मज़दूर तो वो काक्रोच है जो प्रलय के बाद भी जीने का हुनर जानता है, जो नहीं जानते वो सुशांत सिंह होने को मजबूर हो जाते हैं और वो मध्यम वर्ग ही है…

मज़दूर तो वो काक्रोच है जो प्रलय के बाद भी जीने का हुनर जानता है, जो नहीं जानते वो सुशांत सिंह होने को मजबूर हो जाते हैं और वो मध्यम वर्ग ही है…
June 27 08:20 2020

मोदी सरकार का अर्थशास्त्र धरा का धरा रह जाएगा

जब लॉकडाउन  बेरोजगारी सिर्फ बेरोजगार को ही हिट नहीं करेगी

विवेक कुमार की ग्राउंड जीरो रिपोर्ट

पिछले दो महीनो में करोड़ों ने देखा होगा, लाखों की तादाद में मज़दूर अपने घर जाने की कोशिश कर रहे थे। एक आंकड़े के मुताबिक लगभग 12 करोड़ प्रवासी मजदूर परिवार, समस्त भारत के शहरों में कार्यरत हैं और उसमे से एक करोड़ परिवार लॉकडाउन में अपने गाँव वापस चले गए हैं। यानी कि लगभग 9 प्रतिशत वापिस जा चुके हैं। इनमें शामिल हैं कंस्ट्रक्शन साइट पर काम करने वाले, रेहड़ी पटरी पर दाल मोठ और कचौड़ी इत्यादि जैसे उत्पाद बेचने वाले, हमारे घरों के पेंट प्लास्टर करने वाले मजदूर इत्यादि-इत्यादि। मध्यम वर्ग सोच रहा होगा कि चले गए हैं तो वापस आ जायेंगे कुछ दिनों में, जब हमे अपना घर पेंट कराना होगा या कोई मिस्त्री का काम हुआ तो हमे क्या समस्या आएगी| तो यह जान लीजिये कि समस्या आयेगी और बिल्कुल आएगी। इसी का हिसाब किताब इस बार की मजदूर मोर्चा ग्राउंड रिपोर्ट में हमने लगाया है।

देवरिया जिला उत्तर प्रदेश के रहने वाले 53 वर्षीय रमेश, पीपी ज्वेलर करोल बाग में काम करते हैं और उनके दो बेटों में एक फरीदाबाद में पेंटर का और दूसरा भी फरीदाबाद में एक सुनार की दुकान पर काम करता है। रमेश ने बताया कि दुकान खुल तो गईं हैं लेकिन कोई ग्राहक नहीं आने के कारण मालिक का नुकसान है और उसने हमे भी काम से निकाल दिया। इसी तरह उनके बेटों को भी कोई काम नहीं मिल रहा है, जबकि मकान किराया और अन्य खर्चे जस के तस बने हुए हैं।

फरीदाबाद एनआईटी तीन में कपड़े प्रेस कर अपना जीवन चलाने वाले रामबीर हरियाणा भिवानी जिले के हैं। रामबीर ने बताया, लॉकडाउन बेशक खुल गया पर कोरोना के नाम का जो खौफ सरकार ने मीडिया के माध्यम से फैलाया है उसकी गर्मी प्रेस की गर्मी से भी बहुत ज्यादा है, कारणवश यहां कोई कपड़े देने नहीं आता अब। अव्वल तो लोग काम धंधों पर नहीं जा रहे, उस लिहाज़ से कपड़े भी नहीं बदल रहे और जो थोड़े बहुत जा भी रहे हैं वे खुद ही प्रेस करते हैं। एक बार की गरम प्रेस एक किलो से ज्यादा का यानी कि चालीस रुपये का कोयला खा जाती है और इतने पैसे भी न निकलें तो क्या फायदा प्रेस गरम करने का, इसलिए अब रामबीर अपने पांच लोगों के परिवार को लेकर भिवानी जा रहे हैं।

रिपोर्ट के प्रारंभ में हमने आपको एक संख्या दी कि लगभग एक करोड़ लोग वापस चले गए, इसमें हम मान लें कि कुछ छोटे बच्चे होंगे जो काम नहीं कर सकते होंगे। तब भी सरकार का अपना अनुमान है जिसमे कहा गया है कि कम से कम 80 लाख तो कामगार परिवार हैं जो शहरों से वापस गाँव चले गए। इसका एक सिग्नल पहले ही मनरेगा के नम्बर से मिल गया था जिसके तहत कोई भी गरीब आदमी गाँव में आकर काम मांगे तो सरकार को कम से कम 100 दिनों के लिए काम देना पड़ेगा।

सरकार की वित्त मंत्री निर्मलासीतारमण ने कहा था कि 100 दिनों के काम को हम 150 कर देंगे और न्यूनतम मजदूरी को 20 रूपये और बढ़ा कर देंगे। इसके लिए 40 हजार करोड़ जो बजट पेश करते वक्त तय हुआ था उससे भी अधिक खर्च करना होगा। असल में भाजपाई सरकार में सरकारी आंकड़ों को पकडऩा बहुत मुश्किल होता जा रहा है क्योंकि रोज नए जुमले पेश कर दिए जाते हैं और गोदी मीडिया व अखबार उन्हें प्रसारित भी कर देते हैं।

शनिवार को एक नयी योजना जिसका नाम “प्रधानमंत्री गरीब रोजगार योजना” है की घोषणा हुई, इसमें पचास हजार करोड़ रुपये का खर्च किया जाएगा ऐसा प्रधानमन्त्री ने कहा। अब इस फण्ड की सच्चाई यह है कि जो रकम बजट में पेश की गई थी उसी में इसे भी जोड़ा जाएगा जो कि बहुत थोड़ी राशि होगी। जबकि इसका प्रचार प्रसार ऐसे किया जा रहा है कि अब तो गाँव गए मजदूरों पर सरकार सर्वस्व न्योछावर करने वाली है। साथ ही सरकार ने कहा कि ये खर्चा फ्रंट लोड होगा, यानी कि यदि योजना की राशि पूरे साल में खर्च करनी थी तो अब उसे चंद महीनों में ही खर्च किया जाएगा। ये भी कहा गया कि बहुत सारे जिले चिन्हित किये गए हैं खास तौर पर बिहार के। जाहिर सी बात है क्योंकि बिहार में चुनाव हैं और उसके लिए जो प्रधानमन्त्री शहीदों की मौत पर राजनीति कर जाए वो जुमलेबाज योजना में राजनीति न करे तो दुनिया को ही ग्रहण न लग जाये

अब सरकार ने कहा है कि क्योंकि मजदूर शहरों से परेशान होकर गाँव वापस चले गए हैं इसलिए ऐसे एक करोड़ मजदूरों का रजिस्टर तैयार किया जा रहा है। इस रजिस्टर के दम पर सरकार मजदूरों को गाँव में ही रोजगार दे देगी ऐसा सरकार का दावा है। अब इन दावों को पढ़ते हुए आप यह सोचिये की जब एक करोड़ मजदूर शहरों से चले गए हैं तो शहरों का क्या होगा। तब तक हम आपको एक दूसरा आंकड़ा अपने पलायन वाली खबर की पुष्टि के तौर पर दिए देते हैं।

हमने मनरेगा की बात की, तो अप्रैल-मई 2019 को मिलाकर 4.60 करोड़ लोगों ने काम की मांग की और काम मिला 3.72 करोड़ को, यानी कि लगभग 78 लाख लोगों को काम नहीं मिला।  इस साल के आंकड़े को देखें तो पाएंगे कि अप्रैल में काम ढूँढने वाले जो परिवार हैं उनकी संख्या है 2.12 करोड़ और काम मिलने वाले परिवारों की संख्या है 1.28 करोड़ यानी कि 84 लाख परिवार बेरोजगार। इस आंकड़े में खास बात है कि काम ढूँढने वाले परिवारों की संख्या लगभग 39 प्रतिशत गिरी और काम न मिलने वाले परिवारों की संख्या 35 प्रतिशत हुई।

अब हमारे सामने ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा दिए परिवारों के आंकड़े हैं जो काम ढूंढ रहे हैं और जिनको काम मिला और जिनको नहीं भी मिला। यदि दोनों को जोड़ दें तो पिछले साल मई माह में मनरेगा के तहत काम ढूंढने वाले लगभग ढाई करोड़ परिवार थे जो इस साल उछल कर 3.61 करोड़ हो गए हैं, यानी कि पहले से 45 प्रतिशत अधिक लोगों ने महात्मा गाँधी की शरण ली। ध्यान रहे कि इसी मनरेगा को गड्ढा खोदने का काम कह कर मोदी ने संसद में इसका मजाक भी उड़ाया था।

ये इतने सारे आंकड़े सिद्ध करते हैं कि गाँव में मनरेगा के तहत रोजगार बढ़ा है पर शहरों में बेरोजगारी बेतहाशा बढ़ी है, सीएमआई का डाटा भी इसकी पुष्टि करता है। लेकिन इसका असर शहर और कंपनियों पर क्या होने वाला है?

एक प्रकार से देखें तो उपरोक्त आंकड़े गरीबों के हित में दिखते हैं पर जब बात फरीदाबाद जैसी इंडस्ट्रियल शहरों की हो रही हो तो इन आंकड़ों का परिपेक्ष्य बदल जाता है। सोचिये इतनी बड़ी संख्या में मजदूर शहर छोड़ गए और जिस दिन इंडस्ट्री व् दुकानों को लेबर की जरूरत होगी उस दिन क्या उन्हें ऐसी ही सस्ती लेबर मिलेगी? जी नहीं, मांग और सप्लाई के नियम के मुताबिक शहरों में लेबर का महंगा होना तय है और साथ ही प्रोडक्ट का भी।

चीन के माल को बहिष्कार करने का फर्जी सोशल मीडिया आन्दोलन चला हुआ है। खास तौर पर आरडब्लूए  के व्हाट्सऐप ग्रुप में तो सभी अपनी देशभक्ति बघारने के लिए दिन रात चीन के बने मोबाइलों से ही चीन के सामन का बहिष्कार वाला सन्देश पेले पड़े रहते हैं। ऐसे लोगों को जान लेने की जरूरत है कि क्यों चीन के आर्थिक उपनिवेश के तौर पर भारत दिखाई दे रहा है?

चीन में सभी कंपनियों के प्लांट लगाने के पीछे सस्ती लेबर का तर्क बहुत ही सतही है, वह भी तब, जब 100 रुपये जैसे छोटी रकम में आप भारत में किसी से अपना लॉन कटवा लें या टैंक तक साफ करवा लेते हों। दरअसल चीन में कच्चे माल की आपूर्ति के साथ-साथ उत्पाद के बनने से लेकर और उसके निर्यात तक की बहुत ही सुचारु, सुगम और सस्ती व्यवस्था उपलब्ध है। यही कारण है कि कोरोना की बदनामी के बाद भी चीन की अर्थव्यवस्था जिंदा है।

अब बात भारत की, लगभग तीन माह तक इंडस्ट्रियल हबों मजदूरों की अन उपलब्धता बनी रहने वाली है, कारण है सरकार द्वारा बेवकूफाना लॉकडाउन जिसके चलते मजदूरों का पलायन हुआ। जो लेबर उपलब्ध होगी, ज़ाहिर है महँगी होगी। महँगी लेबर के साथ-साथ आसमान छूते ईधन के दाम उत्पाद को और महंगा करेंगे। इसके बाद जिनके लिए माल बनेगा उनकी पगार कट कर आधी बची है जिससे मांग और कम रहेगी। क्या इस तरह मोदी और उनके चमचे चाइना को हरा कर देश के मजदूर और मध्यम वर्ग का भला कर पायेंगे? जिन लोगों को इस लम्बी चौड़ी रिपोर्ट से बोरियत हुई है उनको चंद पंक्तियों में समझाने का प्रयास है:-

वो रोज 500 कमाता था,

एक बच्चा और बीवी, एक कमरा,

बस दो महीने से काम नहीं मिला, बहुत परेशान हुआ, जैसे-तैसे खा लिया

अब थोड़ा काम मिलने लगा, जिन्दगी की गाड़ी धीमी गति से चलने लगी।

दूसरा भी था, डेढ़ लाख मिलते थे, 70 की ईएमआई, घर, कार, इत्यादि,

मोबाइल भी एक लाख का,

नौकरी चली गई,

अब लिखने को कुछ नहीं

मध्यम वर्ग अगर अब भी नहीं चेता तो इस बात को को मनन कर ले कि मज़दूर तो वो काक्रोच है जो प्रलय के बाद भी जीने का हुनर जानता है, जो नहीं जानते वो सुशांत सिंह होने को मजबूर हो जाते हैं और वो मध्यम वर्ग ही है।

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Mazdoor Morcha
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