बताने वाले हुक्मरानों के गिरेहबान में हाथ डालकर पूछे जाने चाहिएं. वह, लेकिन, तब ही संभव होगा जब मज़दूर संगठित होंगे, जागरुक होंगे, वर्ग चेतना से लैस होंगे. और वह जल्दी ही होगा.