रमेश भंगी 70 के दशक की बात है, मैं रोज सुबह उठकर सुअर चराने जाता था। मां मैला ढ़ोने और साफ-सफाई का काम करती थी। पापा 9वीं पास थे, इसलिए वो चाहते थे कि हमलोग ये काम न करें। इसी वजह से पापा ईंट भट्टे में काम करते थे। मैं भी स्कूल से लौटते वक्त ईंट बनाने के लिए जाता था।
पहले मेरी जाति की वजह से स्कूल में एडमिशन नहीं हो रहा था और जब हुआ तो एक टीचर ने अपने घर पर बुलाकर मुझसे पूरे घर की साफ-सफाई करवाई। बाथरूम, टॉयलेट… सब कुछ साफ करवाया। आज भी लोग मुझसे नफरत करते हैं, मेरे हाथ से पानी भी नहीं पीते। हमें कुएं के किनारे से नीचे हाथ करके पानी पीना पड़ता था, ताकि पानी का छींटा कुएं पर न पड़ जाए। कुएं पर भी जाने की मनाही थी। मैं रमेश भंगी, मिनिस्ट्री ऑफ होम अफेयर्स (गृह मंत्रालय) से बतौर सीनियर ट्रांसलेटर ऑफिसर के पद से 2018 में रिटायर हुआ हूं। उत्तर प्रदेश के बागपत जिले के बलखपुर गांव में वाल्मीकि समुदाय में पैदा हुआ।
बचपन से लेकर अब तक मैंने भेदभाव के अनगिनत दंश झेले हैं। एक-एक कर अपनी पीड़ा बयां करने पर मेरे आंसू में ये शब्द मिल जाते हैं। क्या किसी को अपनी जाति की वजह से नाम बदलना पड़ा होगा? क्या सरनेम की वजह से शर्मिंदगी महसूस करनी पड़ी होगी? अगर आप ये सवाल मुझसे पूछेंगे तो जवाब सिर्फ हां होगा… मुझे अपना नाम एक-दो बार नहीं, तीन-तीन बार बदलना पड़ा… फिर भी लोग आज भी मुझसे घृणा करते हैं। लोग कहते हैं- ये कौन आ गया हमारी सोसाइटी में। हालांकि, इसी सोसाइटी ने हमारे काम को तय किया है, जिसे मुझे झूठा साबित करना था। 6 साल की उम्र में पापा मेरा एडमिशन करवाने के लिए गांव के एक स्कूल में लेकर गए थे। लेकिन एडमिशन नहीं हुआ, वजह मेरी जाति थी। फिर मैं अपनी बुआ के पास आ गया, एडमिशन फिर भी नहीं हुआ, यहां भी वजह मेरी जाति ही थी। मैं अपने गांव वापस आ गया। यहां चौपाल में एक नया स्कूल खुला, तो आखिरकार मेरा एडमिशन रमेश भंगी के नाम से हो गया। जब छठी क्लास में गया तो मुझे अपने नाम को लेकर अंदर-ही-अंदर घुटन होने लगी। स्कूल के बच्चे, टीचर मुझे भंगी कहकर बुलाते थे। इसके बाद मैंने अपना नाम रमेश चंद वाल्मीकि करवा लिया। फिर 8वीं-9वीं में आने के बाद मुझे लगा कि ये नाम भी अच्छा नहीं है, क्योंकि वाल्मीकि सरनेम होने की वजह से लोग मुझे साफ-सफाई वाला कहते थे। फिर मैंने अपना नाम बदलकर रमेश चंद गहलोत कर लिया, लेकिन ये बात मेरे स्कूल टीचर को नहीं जमी । मुझे याद है – मैंने स्कूल टीचर से कहा था कि वो मेरा नाम बदलकर रमेश चंद गहलोत कर दें। सुनते ही टीचर आग-बबूला हो गए। उन्होंने बोला- गहलोत बनोगे…। उस वक्त नाम आसानी से चेंज हो जाते थे। मैं सोचता था कि आखिर लोग मुझसे घृणा क्यों करते हैं? मेरे पास क्यों नहीं बैठना चाहते हैं। मुझे लगा कि हम लोग साफ-सफाई करते हैं, मैला ढ़ोते हैं। सुअर चराते हैं, पोर्क खाते हैं। शायद इसलिए वो घृणा करते हैं। मैंने पोर्क खाना छोड़ दिया, साफ-सफाई करना भी बंद कर दिया। ये काम इसलिए छोड़ा , ताकि मेरे नाम के साथ ये न जुड़े कि अरे! ये तो भंगी है। लेकिन लोगों की मानसिकता इतनी आसानी से कहां बदली जा सकती है। इसलिए मैंने दुनिया की परवाह छोड़ दी और वापस अपने नाम में भंगी जोड़ लिया। एक वाकया मुझे याद है। एक टीचर बनारस से बागपत शिफ्ट हुए थे। उन्होंने अपने घर की साफ-सफाई करवाने के लिए मुझे बुलाया था क्योंकि मैं भंगी हूं। घर, बाथरूम… सब कुछ उन्होंने मुझसे साफ करवाया। जब 17 साल का हुआ, तब मुझे पहली बार इंसान होने का एहसास हुआ। 11वीं क्लास में था, केमिस्ट्री लैब में प्रैक्टिस के दौरान टेस्ट ट्यूब टूट जाता था। तो एक दिन एक टीचर ने मुझे चप्पल पहनकर आने के लिए कहा क्योंकि टेस्ट ट्यूब का कांच पैर में चुभ जाता था। उस दिन पहली बार मैंने चप्पल पहनी। उसी टीचर ने मेरा नाम लेते हुए मुझे एक ग्लास पानी लाने को कहा। उस दिन मुझे एहसास हुआ कि मैं भी एक जिंदा इंसान हूं। इससे पहले आज तक किसी ने मुझसे पानी तक नहीं मांगा था, क्योंकि लोग मुझे अछूत मानते हैं।
छुआछूत की भावना ऐसी रही कि पापा बताया करते थे कि जब वो 9वीं क्लास में थे, तो उनके टीचर उन्हें एक लंबी छड़ी लेकर पढ़ाते थे ताकि टीचर को उनके पास न आना पड़े। सामाजिक जद्दोजहद के बीच मैं डॉ. भीम राव अंबेडकर की कहानी, उनके संघर्ष को पढ़ते हुए बड़ा हुआ। इसी वजह से पढऩे का चस्का लग गया, लेकिन घर की माली हालत ऐसी कि खाने के भी लाले थे। हालांकि, मेरी दादी दूसरे घरों में बच्चा पैदा होने के दौरान दाई का काम करने जाती थीं, इससे थोड़ा बहुत कुछ-न-कुछ खाने को मिल जाता था। बात 1978 की है जब 21 साल की उम्र में मैं बागपत से दिल्ली आ गया था। यहां मैंने शुरुआत कबाड़ बीनने से की। कबाड़ में जो अच्छी किताबें लगती थी, मैं छांटकर रख लेता। कभी-कभी कबाड़ का मालिक डांटता भी था कि काम करने आए हो या पढऩे?
कबाड़ी के काम के बदले दूसरा काम भी चुन सकता था, लेकिन रहने-खाने की दिक्कत थी। इसलिए 4 साल तक कबाड़ का काम किया। रोजाना 150 रुपए मिलते थे। उसके बाद 1982 में कबाड़ का काम छोडक़र दिल्ली में बस कंडक्टर का काम करने लगा। यहां भी जाति ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा। मैं बस कंडक्टर का रजिस्ट्रेशन करवाने गया था। भंगी होने की बात सुनकर काउंटर पर बैठा क्लर्क बोल पड़ा- यहां क्या कर रहे हो? कंडक्टर बनकर क्या करोगे? सफाई का काम कर लो।
मैंने ठान लिया था कि मेहनत का काम ही करूंगा, सफाई नहीं। 1982-93 तक, 10 साल मैंने बस कंडक्टर का काम किया, लेकिन मेरी पढ़ाई जारी रही और मैंने क्च्रकंप्लीट कर लिया। दो बस स्टॉप के बीच टिकट काटने के बाद मैं पढऩे लगता था। इसकी वजह से दिल्ली यूनिवर्सिटी के कई प्रोफेसर्स से मेरी पहचान हो गई। लोग मुझे किताब वाला कंडक्टर कहकर बुलाने लगे। साल 1992 बीत रहा था। केंद्र में जूनियर ट्रांसलेटर की वैकेंसी निकली थी और मैंने फॉर्म भर दिया। सौभाग्य से मिनिस्ट्री ऑफ होम अफेयर्स में मेरा सिलेक्शन हो गया। उसके बाद 3 साल के लिए मुझे डेप्युटेशन पर लोकसभा में भेजा गया।
ये तो बस शुरुआत थी, मैंने 1998 में क्कस्ष्ट द्वारा लिए गए एग्जाम को भी क्रैक कर लिया और फिर से मिनिस्ट्री ऑफ होम अफेयर्स में बतौर सीनियर ट्रांसलेटर ऑफिसर के पद पर आ गया। यहां भी मुझे जातिगत आधार पर भेदभाव का सामना करना पड़ा।
नफरत का आलम ये था कि अंतर राज्य परिषद, कैबिनेट सेक्रेटेरिएट, फाइनेंस मिनिस्ट्री, प्रधानमंत्री कार्यालय (क्करूह्र) समेत अधिकतर मंत्रालय से मुझे एप्रिसिएशन लेटर मिलने के बावजूद मेरे अपने डिपार्टमेंट सेंट्रल ट्रांसलेशन ब्यूरो में मेरे खिलाफ कई कंप्लेन दर्ज की गईं। झूठी शिकायत दर्ज की गई, चार्जशीट थमाई गई।
हालांकि, वो कुछ महीने बाद ही रद्द हो गया। मेरा इंक्रिमेंट रोक दिया गया, जो प्रमोशन 2005 में होना था वो 2018 में मेरे रिटायर होने तक नहीं हुआ। जबकि मेरे रिटायर होने के बाद ही अधिकांश लोगों को एडहॉक प्रमोशन दिया गया। जाति का दंश मेरे करियर या सिर्फ मेरे गांव तक ही सीमित नहीं रहा। अभी मैं गाजियाबाद में रहता हूं। यहां भी मुझे हर रोज भेदभाव का जाति का दंश मेरे करियर या सिर्फ मेरे गांव तक ही सीमित नहीं रहा। अभी मैं गाजियाबाद में रहता हूं। यहां भी मुझे हर रोज भेदभाव का सामना करना पड़ता है। रिटायर्ड अधिकारी होने के बावजूद भी मेरे सोसाइटी के लोगों के मन में रहता है कि ये तो सफाई का काम करने वाला है।
मुझे एक दिलचस्प वाकया याद आ रहा है। जब मैं 2007 में यहां शिफ्ट हुआ था, तो एक पड़ोसी से हमारे अच्छे रिश्ते थे। खाना-पानी… हर चीज का लेन-देन होता था। एक दिन उन्होंने हमारी जाति पूछ ली। पत्नी ने बताया कि हम भंगी हैं। उसी वक्त से उनका रवैया बदल गया।
आज भी जब सीढ़ी से नीचे उतरता हूं, तो लोग मुंह फेर लेते हैं कि कहीं भंगी का मुंह न देखना पड़ जाए। सोसाइटी के लोग हमें फ्लैट में भूत-प्रेत होने की बात कहकर डराते हैं। कहते हैं, यहां से फ्लैट बेचकर कहीं और चले जाओ। परेशान करने का आलम ये है कि छत पर रखे गमले, पानी की टंकी को तोड़ देते हैं। जाति है कि जाती ही नहीं।