फरीदाबाद (म.मो.) दिनांक 11 जुलाई को बडख़ल स्थित ग्रे फाल्कन में आयोजित प्रेसवार्ता में स्थानीय सांसद एवं केन्द्रीय मंत्री कृष्णपाल गूजर ने, भ्रष्टाचार में आरोपित तथा गिरफ्तारी से बचने के लिये फरार चल रहे धनेश अदलखा को ईमानदार एवं पाक-साफ होने का प्रमाणपत्र देते हुए कहा कि वे उन्हें बीते 15-20 साल से जानते हैं। इस दौरान वे दो बार खुद व एक बार उनकी माताजी पार्षद रही हैं। आज तक किसी ने भी उनके खिलाफ किसी काम के बदले दो रुपये लेने तक कि शिकायत उन्हें नहीं की।
उनका यह जवाब दैनिक जागरण के स्थानीय ब्यूरो चीफ सुशील भाटिया के उस सवाल पर था जिसमें उन्होंने पूछा था कि अदलखा के विरुद्ध दर्ज हुई एफआईआर पर उनका क्या कहना है? कृष्णपाल ने उक्त जवाब के अतिरिक्त एफआईआर की व्याख्या करते हुए कहा कि एफआईआर तो केवल, पुलिस को दी गई प्रथम सूचना मात्र होती है। इसे कोई भी किसी के खिलाफ दर्ज करा सकता है। इसके दर्ज होने से कोई दोषी नहीं बन जाता। अपनी बात को और अस्पष्ट करते हुए मंत्री महोदय ने कहा कि मैं तुम्हारे खिलाफ और तुम मेरे खिलाफ एफआईआर दर्ज करा सकते हो।
दोषी-निर्दोषी तो तफ्तीश के बाद ही पता चलता है। इसके लिये विजिलेंस वाले अपनी कार्रवाई कर रहे हैं। उन्हें पूरी पावर है कि वे तथ्यों की छान-बीन के आधार पर किसी के दोषी या निर्दोष होने का निर्णय करें।
एफआईआर को लेकर कृष्णपाल द्वारा कही गई बात अर्ध सत्य है। वे तो जिसके खिलाफ चाहें झूठी एफआईआर भी दर्ज करा सकते हैं जबकि उनके विरुद्ध तो कोई सच्ची एफआईआर भी आसानी से दर्ज नहीं करा सकता। वैसे भी किसी आम आदमी द्वारा थाने में एफआईआर दर्ज कराना आसान नहीं है। चोरी एवं छीना-झपटी की वारदात को कोई भी पुलिस वाला आसानी से दर्ज नहीं करता। इस तरह की वारदात को गुमशुदगी में दर्ज करने का प्रयास किया जाता है।
प्रभावशाली लोगों द्वारा झूठी एफआईआर दर्ज कराकर किसी भी अच्छे भले आदमी का उत्पीडऩ पुलिस के द्वारा कराया जाना आम बात है। इसका ताज़ा तरीन उदाहरण ऑल्ट न्यूज़ के पत्रकार मोहम्मद जुवैर सामने हैं। खुद इस अखबार के सम्पादक सतीश कुमार के विरुद्ध 14 अगस्त 2019 को एक झूठी एफआईआर दर्ज करा कर उनका उत्पीडऩ करने का प्रयास इन्हीं मंत्रीजी की पुलिस ने किया था जिसे हाईकोर्ट ने विफल कर दिया था।
रही बात अदलखा द्वारा किसी से भी दो रुपये न लेने की तो सर्वविदित है कि उस जैसे सत्ता के लाडले दो-दो रुपये लेने वाले काम नहीं किया करते, ऐसे लोग मोटे-मोटे माल मारते हैं। नगर निगम के फाइनेंस कमेटी में कहने को तो मेयर चेयरमेन होती है परन्तु वास्तविक चेयरमेन अदलखा ही होते थे। अपनी इस सख्ती का जम कर दुरुपयोग करते हुए निगम को इन्होंने दोनों हाथों से लूटा है। नगर के अनेकों पार्कों की देख-रेख का ठेका इन्होंने अपने साले को दिला रखा है जो इसकी आड़ में जमकर लूट कमाई कर रहा है।
फार्मेेसी की लूट-कमाई का भांडा तो चौड़े में फूट ही चुका है। जिन्होंने मोटी रिश्वतें इन्हें दी हैं वे तो सामने आ ही चुके हैं, इसके अलावा वे अनेकों लोग भी सामने आने लगे हैं जो इनको रिश्वत न दे सकने की वजह से फार्मेसिस्ट का लाइसेंस प्राप्त न कर सके और नौकरी हाथ से निकल गई।
समझने वाली बात यह है कि आखिर यह सरकार ने लाइसेंस की दुकानदारी खोल ही क्यों रखी है? जिस संस्थान से कोई भी फार्मेसिस्ट का कोर्स पास कर लेता है तो वहां का दिया हुआ प्रमाणपत्र ही पर्याप्त क्यों नहीं समझा जाता? अगर सरकार को जांच ही करनी है तो ऐसे कोर्स कराने वाले संस्थानों की जांच क्यों नहीं कराते? इतना ही नहीं हर पांच साल के बाद लाइसेंस के रिन्यूअल का मतलब केवल और केवल लूट कमाई ही नहीं तो और क्या है?