क्या सच में नायडू, नीतीश ही पलटू हैं? मोदी इसमे भी उनके उस्ताद हैं !

क्या सच में नायडू, नीतीश ही पलटू हैं? मोदी इसमे भी उनके उस्ताद हैं !
June 08 14:21 2024

विवेक कुमार

ज सुबह स्विमिंग करते समय पूल में कुछ व्यापारी वर्ग और टेक्नोलेट वर्ग के साथी चुनाव पर चर्चा करने में मशगुल थे। रोजमर्रा की तैराकी पूरी कर मैं भी सांस लेने के लिए रुका। पेशे से एंजीनीयर अमन ने तपाक से पूछा, क्यों विवेक, क्या मोदी जी के पास कोई प्लान बी होगा? मैने कहा जरूर होगा, वो नेता ही क्या जिसके पास प्लांस बी-सी न हों। पर फिलहाल किसी भी प्लान की क्या जरूरत है? वे सब बोले, अरे ये दोनो चन्द्रबाबू नायडू और नीतीश कुमार बड़े धोखेबाज़ किस्म के हैं। इनसे छुटकारा पाना ही होगा। ऐसी ही टिप्पणी मेन स्ट्रीम मीडिया में भी अक्सर पत्रकार वर्ग कहते मिलते हैं। सबसे बुरा तो तब लगता है जब इसी प्रकार की टिप्पणियां गम्भीर किस्म की पत्रकारिता करने वाले पत्रकारों और यूट्यूब चैनलों पर सुनने को मिलती हैं।

अठारहवीं लोकसभा के चुनाव आखिरकार सम्पन्न हुए। मोदी अपने घटक दलों के साथ एक बार फिर भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनाने जा रहे हैं। अंतर एक है और वो है कि यह सरकार सचमुच में एनडीए की सरकार होगी। इस एनडीए की सरकार की मियाद पर सवाल सभी तरफ से उठाए जा रहे हैं। सबसे अधिक सवाल टीडीपी और जदयू के ऊपर उठाए जा रहे हैं कि दोनों कब समर्थन वापस ले लें कह नहीं सकते, और नीतीश तो पलटूराम हैं।

क्या कभी यह नहीं सोचना चाहिए कि जिन दो दलों के मुखिया को अवसरवादी कहा जा रहा है वे दोनों भी वही राजनीति कर रहे हैं जो कांग्रेस दशको तक करती आई और जिसकी पराकाष्ठा नरेन्द्र मोदी की सरकार ने पार कर दी। तो क्या नरेन्द्र मोदी और बीजेपी पार्टी पलटू नहीं? जिन दो दलों की चप्पल उठाने को मोदी-शाह तैयार बैठे हैं उनको पलटू और खुद को अपनी बात पर कायम रहने वाले इनके शगूफ़े पर एक नज़र डालनी लाजमी है।

नीतिश कुमार ने हमेशा से अपने आप को एक धर्मनिरपेक्ष नेता की छवि में बनाए रखने का भरसक प्रयास किया। सिर्फ इसलिए कि वह भाजपा गठबंधन में गए इससे यह नहीं कहा जाएगा कि वह साम्प्रदायिक हो गए। उसी तरह जैसे ईद की बधाई देने से मोदी सेक्युुलर नहीं हो जाते। याद रहे नीतीश के वोटरों में एक बड़ी संख्या मुसलमानों की भी शामिल है।
नीतीश से चार कदम आगे बढक़र टीडीपी के मुख्य नेता चंद्रबाबू नायडू ने ट्वीट करते हुए कहा कि क्योंकि मुसलमानों में गरीबी अधिक है इसलिए उन्हें अशिक्षा और गरीबी के दलदल से निकालने के लिए हम प्रतिबद्ध हैं। इसको चरितार्थ करते हुए उन्होंने मुस्लिम समुदाय को आंध्रप्रदेश में 4 प्रतिशत आरक्षण भी दिया हुआ है। दोनों ही दलों ने पार्टियां बेशक बदली हैं पर अपने नीतियों के साथ कम से कम कह कर तो समझौता नहीं किया। व्यक्तिगत आक्षेप राजनीति का हिस्सा है परंतु उसमे भी किस सीमा को पार किया गया वह देखा जा सकता है। परन्तु केवल इन्हीं दोनों को पलटने वाली नजऱ से देखा जा रहा है जबकि सबसे बड़े पलटू नेता नरेंद्र मोदी ही हैं।

पूरे चुनाव में मोदी मुस्लिम समाज को घुसपैठिया और अन्य गालियां भाजपा की हिंदुत्ववादी मानसिकता आधारित नीति के तहत लगातार देते रहे। मुस्लिम समुदाय को दिए आरक्षण का भय दलित और ओबीसी को दिखाकर समाज को बांटने प्रयास किया वो अलग। नीतीश कुमार को चरित्रहीन बनाते हुए बदनाम किया गया। नायडू को ससुर की पीठ में छुरा घोंपने वाला बताया गया। आज मोदी अपनी कही बातों से पलटते हुए इन्हीं दोनों ‘मुस्लिमपरस्तों’ की मदद से तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहे हैं।

दरअसल पलटू तो मोदी हैं जो सत्ता में बने रहने के लिए किसी भी विचार को अपना सकते हैं या छोड़ सकते हैं। पर बात केवल इतनी ही नहीं है। अटल बिहारी वाजपेयी की 1999 में बनी एनडीए सरकार मे शिवसेना, नीतिश कुमार, नायडू के ही साथ ममता बनर्जी और अकाली दल भी शामिल था। वाजपेयी ने पांच साल सबको सम्मान देते हुए अपना कार्यकाल पूरा किया। सहयोगी घटक दलों ने भी पांच साल उनका बखूबी साथ निभाया। तो फिर 2014-2019 की मोदी सरकार में इन घटक दलों का क्या हुआ? 2014 में अपने बल पर पूर्ण बहुमत मिलने पर मोदी ने घटक दलों को एक किनारे कर दिया। कुछ एक को पद दिए वे भी सांकेतिक न कि आनुपातिक। 2019 में अपने दूसरे कार्यकाल में मोदी एक विकराल रूप धारण कर चुके थे जिसकी बानगी उन्होंने कुछ इस प्रकार पेश की कि एनडीए की साथी रही शिव सेना पार्टी को दो में बांट दिया। इसके बाद अकाली दल को पंजाब में उपेक्षित रखा।

परिणामस्वरूप वह गठबंधन भी जाता रहा। जेडीयू पार्टी को तोडऩे का प्रयास जारी ही था कि नीतिश ने भांपते हुए पलटी मारी, अन्यथा पार्टी का टूटना तय था। इसी प्रकार ममता जो कभी एनडीए की साथी थीं उनके साथ चुनावों में बतौर विपक्षी मोदी-शाह ने केन्द्रीय शक्तियों के दुरुपयोग की हद पार कर दी।

जाहिर है कि आज बाजी पलट चुकी तो नायडू और नीतिश भी वह सब करेंगे जो क्षेत्रीय दल का स्वभाव है। 1963 में शुरुआत में 11 राज्यों, केंद्रशासित प्रदेशों के लिए एससीएस का प्रावधान लाया गया। इस सूची में बिहार को डाले जाने की मांग नीतीश 2008 व आंध्र प्रदेश को शामिल करने की मांग नायडू 2013-14 से ही कर रहे हैं। बिहार की गरीबी को देखते हुए यह मांग गलत भी प्रतीत नहीं होती। मोदी ने 2019 के चुनाव में बिहार की जनता को कितने लाख दे दूं का लॉलीपाप एक बार चुसाया पर दिया धोखा ही।

इसी प्रकार 2014 में तेलंगाना बनने के बाद हैदराबाद जैसी सिटी आंध्र से निकल गई। नायडू को आंध्र की राजधानी अमरावती के लिए हजारों करोड़ों की आवश्यकता है तो जाहिर है केन्द्र से यह पैसा उन्हें मिले इसी पर वे अपना समर्थन देंगे। इसके साथ ही लोकसभा में स्पीकर पद की मांग के पीछे का कारण मोदी-शाह द्वारा पैदा किया गया अविश्वास ही है। नायडू जानते हैं कि स्पीकर अपना न हुआ तो उनकी पार्टी को भी तोडऩे में अमित शाह और मोदी कोई कसर न उठा छोड़ेंगे। तो ये अविश्वास तो खुद मोदी द्वारा पैदा किया हुआ है न कि किसी घटक दल ने किया।

वादा करके और फिर मोदी यदि अपनी बात से आदतानुसार पलट गए तो यह जाहिर है नायडू और नीतीश भी पलट जाएंगे। तो यह तो स्वार्थ की दोस्ती है। स्वार्थ नहीं सधा तो पलटना सबका तय है। और जो इस गठबंधन में बड़ा है उसी की जिम्मेदारी है कि गठबंधन को बनाए रखो। पिछली सरकार में गठबंधन के घटकों की नाराजगी पर कभी मोदी-शाह ने बड़ा बनकर नाराज दलों को मनाने का या रोकने तक का प्रयास नहीं किया। तो स्वार्थ के साथ सम्मान भी आवश्यक है। यह जिम्मेदारी प्रधानमंत्री की ही है। जिसे वे कभी पूरा नहीं कर सके।
अपने ही साथियो की उपेक्षा के लिए कुख्यात मोदी के व्यवहार का आकलन इससे करके देखिए कि विधानसभा में बोलते हुए नायडू ने बताया कि वे 29 बार दिल्ली में मंत्रियों से एसईएस के सिलसिले में मिलने गए। पर कभी भी किसी मंत्री से मुलाकात ही नहीं हुई या हुई तो मुद्दे पर किसी ने बात नहीं की। जगन रेड्डी और अन्य दलों नें विधानसभा में नायडू का भरपूर मजाक भी बनाया।

मायावती भाजपा की अघोषित साथी हैं। आज उनका जो हाल है वह मोदी-शाह की कार्यशैली के कारण ही तो है। यदि उत्तर प्रदेश में मायावती उस रोल में न होतीं जिसमें उन्हे बीजेपी द्वारा बैठाया गया तो शायद भाजपा की कुल सीटों में 16-20 सीटों की और कमी होती। ऐसा होने पर भाजपा की कुल 220-225 सीटें ही होतीं और ऐसे में इंडिया गठबंधन भी सरकार बना सकता था। पर क्या मोदी मायावती को इसका धन्यवाद देंगे? नहीं। शुक्रिया कहकर आगे बढऩा मोदी का अंदाज नहीं था। पर अब हर बात पर जी हुजूर करेंगे। इसे ही कहते है पलटना। माफ करिए, इस कला के महाराथी मोदी ही है।

इसके इतर जो अहम बात है वह है कि लंबे अंतराल के बाद दक्षिण भारत के राज्य का किंग मेकर की भूमिका में शामिल होना। होना भी चाहिए। नायडू चाहें तो दक्षिण के ऊपर जो नार्थ की सुप्रिमेसी है उसे कुंद कर सकते है। ये भूलना नहीं चाहिए कि तमिलनाडु में 40 सीटें भाजपा के खिलाफ है। ऐसे में बेशक वह सरकार में नहीं पर प्रतिनिधित्व तो सदन में है। नायडू पूरे दक्षिण को दिल्ली में उनकी गूंज सुनने के मुख्य स्त्रोत बन सकते हैं। शायद दक्षिण की राजनीति की धमक उत्तर की राजनीति को सांप्रदायिकता और ध्रुवीकरण से निकाल कर असल में विकास के मुद्दों की तरफ ला सके।

आज सुबह स्विमिंग करते समय पूल में कुछ व्यापारी वर्ग और टेक्नोलेट वर्ग के साथी चुनाव पर चर्चा करने में मशगुल थे। रोजमर्रा की तैराकी पूरी कर मैं भी सांस लेने के लिए रुका। पेशे से एंजीनीयर अमन ने तपाक से पूछा, क्यों विवेक, क्या मोदी जी के पास कोई प्लान बी होगा? मैने कहा जरूर होगा, वो नेता ही क्या जिसके पास प्लांस बी-सी न हों। पर फिलहाल किसी भी प्लान की क्या जरूरत है? वे सब बोले, अरे ये दोनो चन्द्रबाबू नायडू और नीतीश कुमार बड़े धोखेबाज़ किस्म के हैं। इनसे छुटकारा पाना ही होगा। ऐसी ही टिप्पणी मेन स्ट्रीम मीडिया में भी अक्सर पत्रकार वर्ग कहते मिलते हैं। सबसे बुरा तो तब लगता है जब इसी प्रकार की टिप्पणियां गम्भीर किस्म की पत्रकारिता करने वाले पत्रकारों और यूट्यूब चैनलों पर सुनने को मिलती हैं।

अठारहवीं लोकसभा के चुनाव आखिरकार सम्पन्न हुए। मोदी अपने घटक दलों के साथ एक बार फिर भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनाने जा रहे हैं। अंतर एक है और वो है कि यह सरकार सचमुच में एनडीए की सरकार होगी। इस एनडीए की सरकार की मियाद पर सवाल सभी तरफ से उठाए जा रहे हैं। सबसे अधिक सवाल टीडीपी और जदयू के ऊपर उठाए जा रहे हैं कि दोनों कब समर्थन वापस ले लें कह नहीं सकते, और नीतीश तो पलटूराम हैं।

क्या कभी यह नहीं सोचना चाहिए कि जिन दो दलों के मुखिया को अवसरवादी कहा जा रहा है वे दोनों भी वही राजनीति कर रहे हैं जो कांग्रेस दशको तक करती आई और जिसकी पराकाष्ठा नरेन्द्र मोदी की सरकार ने पार कर दी। तो क्या नरेन्द्र मोदी और बीजेपी पार्टी पलटू नहीं? जिन दो दलों की चप्पल उठाने को मोदी-शाह तैयार बैठे हैं उनको पलटू और खुद को अपनी बात पर कायम रहने वाले इनके शगूफ़े पर एक नज़र डालनी लाजमी है।

नीतिश कुमार ने हमेशा से अपने आप को एक धर्मनिरपेक्ष नेता की छवि में बनाए रखने का भरसक प्रयास किया। सिर्फ इसलिए कि वह भाजपा गठबंधन में गए इससे यह नहीं कहा जाएगा कि वह साम्प्रदायिक हो गए। उसी तरह जैसे ईद की बधाई देने से मोदी सेक्युुलर नहीं हो जाते। याद रहे नीतीश के वोटरों में एक बड़ी संख्या मुसलमानों की भी शामिल है।
नीतीश से चार कदम आगे बढक़र टीडीपी के मुख्य नेता चंद्रबाबू नायडू ने ट्वीट करते हुए कहा कि क्योंकि मुसलमानों में गरीबी अधिक है इसलिए उन्हें अशिक्षा और गरीबी के दलदल से निकालने के लिए हम प्रतिबद्ध हैं। इसको चरितार्थ करते हुए उन्होंने मुस्लिम समुदाय को आंध्रप्रदेश में 4 प्रतिशत आरक्षण भी दिया हुआ है। दोनों ही दलों ने पार्टियां बेशक बदली हैं पर अपने नीतियों के साथ कम से कम कह कर तो समझौता नहीं किया। व्यक्तिगत आक्षेप राजनीति का हिस्सा है परंतु उसमे भी किस सीमा को पार किया गया वह देखा जा सकता है। परन्तु केवल इन्हीं दोनों को पलटने वाली नजऱ से देखा जा रहा है जबकि सबसे बड़े पलटू नेता नरेंद्र मोदी ही हैं।

पूरे चुनाव में मोदी मुस्लिम समाज को घुसपैठिया और अन्य गालियां भाजपा की हिंदुत्ववादी मानसिकता आधारित नीति के तहत लगातार देते रहे। मुस्लिम समुदाय को दिए आरक्षण का भय दलित और ओबीसी को दिखाकर समाज को बांटने प्रयास किया वो अलग। नीतीश कुमार को चरित्रहीन बनाते हुए बदनाम किया गया। नायडू को ससुर की पीठ में छुरा घोंपने वाला बताया गया। आज मोदी अपनी कही बातों से पलटते हुए इन्हीं दोनों ‘मुस्लिमपरस्तों’ की मदद से तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहे हैं।

दरअसल पलटू तो मोदी हैं जो सत्ता में बने रहने के लिए किसी भी विचार को अपना सकते हैं या छोड़ सकते हैं। पर बात केवल इतनी ही नहीं है। अटल बिहारी वाजपेयी की 1999 में बनी एनडीए सरकार मे शिवसेना, नीतिश कुमार, नायडू के ही साथ ममता बनर्जी और अकाली दल भी शामिल था। वाजपेयी ने पांच साल सबको सम्मान देते हुए अपना कार्यकाल पूरा किया। सहयोगी घटक दलों ने भी पांच साल उनका बखूबी साथ निभाया। तो फिर 2014-2019 की मोदी सरकार में इन घटक दलों का क्या हुआ? 2014 में अपने बल पर पूर्ण बहुमत मिलने पर मोदी ने घटक दलों को एक किनारे कर दिया। कुछ एक को पद दिए वे भी सांकेतिक न कि आनुपातिक। 2019 में अपने दूसरे कार्यकाल में मोदी एक विकराल रूप धारण कर चुके थे जिसकी बानगी उन्होंने कुछ इस प्रकार पेश की कि एनडीए की साथी रही शिव सेना पार्टी को दो में बांट दिया। इसके बाद अकाली दल को पंजाब में उपेक्षित रखा।

परिणामस्वरूप वह गठबंधन भी जाता रहा। जेडीयू पार्टी को तोडऩे का प्रयास जारी ही था कि नीतिश ने भांपते हुए पलटी मारी, अन्यथा पार्टी का टूटना तय था। इसी प्रकार ममता जो कभी एनडीए की साथी थीं उनके साथ चुनावों में बतौर विपक्षी मोदी-शाह ने केन्द्रीय शक्तियों के दुरुपयोग की हद पार कर दी।

जाहिर है कि आज बाजी पलट चुकी तो नायडू और नीतिश भी वह सब करेंगे जो क्षेत्रीय दल का स्वभाव है। 1963 में शुरुआत में 11 राज्यों, केंद्रशासित प्रदेशों के लिए एससीएस का प्रावधान लाया गया। इस सूची में बिहार को डाले जाने की मांग नीतीश 2008 व आंध्र प्रदेश को शामिल करने की मांग नायडू 2013-14 से ही कर रहे हैं। बिहार की गरीबी को देखते हुए यह मांग गलत भी प्रतीत नहीं होती। मोदी ने 2019 के चुनाव में बिहार की जनता को कितने लाख दे दूं का लॉलीपाप एक बार चुसाया पर दिया धोखा ही।

इसी प्रकार 2014 में तेलंगाना बनने के बाद हैदराबाद जैसी सिटी आंध्र से निकल गई। नायडू को आंध्र की राजधानी अमरावती के लिए हजारों करोड़ों की आवश्यकता है तो जाहिर है केन्द्र से यह पैसा उन्हें मिले इसी पर वे अपना समर्थन देंगे। इसके साथ ही लोकसभा में स्पीकर पद की मांग के पीछे का कारण मोदी-शाह द्वारा पैदा किया गया अविश्वास ही है। नायडू जानते हैं कि स्पीकर अपना न हुआ तो उनकी पार्टी को भी तोडऩे में अमित शाह और मोदी कोई कसर न उठा छोड़ेंगे। तो ये अविश्वास तो खुद मोदी द्वारा पैदा किया हुआ है न कि किसी घटक दल ने किया।

वादा करके और फिर मोदी यदि अपनी बात से आदतानुसार पलट गए तो यह जाहिर है नायडू और नीतीश भी पलट जाएंगे। तो यह तो स्वार्थ की दोस्ती है। स्वार्थ नहीं सधा तो पलटना सबका तय है। और जो इस गठबंधन में बड़ा है उसी की जिम्मेदारी है कि गठबंधन को बनाए रखो। पिछली सरकार में गठबंधन के घटकों की नाराजगी पर कभी मोदी-शाह ने बड़ा बनकर नाराज दलों को मनाने का या रोकने तक का प्रयास नहीं किया। तो स्वार्थ के साथ सम्मान भी आवश्यक है। यह जिम्मेदारी प्रधानमंत्री की ही है। जिसे वे कभी पूरा नहीं कर सके।
अपने ही साथियो की उपेक्षा के लिए कुख्यात मोदी के व्यवहार का आकलन इससे करके देखिए कि विधानसभा में बोलते हुए नायडू ने बताया कि वे 29 बार दिल्ली में मंत्रियों से एसईएस के सिलसिले में मिलने गए। पर कभी भी किसी मंत्री से मुलाकात ही नहीं हुई या हुई तो मुद्दे पर किसी ने बात नहीं की। जगन रेड्डी और अन्य दलों नें विधानसभा में नायडू का भरपूर मजाक भी बनाया।

मायावती भाजपा की अघोषित साथी हैं। आज उनका जो हाल है वह मोदी-शाह की कार्यशैली के कारण ही तो है। यदि उत्तर प्रदेश में मायावती उस रोल में न होतीं जिसमें उन्हे बीजेपी द्वारा बैठाया गया तो शायद भाजपा की कुल सीटों में 16-20 सीटों की और कमी होती। ऐसा होने पर भाजपा की कुल 220-225 सीटें ही होतीं और ऐसे में इंडिया गठबंधन भी सरकार बना सकता था। पर क्या मोदी मायावती को इसका धन्यवाद देंगे? नहीं। शुक्रिया कहकर आगे बढऩा मोदी का अंदाज नहीं था। पर अब हर बात पर जी हुजूर करेंगे। इसे ही कहते है पलटना। माफ करिए, इस कला के महाराथी मोदी ही है।

इसके इतर जो अहम बात है वह है कि लंबे अंतराल के बाद दक्षिण भारत के राज्य का किंग मेकर की भूमिका में शामिल होना। होना भी चाहिए। नायडू चाहें तो दक्षिण के ऊपर जो नार्थ की सुप्रिमेसी है उसे कुंद कर सकते है। ये भूलना नहीं चाहिए कि तमिलनाडु में 40 सीटें भाजपा के खिलाफ है। ऐसे में बेशक वह सरकार में नहीं पर प्रतिनिधित्व तो सदन में है। नायडू पूरे दक्षिण को दिल्ली में उनकी गूंज सुनने के मुख्य स्त्रोत बन सकते हैं। शायद दक्षिण की राजनीति की धमक उत्तर की राजनीति को सांप्रदायिकता और ध्रुवीकरण से निकाल कर असल में विकास के मुद्दों की तरफ ला सके।

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Mazdoor Morcha
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