मै मंदिर मे बैठा था वो मस्जिद में बैठी थी. मै पंडित जी का बेटा था वो काजी साहब की बेटी थी. मै बुलेट पर चल कर आता था. वो बुरखे मे गुजरती थी. मै कायल था उसकी आंखों का. वो मेरी नजर पर मरती थी. मै खड़ा रहता था चौराहे पर वो भी छत पर चढ़ती थी. मै पूजा कर आता था मजारो की वो मंदिर में नमाज पढ़ती थी. वो होली पे मुझे रंग लगाती मै ईद का जश्न मनाता था. वो वैश्णो देवी जाती थी मै हाजी अली हो आता था. वो मुझको कुरान सुनाती मै उसको वेद समझाता था. वो हनुमान चालीसा पढ़ती थी मै सबको अज़ान सुनाता था । उसे माँगता था मैं मेरे रब से वो अल्लाह से मेरी दुआ करती थी. ये सब उन दिनो की बात है, जब वो मेरी हुआ करती थी? फिर इस मजहबी इश्क का ऐसा अंजाम हुआ. वो मुसलमानों में हो गई। मै हिन्दुओ में बदनाम हुआ. मै मंदिर मे रोता था । वो मस्जिद में रोती थी. मै पंडित जी का बेटा था. वो काजी साहब की बेटी थी.. रोते – रोते हम लोगों की तब शाम ढला करती थी.. अपने अब्बू से छुप कर वो मस्जिद के पीछे मिला करती थी। मैं पिघल जाता था बर्फ सा वो जब भी छुआ करती थी। ये सब उन दिनो की बात है जब वो मेरी हुआ करती थी.. कुछ मजहबी कीड़े आ कर हमारी दुनिया उजाड़ गए. जो खुदा से न हारे थे. वो खुदा के बंदो से हार गए.. जीतने की कोई गुंजाइश न था मै इश्क की हारा बाजी था.. जो उसका निकाह कराने आया था वो उसी का बाप काजी था. जो गूंज रही थी मेरे कानो में वो उसकी शादी की शहनाई थी.. मै कलियां बिछा रहा था राहो में आज मेरी जान की विदाई थी. मै वही मंदिर में बैठा था. पर आज वो डोली में बैठी थी.. मै पंडित जी का बेटा था.. वो काजी साहब की बेटी थी… – साइबर नजर