‘अगर कोई सरकार, जनता को उसके बुनियादी अधिकारों से वंचित रखती है तो जनता का ये अधिकार ही नहीं बल्कि कर्तव्य बन जाता है कि ऐसी सरकार को उखाड़ फेके’ शहीद-ए-आजम भगतसिंह मज़दूर मोर्चा ब्यूरो महिलाओं को सम्मान और बराबरी का दर्जा कांग्रेस-शासन में भी कहीं नहीं मिला, कैसे मिलेगा? कांग्रेस भी तो,सत्ताधारी सरमाएदार वर्ग की ताबेदार है। बलात्कारियों-हत्यारों, जोर-जबर-जुल्म करने वालों को लेकिन, सत्ता का ऐसा संरक्षण कभी नहीं मिला जैसा पूरी निर्लज्जता और बेहयाई से मौजूदा फासिस्ट मोदी सरकार में मिल रहा है। बिलकीस बानो के गर्भस्थ बच्चे और परिवारजनों के हत्यारे-बलात्कारी हों या निर्भीक जन-पत्रकार रामचंद्र छत्रपति का हत्यारा और मासूम बच्चियों का बलात्कारी पाखंडी राम रहीम हो, या फिर देश का गौरव बढ़ाने वाली महिला खिलाडिय़ों का यौन शोषण करने वाला बृज भूषण शरण सिंह; हर बलात्कारी, हत्यारा मोदी का परिवार है।
मणिपुर की महिलाओं के साथ जो हुआ सोचकर, खून खौलता है, सर शर्म से झुक जाता है। डींगें हांकने वाला, झांसेबाज़ प्रधानमंत्री वहां जाने का साहस आज तक नहीं जुटा पाया। जिस बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में प्रधानमंत्री अमृत काल’ और ‘राम-राज’ की लफ्फाजी कर रहे थे, उसी कैंपस में मोदी के परिवार के 3 भाजपाई गुंडों ने सरेआम छात्राओं को जलील किया, यौन शोषण किया वह सब प्रधानमंत्री को याद नहीं आया।
‘गुजरात मॉडल’ दरअसल है क्या? इसकी कलई पिछले महीने ही खुली जब गुजरात उच्च न्यायलय ने गुजरात सरकार को लताड़ते हुए कहा कि अहमदाबाद कानून विश्वविद्यालय में सालों से महिलाओं पर हो रहे बलात्कार और यौन शोषण की जघन्य वारदातों को छुपाया क्यों जा रहा है? संवैधानिक नागरिक अधिकारों, श्रम कानूनों लिए लडऩे वाले कार्यकर्ता, पत्रकार सालों-साल जमानत को तरसते हैं, जेलों में सड़ते हैं! वहीं बलात्कारी-हत्यारा, उम्र कैद सजायाफ्ता राम रहीम हर दूसरे महीने जेल से परोल पर छोड़ा जाता है। जेड प्लस सुरक्षा के घेरे में शहंशाही ठाट-बाट से घूमता है। ये कैसा शासन है कैसा इंसाफ है? नंगई का ऐसा घिनौना मंजऱ कभी नहीं रहा, ‘बेटी पढ़ाओ-बेटी बचाओ’ नारा मानो बच्चियों को हुकूमत में बैठे गिद्धों से बचाने की पुकार हो!
हर फासिस्ट ऐसा ही करता है। दमन-उत्पीडऩ के दम पर कॉर्पोरेट की नंगी लूट का एक हिस्सा हासिल कर मीडिया, विधायकों-सांसदों को खरीदकर, लोगों को गुलाम बनाकर, भेड़ों की तरह हांकने के मंसूबे पालने वालों को दबे-कुचले लोगों के विद्रोहों, कुर्बानियों का इतिहास पढऩा चाहिए। इनके पूर्वज हिटलर-मुसोलिनी का क्या हश्र हुआ था, जानने की जरूरत है।
हमारे देश में बदकिस्मती से महिलाओं को ‘देवी’ बोलकर गुलाम, दासी बनाने का रोग बहुत पुराना है। उन्हें पति की चिता में जिंदा धकेला जाता रहा है। आज यही काला अध्याय दोहराने की हिमाकत हो रही है। मजदूरों-मेहनतकश किसानों पर चौतरफा हमले हो रहे हैं। मजदूर बस्तियों को उजाड़ा जा रहा है। बे-इन्तेहा कुर्बानियों से हासिल उनके अधिकार लूटे जा रहे हैं। मेहनक़श कमेरा वर्ग इकठ्ठा न हो जाए इसलिए उन्हें बेशर्मी के साथ दिन-रात धर्म-मज़हब की अफीम चटाई जा रही है। नशाखोरी और अश्लीलता चरम पर है। इस घटाटोप अंधेरे में लेकिन, कुछ बहुत अच्छा भी हो रहा है।
आज किसी को भी ये समझाने की जरूरत नहीं रही कि सत्ता, सरमाएदारों की मुंशीगिरी करती है। ये हक़ीक़त भी सब जान चुके हैं कि मौजूदा लोकतंत्र के सभी तथाकथित खंभे मीडिया, प्रशासन, विधायिका और न्यायपालिका मुठ्ठीभर कॉर्पोरेट के इशारों पर नाचते हैं। चुनाव जीतकर कुछ नहीं होने वाला यह बात बहुत दूर तक जाने की संभावनाएं रखती है जिसे समझाने में बहुत मशक्कत करनी होती थी। मुगालतों के ग़ुबार छंटते ही नजर साफ हो जाती है। वर्ग-चेतना तत्काल मजबूत होने लगती है। हुकूमत की नंगी तानाशाही के बावजूद हिन्दू- मुस्लिम आपस में लडऩे से इनकार कर रहे हैं। मेहनतकश अवाम की एकता फौलादी बनती जा रही है। किसान-मजदूर इस तरह लाठी-गोली के सामने सीना तानकर डट जाएंगे किसने सोचा था? नए विहान की लालिमा नजर आ रही है। इंकलाब महिलाओं की भागीदारी के बिना कामयाब नहीं हो सकता, महिलाएं ये सच्चाई जान चुकी हैं।