मनीषा पांडे “लड़कियों को डिस्को करते देख शिक्षक का मन ऊब गया बोला, सूरज को देखो, पश्चिम में गया तो डूब गया.” 1994 में मेरी कन्या पाठशाला की हिंदी टीचर ने आठवीं क्लास में एक निबंध लिखवाया. शीर्षक था- “पश्चिमी सभ्यता का प्रभाव और नारी का पतन.” उस निबंध की शुरुआत ट्रक के पीछे लिखी जाने वाली इस शायरी से हुई थी. वो एक गर्ल्स स्कूल था, जहां जाड़े की किसी दोपहर में क्लास की 50 लड़कियां नारी के पतन पर निबंध लिख रही थीं. निबंध लिखवाने वाली शिक्षिका काफी संस्कारी थीं, हालांकि वो साड़ी ऐसे पहनती थीं कि लड़कियां उनकी शकल कम और पेट ज्यादा देखती थीं. तो फिलहाल उस इन्वेस्टिगेटिव निबंध की पड़ताल का नतीजा ये निकला कि नारी का ये मौजूदा पतन पश्चिम यानी वेस्ट और वेस्टर्न कल्चर की देन है.
हालांकि तब तक हमारी भूगोल की टीचर ने ठीक से ये भी नहीं पढ़ाया था कि पश्चिम मतलब ग्लोब का कौन सा हिस्सा, कौन-कौन से देश. हमने बस एक शब्द रट लिया था- ‘पश्चिम’ और निबंध में भारतीय संस्कारों की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए पतन की सारी जिम्मेदारी पश्चिम के सिर डाल दी थी. ये वही समय था, जब हम लड़कियों का शरीर आकार ले रहा था, जिंदगियों में दुपट्टा दाखिल हो रहा था और स्कूल में होम साइंस की टीचर ने दुपट्टे को करीने से लपेटकर, उससे उभरती छातियों को शाइस्तगी से ढंककर दोनों कंधों पर सेफ्टी पिन से चरित्र को फिक्स करना सिखाया था. अपने फिक्स्ड चरित्र की गौरव कथा बयान करते हुए हमने पश्चिम के लूज चरित्र का और लूज चित्रण किया. इतिहास से खोज-खोजकर सती-सावित्रियों के उदाहरण लाए और पतन पर आंसू बहाए. निबंध पूरा हुआ.
पिछले 18 सालों से अमेरिका में रह रही एक दोस्त कल कह रही थी कि मैं कुछ भी बोल दूं तो मेरा बेटा तुरंत गूगल खोलकर डेटा की बरसात कर देता है और बताता है कि मैं गलत हूं. वो कोई बात इसलिए मानकर राजी नहीं कि मैंने वो कही है तो सही ही होगी. वो पहले डेटा चेक करेगा, फिर बात करेगा.
ये 2019 है, जिसका स्लोगन है- “डेटा इज न्यू मोरैलिटी.” फर्ज करिए, 1994 में हमारे पास गूगल होता, जिस पर हम दनादन डेटा चेक कर सकते तो हमने वो “पश्चिमी सभ्यता का प्रभाव और नारी का पतन” वाला निबंध कैसे लिखा होता या अभी हमें ये लिखना हो तो हम कैसे लिखेंगे चलिए 25 साल बाद एक बार फिर वो निबंध लिखते हैं.
लड़कियों की पूजा का दावा करने वाला देश लड़कियों को मार रहा है. अभी दो दिन से इंटरनेट पर उत्तराखंड की एक खबर घूम रही है. उत्तराखंड के जिले उत्तरकाशी के 132 गांवों में पिछले तीन महीने में 216 बच्चे पैदा हुए और ये सारे के सारे लडक़े थे. एक भी घर में लडक़ी पैदा नहीं हुई. प्रशासन हरकत में आ गया है, इन 132 गांवों को रेड जोन के रूप में चिन्हित कर दिया है और स्थानीय सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं (आशा) पर नजऱ रखी जा रही है.
इस खबर की रौशनी में ये भी बताते चलें कि पश्चिम के पतन से आक्रांत हमारा देश सेक्स रेश्यो यानी लडक़ा-लडक़ी के अनुपात के मामले में दुनिया के सबसे बदतर मुल्क में से एक हैं. यहां तक कि पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान और बांग्लादेश भी हमसे बेहतर हैं. यूनाइटेड नेशंस की 2018 की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में प्रत्येक सौ महिलाओं पर 107.625 पुरुष हैं, जबकि पाकिस्तान में प्रत्येक प्रत्येक सौ महिलाओं पर 105.638 पुरुष हैं. 106.274 के जेंडर अनुपात के साथ चीन की स्थिति भी खराब है, लेकिन उसकी मुख्य वजह कन्या भ्रूण हत्या से ज्यादा ‘वन चाइल्ड’ की सरकारी पॉलिसी है. 2011 की जनगणना के मुताबिक हमारे यहां प्रति 1000 पुरुषों पर 943 महिलाएं हैं. यूएन का 2018 का आंकड़ा कहता है कि प्रत्येक 100 पुरुष पर 92.915 महिलाएं हैं. कुल आबादी का 48.18 फीसदी महिलाएं हैं.
ये तो है औरतों को देवी मानने, सिर पर बिठाने, पूजे जाने वाले देश की हकीकत. अब थोड़ा पतित पश्चिम पर भी निगाह डाल लें. अमेरिका में कुल आबादी का 50.5 फीसदी महिलाएं हैं. कनाडा में 50.38 फीसदी, रूस में 53.53 फीसदी, जर्मनी में 50.76 फीसदी, फ्रांस में 50.83 फीसदी, स्पेन में 50.97 फीसदी, तुर्की में 50.75 फीसदी, पोलैंड में 51.71 फीसदी, नीदरलैंड में 50.24 फीसदी और इटली में 51.26 फीसदी महिलाएं. ये सारे आंकड़े यूएन की 2017 की रिपोर्ट के हैं.
डेटा कहता है कि वेस्ट में औरतें “आधी आबादी” नहीं, बल्कि “आधी से ज्यादा आबादी” हैं. लड़कियों की संख्या लडक़ों से ज्यादा है. ये उस पश्चिम का हाल है, जो पतन के गड्ढे में गिरा लोट रहा है. जिसने सारी नैतिकता की नाव बनाकर अरब सागर में बहा दी है. जहां की लड़कियां खुलेआम फ्री सेक्स कर रही हैं. एक से दूसरी, दूसरी से तीसरी शादी में कूद रही हैं. एक से दूसरे ब्वॉयफ्रेंड पर कूदने का रेट तो इतना फास्ट है कि जितना फास्ट हमारा चंद्रयान गया था चांद पर. और दूसरी ओर हम हैं संस्कारी लोग. दुनिया में सबसे ज्यादा बेटियों को पेट में हम ही मार रहे हैं. हमारे नेता पब्लिकली ट्वीट करके कहते हैं कि लड़कियों ने संस्कारी राह छोड़ी तो हमारे देश की जेंडर अनुपात और बिगड़ जाएगा. वो इनडारेक्टली पब्लिकली ये कह रहे हैं कि हम लड़कियों को पेट में मार देंगे. अब और कितना मारेंगे, क्योंकि पहले से ही हमारा जेंडर रेश्यो इतना बिगड़ा हुआ है कि हरियाणा समेत देश के कुछ हिस्सों में लडक़ों को शादी करने के लिए लडक़ी नहीं मिल रही.
एक अमेरिकन-मैक्सिकन फिल्म है बेबेल. उसमें जब अमेलिया अपने बेटे की शादी में शामिल होने मैक्सिको जाती है तो 12 साल पहले मैं ये देखकर हैरान रह गई कि सफेद वेडिंग ड्रेस में शादी के लिए तैयार खड़ी उसकी बहू सेवन मंथ प्रेग्नेंट है. एक सेवन मंथ प्रेग्नेंट लडक़ी की शादी खुलेआम ढोल-बाजे के साथ हो रही है, मजमा जुटा है, सब नाच-गा रहे हैं. ये मेक्सिको क्या चीज है ये किस प्रकार का समाज है दरअसल ये उस प्रकार का समाज है, जो अमेरिका और वेस्ट की तरह अमीर नहीं है. जहां गरीबी है, क्राइम है, लेकिन उनका सेक्स रेश्यो ऐसा है कि कुल आबादी का 50.21 फीसदी महिलाएं हैं. हमारे देश में होती तो वो सेवेन मंथ प्रेग्नेंट लडक़ी, जिसकी मां एक अमेरिकन परिवार में घरेलू नौकरानी थी, यूं बालों में फूल सजाए शादी नहीं कर रही होती. किसी कब्र में गड़ी होती.
एक तरफ है पतित पश्चिम की पतन गाथाएं और दूसरी तरफ हम. संस्कारों और नैतिकता का मुकुट अपने माथे पर सजाए. हमारे यहां शिक्षा और विकास का संतुलन ऐसा है कि एक ओर हम चांद पर यान भेज रहे हैं, तो दूसरी ओर हमें अपनी जनता को करोड़ों खर्च करके ये बताना पड़ रहा है कि भईया, “बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ.” लड़कियों को पेट में मत मारो. उनको पैदा होने दो, खाना खाने दो, स्कूल जाने दो, जिंदा रहने दो. इसकी वजह जगह-जगह पोस्टर लगाकर हमने ये बताई है कि “जो लडक़ी को मार दोगे तो लडक़ा कहां से पैदा करोगे.” ठीक है, अगर उन्हें ये समझ नहीं भी आ रहा कि “लडक़ी एक इंसान है” तो क्या पता यही समझ आ जाए कि बिना लडक़ी तो लडक़ा भी पैदा होने से रहा.
उत्तरकाशी के उन गांवों की अब जांच-पड़ताल होगी, लेकिन इस खबर के बिना भी हम जानते हैं कि कन्या भ्रूण हत्या इस देश की हकीकत है. हमारे यहां लडक़ी पैदा होना कोई खुशी की बात नहीं. दूसरी लडक़ी हो जाए तो अस्पताल की पढ़ी-लिखी नर्स तक बच्चा गोद में रखते हुए ये दिलासा देती है, “दुखी न हो, अगली बार जरूर लडक़ा होगा.” हर परिवार में ऐसी कई कहानियां हैं, जहां लडक़े के इंतजार में लड़कियों की लाइन लग रखी है.
पूरी दुनिया में कहीं आपको ऐसा विज्ञान नहीं मिलेगा जो पैदा होने से पहले बता दे कि सिर्फ पुत्र कैसे पैदा करें, लेकिन भारत में ऐसे उपाय बेचने वाले बाबाओं का बड़ा बाजार है. भारत के ग्लोबल योग गुरू बाबा रामदेव की कंपनी पतंजलि ने 2015 में एक दवा लांच की, जिसका नाम है पुत्रजीवक बीज. बाबा का दावा है कि इसे खाने से पुत्र पैदा होता है. पतंजलि ने मांगने पर भी दवा की बिक्री का डेटा तो नहीं दिया, लेकिन कितनी औरतें पुत्र रत्न की आस में पुत्रजीवक गटके जा रही हैं, ये अंदाजा इस बात से लगा लीजिए कि दिल्ली जैसे महानगर के किसी दूर-दराजी मुहल्ले में भी आपको पुत्रजीवक वटी आसानी से मिल जाएगी.
हर कोई पुत्र के लिए पागल है. पुत्र पैदा होगा तो घर की संपत्ति घर में रहेगी, वो पिंडदान करेगा, सीधा स्वर्ग ट्रांसफर करवाएगा. ये सब हिंदू धर्म में लिखा है कि पुत्र ये-ये काम करता है. पुत्रियां पराया धन पराए घर में जाकर पराया माल हो जाती हैं और पराए माल पर कौन इन्वेस्ट करता है. पढ़े-लिखे लोग कहेंगे, 1947 के जमाने की कहानी 2019 में क्यों सुना रही हो. वो इसलिए क्योंकि एशियन सेंटर ऑफ ह्यूमन राइट्स की पिछले साल की रिपोर्ट में लिखा है कि पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा कन्या भ्रूण हत्या के मामले भारत में हुए. 2010 में एनसीआईबी जब सेक्स सेलेक्टिव अबॉर्शन पर अपनी रिपोर्ट लिख रही थी तो उसका पहला वाक्य था- “Women are murdered all over the world. But in india a most brutal from of killing females takes place regularly ” (यूं तो पूरी दुनिया में औरतें मारी जाती हैं, लेकिन भारत में सबसे ज्यादा बर्बर और क्रूर तरीके लगातार लड़कियों को मारा जा रहा है.)
हम सबने सुनी हैं अपनी दादियों-नानियों से ऐसी कहानियां कि उनके जमाने में लड़कियों को कैसे-कैसे मारा जाता था. नवजात को अफीम चटाने से लेकर दूध न पिलाने तक कई तरीके थे उनके पास. अमेरिकन एंथ्रोपोलॉजिस्ट मार्विन हैरिस ने लिखा है कि कैसे 1789 में कंपनी राज के दौरान सबसे पहले ये बात अंग्रेजों की नजर में आई कि इंडियन अपर कास्ट अपनी लड़कियों को पैदा होते ही मार देता है.
निबंध समाप्त हुआ. तो इस तरह अगर 1994 में गूगल होता तो हमने वो निबंध “पश्चिमी सभ्यता का प्रभाव और नारी का पतन” कुछ इस तरह लिखा होता. और उस निबंध की आखिरी लाइन होती- “पतित समाजों में लड़कियां जिंदा रहती हैं, सभ्य समाजों में मार दी जाती हैं.