महिला क्रांतिकारियों की गौरवशाली विरासत की वीरांगना, दुर्गा भाभी को लाल सलाम ‘दुर्गा भाभी महिला मोर्चा’ संगठन का उदय

महिला क्रांतिकारियों की गौरवशाली विरासत की वीरांगना, दुर्गा भाभी को लाल सलाम ‘दुर्गा भाभी महिला मोर्चा’ संगठन का उदय
October 01 12:09 2023

क्रांतिकारी मज़दूर मोर्चा

इलाहाबाद अदालत के कर्मचारी पंडित बांके बिहारी के घर 7 अक्टूबर 1907 को एक बच्ची का जन्म हुआ, नाम रखा गया दुर्गावती देवी। जन्म के कुछ ही दिनों बाद बच्ची की मां चल बसीं। ग़मगीन बांके बिहारी जी ने घर-द्वार छोड़, सन्यास ले लिया। बच्ची दुर्गावती देवी की परवरिश उनकी मौसी के घर हुई। दुर्गावती देवी 11 साल की थीं कक्षा 5 में पढ़ रही थीं कि उनकी शादी लाहौर निवासी भगवतीचरण वोहरा से हो गई। दुर्गावती ने शादी के बाद भी पढाई जारी रखी। भगवती चरण वोहरा नेशनल कॉलेज लाहौर में पढ़ते थे और छात्र राजनीति में भाग लेते थे। उनके सहपाठी थे भगतसिंह, सुखदेव और यशपाल। चारों के लक्षण समान थे दोस्ती होने में फिर क्या देर लगनी थी। दोस्तों का आना-जाना भगवती चरण वोहरा के घर शुरू हो गया। दुर्गावती देवी से परिचय हुआ। मु_ीभर अंग्रेज़ इतने बड़े मुल्क पर राज कर रहे हैं लानत है ऐसी जिंदगी पर। भगवती का घर गरमागरम राजनीतिक चर्चा का अड्डा बन गया था जिसमें दुर्गावती देवी को भी रस आने लगा। भगवती चरण और भगतसिंह दोनों ख़ूब पढ़ाकू थे, बातों को तकऱ्पूर्ण ढंग से रखते थे। दुर्गावती देवी उनसे सहमत होती चली गईं। सभी नौजवान क्रांतिकारी उन्हें भाभी बुलाते थे इसलिए दुर्गावती देवी बन गईं ‘दुर्गा भाभी’। चौरी-चौरा कांड के बाद गांधी जी द्वारा असहयोग आंदोलन वापस लेने के फैसले से झल्लाकर रामप्रसाद बिस्मिल, शचीन्द्रनाथ सान्याल और लाला हरदयाल ने 1923 में ‘हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन/आर्मी (एचआरए)’ का गठन किया जिसमें युवा क्रांतिकारी जुड़ते चल। क्रांतिकारी राजनीति की ज्योति जलाने के लिए अमृतसर निवासी डॉ. सत्यपाल के साथ चर्चा कर मार्च 1926 में भगतसिंह और भगवती चरण वोहरा ने नेशनल कॉलेज लाहौर में ‘नौजवान भारत सभा’ का गठन किया। दुर्गा भाभी भी उसमें शरीक थीं। एनबीएस का प्रख्यात घोषणापत्र भगतसिंह और भगवतीचरण वोहरा ने मिलकर तैयार किया था। 1926 में ही दुर्गा भाभी ने लाहौर में ग़दर पार्टी के महान क्रांतिकारी करतार सिंह सराभा की शहादत की 11 वीं बरसी भी धूमधाम से मनाई थी।

माक्र्सवाद-लेनिनवाद और बोल्शेविक क्रांति से प्रेरणा पाकर इसी क्रांतिकारी टोली ने 8-9 सितम्बर 1928 को दिल्ली के फिऱोज़शाह कोटला में सभा कर एचआरए में ‘सोशलिस्ट’ शब्द जोडक़र, ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ बना दिया। दुर्गा भाभी सभी राजनीतिक गतिविधियों और कार्यक्रमों में नियमित और सक्रिय भागीदारी करने लगीं। उन्हें पार्टी का ‘प्रचार सचिव’ चुना गया।

अंग्रेज़ पुलिस एसपी, जेम्स स्कॉट के हुक्म से ‘साइमन कमीशन’ का विरोध कर रहे कांग्रेसियों पर बर्बर लाठी चार्ज हुआ जिसमें घायल लाला लाजपत राय 17 नवम्बर 1928 को चल बसे। ‘लाला लाजपत राय की मौत का बदला लिया जाएगा, जेम्स स्कॉट को हम सज़ा देंगे’, युवा और जोशीले क्रांतिकारियों की पार्टी, एचएसआरए का यह पहला बड़ा राजनीतिक फैसला था। लाला जी की मृत्यु के एक महीने बाद 17 दिसंबर 1928 को भगतसिंह और राजगुरु ने एसपी जेम्स स्कॉट समझकर एएसपी जॉन सॉंंडर्स को गोली मार कर पार्टी के फैसले को अंजाम दे दिया। जॉन सॉंडर्स को मारने के बाद भगतसिंह और राजगुरु सीधे दुर्गा भाभी के घर पहुंचे। अँगरेज़ पुलिस अधिकारी की हत्या से हडक़ंप मच गया। दुर्गा भाभी के घर उन्हीं के द्वारा भगतसिंह का मुंडन हुआ। हेट पहनकर वे बन गए ‘जेंटलमैन’ भगतसिंह। अपने कॉमरेड की जान बचाने के लिए दुर्गा भाभी बनीं भगतसिंह की पत्नी और राजगुरु उनके नौकर।

इस तरह वे तीनों लाहौर से पहुंच गए लखनऊ। भगवती चरण वोहरा पार्टी के काम से कलकत्ता में अपनी बहन सुशीला के घर थे। सुशीला भी बाद में महान क्रांतिकारी बनीं। लखनऊ से भगतसिंह ने भगवती चरण वोहरा को तार भेजा, ‘वे मैडम दुर्गावती जी के साथ आ रहे हैं’। कौन ‘मैडम दुर्गावती’, भगवती कुछ नहीं समझ पाए!! कलकत्ता स्टेशन पर वे बहुत खुश होकर बोले, “मैंने तुम्हें आज समझा है। तुम सचमुच एक क्रांतिकारी हो दुर्गा, तुम पर मुझे नाज़ है।”

अंग्रेज़ शासकों ने मज़दूरों और आज़ादी आंदोलन की आवाज़ कुचलने के लिए ‘पब्लिक सेफ्टी बिल’ और ‘ट्रेड डिस्प्यूट बिल’, दो काले क़ानून पास कराने की योजना बनाई। एचएसआरए ने इनका तीखा विरोध किया। 8 अप्रैल, 1929 को दिल्ली केन्द्रीय असेंबली में ये बिल पास होने थे। ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन’ ने फैसला किया, उसी वक़्त भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त असेंबली में बम फेंकेंगे क्योंकि ‘बहरों को सुनाने के लिए धमाकों की ज़रूरत होती है’। उससे एक दिन पहले 7 अप्रैल को सारे शीर्ष क्रांतिकारी अपने प्रिय कामरेडों भगतसिंह और राजगुरु को विदाई देने दिल्ली के कुदेसिया पार्क में गोपनीय तरीक़े से मिले ‘पता नहीं बाद में मुलाक़ात हो या ना हो’।

क्रांतिकारियों की उस टीम में, दुर्गा भाभी और सुशीला भी थीं। भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त को उन्होंने उनके पसंद का खाना खूब सारे रसगुल्ले और संतरे खिलाए। सुशीला ने अपना अंगूठा चीरकर खून से भगतसिंह और बटुकेश्वर को तिलक लगाकर मिशन के लिए क्रांतिकारी शुभाकामनाएं दीं। भगतसिंह उसके बाद जेल से बाहर नहीं आए। भगतसिंह और बटुके श्वर दत्त जब बम छुपाकर असेंबली के अंदर गए उसी वक़्त से भगवतीचरण वोहरा, सुशीला, दुर्गा भाभी और 4 साल का उनका छोटा बच्चा, शची (शचीन्द्रनाथ वोहरा) किराए के तांगे में असेंबली के बाहर चक्कर लगा रहे थे। भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त को गिरफ्तार कर जब पुलिस ले जा रही थी तांगे में बैठे वे लोग, उन्हें देख रहे थे। बच्चा शची चीख पड़ा ‘वो देखो लंबा वाला चाचा’। पुलिस जल्दी में थी इसलिए वे बच गए।

अंग्रेज़ों की हिंसा का मुक़ाबला करने के लिए हथियार चाहिएं इसीलिए भगवतीचरण वोहरा बम बनाना सीखकर दुर्गा भाभी को भी सिखा रहे थे। लाहौर में, ‘कश्मीर हाउस’ नाम की बिल्डिंग में भगवतीचरण वोहरा ने एक कमरा किराए पर लेकर उसे बम फैक्ट्री में बदल डाला था कि पुलिस को भनक लग गई। पुलिस के छापे में सुखदेव, जयगोपाल (गद्दार) और किशोरीलाल गिरफ्तार हो गए। भगवतीचरण वोहरा वहां नहीं थे इसलिए बच गए उसके बाद उन्हें फऱार ही रहना पड़ा।

भगवतीचरण वोहरा अमीर घर से थे। उनके अज़ीज़ दोस्त कॉमरेड रामचंद्र ने लिखा है कि दुर्गा भाभी ने हर क्रांतिकारी को बचाने की और उनके परिवारों की आर्थिक मदद की। दुर्गा भाभी ख़ुफिय़ा जानकारियां एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाती थीं इसलिए उनका ख़ुफिय़ा नाम था ‘लेटर बॉक्स’। अपनी पार्टी के लिए हथियार जुटाने का काम भी उन्होंने किया। 1929 में भगवतीचरण वोहरा ने यशपाल के साथ मिलकर अंगरेज़ वायसराय की बग्गी पर बम फेंका था। भगतसिंह को जेल से अदालत ले जाए जाते वक़्त छुड़ा लेने की योजना भी चंद्रशेखर आज़ाद, भगवतीचरण वोहरा, वैशम्पायन, सुखदेवराज, दुर्गा भाभी और सुशीला ने बनाई लेकिन कामयाबी नहीं मिली।

एक और दिलचस्प बात का यहां जिक़्र होना ज़रूरी है। चौरी-चौरा में हुई हिंसा के बहाने देशभर में लोकप्रिय होते जा रहे असहयोग आंदोलन को वापस लेने के महात्मा गांधी के फ़ैसले के बाद उनकी लोकप्रियता गिरती जा रही थी। दूसरी ओर क्रांतिकारियों की ओर जन-मानस खिंचता जा रहा था। गांधी जी को टेंशन हुई कहीं ऐसा ना हो कि आज़ाद भारत की सत्ता सरमाएदारों के हाथों में जाने की बजाए क्रांतिकारियों के माध्यम से मज़दूरों, मेहनतक़श किसानों के हाथ में चली जाए। अंग्रेज़ों के साथ ही कहीं पूंजी का राज भी न चला जाए।

इसीलिए, ‘क्रांतिकारी हिंसा करते हैं’, गांधी ने देश भर में ये प्रचार करना शुरू किया और उनकी आलोचना करते हुए, एक लेख लिखा; ‘बम का पंथ (कल्ट ऑफ बम)’।
भगवतीचरण वोहरा को उसका उत्तर देने को कहा गया। अपने ऐतिहासिक लेख ‘बम का दर्शन (फिलॉस्फी ऑफ बम) में वे लिखते हैं; “कोई ऐसा अत्याचार नहीं जो अंग्रेज़ साम्राज्यवादी लुटेरों ने हम पर न ढाया हो। अपने कुशासन में अंग्रेजों ने हमें जान-बूझकर कंगाल बना डाला है। हमारा खून निचोड़ा जा रहा है। हम और हमारी क़ौम घोर जि़ल्लत झेलने को मज़बूर हैं। हमें रौंदा जा रहा है। क्या वे चाहते हैं कि हम सब भूल जाएं और माफ़ कर दें? ज़ालिम की ज़ुल्मत को रोकना और अन्याय का बदला लेना हर जिंदा इंसान का फज़ऱ् है। कायरों को अंग्रेज़ों के पैर पकडऩे दो, शांति की भीख मांगने दो, गिड़गिड़ाने दो। हम उन से रहम की भीख नहीं मांगेंगे। हम उन्हें लूट की इज़ाजत नहीं देंगे। आखिऱ तक लड़ेंगे, जीतेंगे या शहीद हो जाएंगे.”

लाहौर जेल में, 63 दिन तक भूख हड़ताल के बाद 13 सितम्बर 1929 को शहीद हुए यतींद्र नाथ दास का मृत शरीर दुर्गा भाभी के सुपुर्द किया गया था। उन्हीं के नेतृत्व में जतिन दा की अंतिम यात्रा पहले लाहौर में निकली और बाद में उनका मृत शरीर लाहौर से कलकत्ता ट्रेन द्वारा लाया गया। पूरे रास्ते में लोग हाथों में फूल लिए उस रेलगाड़ी का इंतजार करते खड़े रहे। रेलगाड़ी पर फूल वर्षा करते रहे। कानपुर स्टेशन पर गणेश शंकर विद्यार्थी के नेतृत्व में अपार भीड़ जमा थी। सारा कलकत्ता सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में अपने लाडले सपूत को सम्मान प्रकट करने उमड़ पड़ा था।

28 मई 1930 को भगवतीचरण वोहरा रावी नदी के किनारे जंगल में, बम का परीक्षण कर रहे थे कि अचानक बम फट गया। वे शहीद हो गए। पति की क्षत-विक्षत लाश पर भी दुर्गा भाभी मातम नहीं मना पाईं क्योंकि पुलिस असलियत जान चुकी थी कि साधारण दिखने वाली यह महिला असाधारण क्रांतिकारी वीरांगना है। पति की मृत्यु के बाद दुर्गा भाभी लगभग 3 सप्ताह अपनी ननद और पार्टी सदस्य सुशीला के साथ लाहौर से प्रकाशित, ‘द ट्रिब्यून’ के संपादक राणा जंग बहादुर के घर छिपी रहीं। किसी को मालूम ना हो इसलिए वे एक रात बुकऱ्ा ओढक़र उनके घर से निकल गईं। फिर लाहौर की अपनी सहेली श्रीदेवी मुसद्दी के घर पहुंचीं। एक महीना वहां रही। वे पुलिस और ख़ुफिय़ा एजेंसियों के रडार पर आ चुकी थीं।
अब दुर्गा भाभी ने लाहौर छोड़ दिया और बॉम्बे (मुंबई) चली गईं। 7 अक्टूबर 1930 को लाहौर की अदालत ने भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी की सज़ा सुनाई। दुर्गा भाभी उस दिन बॉम्बे में थीं। जैसे ही उन्हें अदालत के इस फैसले का पता लगा उन्होंने तय किया कि अंग्रेज़ जजों की इस हिमाक़त का बदला लिया जाएगा। अगले ही दिन 8 अक्टूबर 1930 को अपने दो कामरेडों पृथ्वी सिंह और सुखदेवराज के साथ तय किया कि बॉम्बे के गवर्नर ज्योफरी डी मोंटमोरेंसी को क़त्ल कर अंग्रेज़ों को बताया जाएगा कि क्रांतिकारियों को फांसी की सज़ा सुनाने का क्या मतलब होता है। मालाबार स्थित उसके बंगले के सुरक्षा गार्ड ने लेकिन उन्हें बंगले में नहीं जाने दिया।

वे तीनों टैक्सी से वापस लौट रहे थे कि लेमिंगटन रोड पुलिस स्टेशन के सामने एक अंगरेज़ जोड़ा खड़ा नजऱ आया। चलो गवर्नर नहीं तो ये ही सही। उन पर गोलियां दाग दीं, हालांकि उनकी जान बच गई। अंग्रेज़ गवर्नर ने बॉम्बे पुलिस को हुक्म सुनाया कुछ भी करो लेकिन अपराधियों को उठाकर लाओ। पुलिस ने उस टैक्सी को ढूंढ निकाला जिससे गोलियां दागी गई थीं। ड्राईवर जेबी बापट से पुलिस ने 5 दिन तक पूछताछ की मतलब टार्चर किया। उसने बताया कि गाड़ी में 3 व्यक्ति थे जिनमें पुरुष की खद्दर की पोशाक में एक महिला भी थी जिसे वे ‘भाभी’ बुला रहे थे।

दुर्गा भाभी बांम्बे से लाहौर आ गईं। वे पुलिस और ख़ुफिय़ा विभाग को न सिफऱ् चक़मा देती रहीं बल्कि फांसी से पहले उन्होंने भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव को अदालत जाते वक़्त बचाने का एक और प्रयास किया जिसके लिए उन्होंने अपने गहनों समेत सब कुछ बेच दिया लेकिन उन्हें क़ामयाबी नहीं मिली। दुर्गा भाभी की ही दहशत थी कि भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव को अदालत द्वारा तय वक़्त 24 मार्च 1931 सुबह 6:30 बजे से 11 घंटे पहले 23 मार्च 1931 की शाम 7:30 बजे फांसी दी गई। अंग्रेज़ जान चुके थे कि फांसी से पहली रात जेल पर धावा बोलने से वे दुर्गा भाभी को रोक नहीं पाएंगे। भगतसिंह को फांसी से बचाने के लिए ये देश कुछ भी कर सकता है।

23 मार्च को भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव की फांसी के बाद दुर्गा भाभी ने बदला लेने की क़सम खाई। पंजाब के भूतपूर्व गवर्नर लार्ड हैली क्रांतिकारियों पर ज़ुल्म करने के लिए कुख्यात थे। दुर्गा भाभी ने उन्हें ठिकाने लगाने के लिए गोली चलाई लेकिन वह बच गया। इस बार दुर्गा भाभी गिरफ्तारी से नहीं बच पाईं उन्हें 3 साल की जेल हुई।

आज़ादी के बाद देसी सरमाएदारों ने अंग्रेज़ों की जगह ले ली। औपनिवेशिक-सामंती लूट की जगह लूट की छूट अब पूंजी को मिली। अमर क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त का हाल वे जान ही चुकी थीं जिन्होंने पटना में साइकिल पर बिस्कुट बेचकर अपना पेट भरा। अंत में दिल्ली के एम्स में उनका ईलाज भगतसिंह की माता जी श्रद्धेय विद्यावती देवी जी ने कराया।

आज़ादी मिलने के बाद 41 वर्षीय दुर्गा भाभी अपने बेटे, सचींद्र वोहरा के साथ ग़ाजिय़ाबाद और लखनऊ में रहीं। उनके पास जो भी ज़मीन थी वह उन्होंने ‘शहीद शोध संस्थान’ को दान दे दी। लखनऊ के पुराना कि़ला क्षेत्र में गऱीब बच्चों का स्कूल खोला। 15 अक्टूबर 1999 को 92 वर्ष की उम्र में गाजिय़ाबाद में उन्होंने अंतिम सांस ली।

ये है हमारे देश की महिलाओं की गौरवशाली क्रांतिकारी विरासत। ज़ुल्म और अन्याय के विरुद्ध बेख़ौफ़ डट कर खड़े हो जाना कितनी भी विपरीत परिस्थिति में हार न मानना, अपने उसूलों पर चट्टान की तरह डटे रहना; बहुत ही विलक्षण प्रेरणादायक व्यक्तित्व है दुर्गा भाभी का। आज परिस्थितियां बदल चुकी हैं लेकिन ज़ुल्म और अन्याय वैसा ही है। पूंजीवाद में लडऩे का वह तरीका नहीं होता जो औपनिवेशिक शासक-सामंती गठजोड़ के विरुद्ध, 1947 से पहले था। आज ज़रूरत है शोषित-पीडि़त वर्ग को उनके जीवन-मरण के सवालों पर संगठित जन-आंदोलन खड़े करने की। मज़दूरों-मेहनतक़शों को फिऱकापरस्त जमात की पैदल सेना बनने से रोकने की मज़दूरों में वर्ग चेतना जगाने की जिससे अटूट फ़ौलादी एकता के बल पर वे पूंजी से हमेशा के लिए मुक्ति की जंग जीत सकें। महिलाओं की सचेत भागीदारी के बिना कोई मुक्ति आंदोलन क़ामयाब नहीं हो सकता। इसी मक़सद से “दुर्गा भाभी महिला मोर्चा” वज़ूद में आया है। समाज की सभी जागरुक, इंसाफ-पसंद, संघर्षशील महिलाओं से अपील है हमारा साथ दें।

प्रेमचंद की ये सीख संगठन की सोच का आधार है। “लोग कहते हैं आंदोलन प्रदर्शन और जुलुस निकालने से क्या होता है..? इससे यह सिद्ध होता है कि हम जीवित हैं, अटल हैं और मैदान से हटे नहीं हैं..! हमें अपने हार न मानने वाले स्वाभिमान का प्रमाण देना था..! हमें यह दिखाना है कि हम गोलियों और अत्याचारों से भयभीत होकर अपने लक्ष्य से हटने वाले नहीं और हम उस व्यवस्था का अंत करके रहेंगे, जिसका आधार स्वार्थीपन और खून पर है..!”

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Mazdoor Morcha
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