‘किसी से ना कहना’, मोहम्मद ज़ुबैर की गिरफ़्तारी जिस हिंदी फिल्म के स्क्रीनशॉट के लिए हुई…

‘किसी से ना कहना’, मोहम्मद ज़ुबैर की गिरफ़्तारी जिस हिंदी फिल्म के स्क्रीनशॉट के लिए हुई…
July 26 01:59 2022

वंदना
टीवी एडिटर, बीबीसी भारत

‘किसी से ना कहना’ फिल्म ऑल्ट न्यूज़ के सह संस्थापक पत्रकार मोहम्मद जु़बैर का मामला लगातार सुर्खय़िों में है. 27 जून को उन्हें गिरफ़्तार किया गया था।
मोहम्मद जु़बैर पर धार्मिक भावनाओं को आहत करने और नफऱत फैलाने के आरोप हैं।

सारा मामला 2018 के उनके एक ट्वीट का है. पुलिस को मिली शिकायत के अनुसार, मोहम्मद ज़ुबैर ने कथित तौर पर जान बूझकर एक धर्म के अपमान के इरादे से एक तस्वीर पोस्ट की थी।

ये फ़ोटो दरअसल 80 के दशक की फिल्म के एक सीन का स्क्रीनशॉट था। इस फिल्म को मशहूर निर्देशक ऋषिकेश मुखर्जी ने 1983 में रिलीज़ किया था। फ़िल्म का नाम था ‘किसी से ना कहना।’

ऋषिकेश मुखर्जी की ‘चुपके चुपके’, ‘गोलमाल’ जैसी ज़्यादातर दूसरी फिल्मों की तरह ये फिल्म भी एक हल्के फुल्के मिजाज़ वाली, मध्य वर्गीय परिवार की ‘मिडल ऑफ द पाथ’ सिनेमा वाली फ़िल्म है। उत्पल दत्त और ऋषिकेश का कमाल फ़ारुख़ शेख़, दीप्ति नवल, सईद जाफऱी जैसे अव्वल कलाकार और ऋषिकेश मुखर्जी के पसंदीदा उत्पल दत्त इस फिल्म के मुख्य किरदारों में हैं। फिल्म का एक स्क्रीनशॉट भले ही सुर्खियों मे हो लेकिन विवादों से कोसों दूर, ‘किसी से ना कहना’ नाम की ये फिल्म सेंसर बोर्ड से पास होने के बाद टीवी पर भी कई बार दिखाई जा चुकी है। जिस तरह फिल्म ‘गोलमाल’ में उत्पल दत्त इस बात पर अड़ जाते हैं कि आधुनिक युग के नौजवान को न खेल-वेल में रुचि होनी चाहिए, न फ़ैशन में, उसकी मूंछ होनी चाहिए और परिधान एकदम पारंपरिक। अगर ऐसा नहीं है तो नौजवान किसी काम न नहीं. ‘गोलमाल’ का भवानीशंकर तो अपनी बेटी से यहाँ तक कहता है, ”तुम्हारी शादी उससे नहीं होगी जिसे तुम प्रेम करती हो, तुम्हारी शादी उससे होगी जिसे मैं प्रेम करता हूँ।”

कुछ उसी तरह फि़ल्म ‘किसी से ना कहना’ में कैलाशपति त्रिवेदी यानी उत्पल दत्त की जिद ये है कि उनका बेटा (फ़ारुख़ शेख़) एक ऐसी लडक़ी से शादी करे जिसे ‘अंग्रेज़ी-वेज़ी’ न आती हो, जो गाँव से हो। क्योंकि बकौल उत्पल दत्त अंग्रेज़ी में पढ़ी लिखी नवयुवतियाँ संस्कारी नहीं होती। अपने बेटे से उनका कहना है, ”तुम्हारे लिए अपनी सभ्यता और संस्कृति जानने वाली लडक़ी को लाऊँगा जिसे अंग्रेज़ी का एक लफ्ज़़ भी न मालूम हो।” यानी हर दौर में चलने वाली संस्कृति और आधुनिकता के बीच की बहस जिसमें ऋषिकेश मुखर्जी ने अपने स्टाइल की कॉमेडी का पुट डाला है और उसमें किरदारों की सनक और अफऱातफऱी.. और मिलकर तैयार होती है कि एक मनोरंजक फिल्म। ‘केके ने कुमार सानू, सोनू निगम, जैसे सिंगर्स के बीच अपनी राह बनाई’

फारुख़ शेख के अंकल बने सईद जाफऱी के एक डायलॉग में पूरे मसले को समेटा जाए तो ‘रमोला है एमबीबीएस और तुम्हारे पिताजी (यानी उत्पल दत्त) चाहते हैं ऐसी लडक़ी जिसे एबीसी भी न आए… पर रामायण और महाभारत की वो पंडित हो।’ एक गाँववाली लडक़ी का झूठा रूप धारण करने के बाद दीप्ति नवल की शादी फ़ारुख़ शेख से हो जाती है और अब कवायद ये है कि ये राज़ किसी से न कहा जाए। फिल्म की शुरुआत यानी क्रेडिट्स अलग तरीके से फिल्माए गए हैं- हर किरदार मनोरंजक तरीके से पर्दे पर आकर चुपके से बार बार यही कहता है कि ”किसी से ना कहना” और साथ में सुंदर इलस्ट्रेशन चलते हैं।

ऋषिकेश मुखर्जी ने ऐसे कई यादगार किरदार अपनी फ़िल्मों में गढ़े हैं जो थोड़े से सनकी, विचित्र, अलबेले हैं हालांकि दिल के बुरे नहीं। ”किसी से ना कहना” का कैलाशपति (उत्पल दत्त) भी ऐसा ही अलबेला किरदार है। जैसे ‘चुपके चुपके’ के ओम प्रकाश वाला किरदार जिस पर शुद्ध हिंदी बोलने का भूत सवार है। अपनी फिल्मों में ऋषिकेश मुखर्जीं कहानी के बीचोबीच बहुत सारे असल किरदारों को भी मज़ेदार तरीके से पिरो लेते थे और हँसा भी देते थे। मसलन ‘किसी से ना कहना’ में 80 के दशक की तमाम उन असल हस्तियों का किसी न किसी बहाने से जिक्र है जो उस समय चर्चा में रही होंगी। फिल्म का ये सीन लीजीए। उत्पल दत्त के टेस्ट में पास होने के लिए दीप्ति नवल को तैयार किया जा रहा है और सईद जाफऱी (महाभारत के संदर्भ) में दीप्ति से पूछते हैं- संजय कौन था? तो मासूम सा चेहरा बनाकर दीप्ति तपाक से जवाब देती हैं- ”कौन संजय, संजय दत्त या संजय गांधी?”

संजय दत्त ने 1981 में फिल्म ‘रॉकी’ से डेब्यू किया था और संजय गांधी की मौत 1980 में हुई। ज़ाहिर है उसी दौर में फिल्म की शूटिंग हुई होगी। खेलों का जिक्र भी ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्मों में बहाने से आ ही जाता है। जैसे ‘किसी से ना कहना’ में अपनी डांसर प्रेमिका की तारीफ़ करते हुए देवेन वर्मा करते हैं कि जैसे कपिल देव ऑलराउंडर हैं, उनकी मंगेतर भी हर तरह के डांस में ऑलराउंडर हैं। सऊदी अरब में संगीत समारोहों पर आखिर महिलाएं क्यों खड़े कर रही हैं सवाल या फिर वो सीन जहाँ उत्पल दत्त अपने बेटे की शादी के लिए एक लडक़ी को देखने जाते हैं जो रॉक संगीत की फ़ैन है। जब उत्पल दत्त पंडित रवि शंकर का जिक्र करते हैं तो लडक़ी (केतकी दवे) कहती है, ”शास्त्रीय संगीत मुझे बोरिंग लगता है और उसे गाने-बजाने वाले भी। लेकिन वो नया आर्टिस्ट आया है न, तबला प्लेयर, ज़ाकिर हुसैन वो बहुत हैंडसम हैं।”

ज़ाकिर हुसैन ने 1979 में वैन मॉरिसन की एल्बम ‘इनटू द म्यूजिक’ और 1983 में अमेरिकी बैंड ‘अर्थ, विंड और फ़ायर’ की एल्बम ‘पावरलाइट’ में परफ़ॉर्म किया था। और किसी से न कहना भी जुलाई 1983 में रिलीज़ हुई थी। और तो और लखनवी अंदाज़ वाले सईद जाफऱी के ज़रिए फ़ैज़ का जिक्र भी आता है फिल्म में जब सईद फऱमाते हैं- ”तुझको कितनों का लहू चाहिए…..” यानी फिल्म की कहानी के बीच में ऋषि दा एक अलग तरह की सामाजिक कॉमेंट्री भी करते रहते थे। अगर बरसों बाद भी वो फिल्में देखें तो उस समय की असल घटनाओं और समय चक्र का पता चलता रहता है। मज़ाक-मज़ाक में ऋषि दा सरकारों पर चुटकी भी ले ही लेते हैं अपनी फिल्मों में। जैसे ‘किसी से ना कहना’ में जब उत्पल दत्त झूठमूठ की अनपढ़ और गाँव की लडक़ी रमा (यानी दीप्ति नवल) को देखते हैं तो काफ़ी प्रभावित होते हैं और कहते हैं कि भगवान अभी भी ऐसी लडक़ी बनाते हैं?

बदले में सईद जाफऱी जवाब देते हैं, ‘इसमें कुछ भगवान का हाथ है, कुछ उसके माता-पिता का और कुछ उस सरकार का जो आसपास अंग्रेज़ी स्कूल खोलना भूल गई।’
फिल्म के इन चुटीले संवादों और वन लाइनर्स का श्रेय जाता है राही मासूम रज़ा को जिन्होंने ‘गोलमाल’, ‘कर्ज़’, ‘लम्हे’ जैसी फिल्मों के डायलॉग लिखे हैं और महाभारत के लिखे उनके संवाद तो आज तक लोकप्रिय हैं। उनकी शखिसयत को बयां करने के लिए तो एक अलग लेख की ज़रूरत है। ‘पुष्पा झुकेगा नहीं’, बॉलीवुड से टक्कर में दक्षिण का सिनेमा क्यों बढ़ रहा आगे अब तो ऋषिकेश मुखर्जी और फ़ारुख़ शेख़ दोनों ही इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन 2011 में बीबीसी को दिए इंटरव्यू में फ़ारुख़ शेख़ ने ऋषि दा को कुछ यूँ याद किया था, ”ऋषि दा उन्हीं कलाकारों के साथ काम करते थे जिनके साथ काम करके उन्हें ख़ुशी मिलती थी। इसलिए ज़्यादातर वो अपनी फिल्मों में कलाकारों को रिपीट करते थे. वो वक़्त के बड़े पाबंद थे। एक बार एक बड़े स्टार उनके सेट पर नौ बजे की शिफ़्ट में 12.30 बजे आए. ऋषि दा बहुत गुस्से में थे। जैसे ही वो स्टार मेक-अप करके शॉट के लिए तैयार हुए ऋषि दा ने कहा पैक-अप। आज शूटिंग नहीं होगी।”

फ़ारुख़ शेख के साथ ऋषिकेश मुखर्जी ‘रंग बिरंगी’ और ‘किसी से न कहना’ फिल्मों में काम किया। ‘किसी से न कहना’ में स्पेशल अपियरेंस में ‘गोलमाल’ वाले अमोल पालेकर भी झलक दिखलाकर जाते हैं। ऋषिकेश मुखर्जी को याद करते हुए बीबीसी के इंटरव्यू में अमोल पालेकर ने बताया था, ”वो निर्देशक के तौर पर अपना प्रभाव जमाने की कोशिश नहीं करते थे। वो सिर्फ़ सीधे-साधे तरीके से कहानी कहने में यक़ीन रखते थे। वो कलाकारों के लिए बेहद सहज माहौल बना देते थे, जिससे सभी को एक्टिंग करते समय बड़ी आसानी होती थी। वो रीटेक्स लेने में यक़ीन नहीं रखते थे।”

”कभी हम कहते कि ऋषि दा ये शॉट अच्छा नहीं हुआ. एक और टेक करते हैं। तो वो कहते कि नहीं बेटा अच्छा तो किया है। फिर भी हम नहीं मानते तो वो कहते कि ठीक है एक टेक और लेते हैं। फिर वो दूसरा टेक जैसे ही पूरा होता तो वो कहते वाह, वाह। क्या बात है। मज़ा आ गया। लेकिन हम पहला टेक ही रखेंगे।”

फिल्म किसी से ना कहना की बात करें तो सचिन भौमिक जैसे स्कीनप्ले राइटर ने ‘किसी से न कहना’ की कहानी लिखी है जिन्होंने ‘गोलमाल’, ‘कर्ज़’, ‘कर्मा’, ‘कोयला’, ‘ताल’, ‘कोई मिल गया’, ‘कृष’ जैसे स्क्रीनप्ले भी दिए. बप्पी लाहिड़ी ने न सिर्फ़ संगीत दिया बल्कि गाया भी है। संगीत की बात चली है तो फ़िल्म के डायलॉग में लता मंगेशकर और आशा भोसले का जिक्र भी बहाने से ऋषि दा कर ही देते हैं। दोनों उस वक्त अपने ऊरूज पर थीं। और फिल्म में देवेन वर्मा अपनी एक मंगेतर की गायकी की तारीफ़ उसे लता भोंसले का दर्जा देकर करते हैं- ”ऐसी आवाज़ जिसमें लता और आशा की आवाज़ का कॉकटेल हो।”

‘ख़ूबसूरत’, ‘गोलमाल’, ‘बावर्ची’, ‘रंग बिरंगी’- इसी जॉनर की ऋषिकेश मुखर्जी की दूसरी फिल्मों की तुलना में ‘किसी से ना कहना’ मेरी पसंदीदा फि़ल्म तो नहीं कहलाती लेकिन ऋषिकेश दा की खट्टी मीठी फ़िल्मों वाली बात तो इसमें भी है। साल 1981 में ‘चश्मे बद्दूर’ में काम एक साथ काम कर चुके दीप्ति नवल, फ़ारुख़ शेख और सईद जाफऱी वैसा जादू तो नहीं जमा पाते पर चेहरे पर प्यारी सी मुस्कान तो ला ही देते हैं।

मोहम्मद ज़ुबैर से जुड़े विवाद ने 41 बरसों बाद ऋषिकेश मुखर्जी की इस फिल्म को फिर से चर्चा में ला दिया है।
‘किसी से ना कहना’ फिल्म को लेकर हुए विवाद पर दीप्ति नवल ने बीबीसी से बातचीत में कहा, ‘मुझे नहीं पता कि उन्होंने किस संदर्भ में ये ट्वीट किया था, क्या कोई बात पहले से चल रही थी। इसलिए मैंने इस मुद्दे पर कोई टिप्पणी नहीं की। जहां तक फिल्म की बात है तो ये बड़ा मासूम सा सीन था कि एक नया शादीशुदा जोड़ा हनीमून पर गया है, जैसे हल्के फुलके सीन ऋषिकेश मुखर्जी की फ़िल्मों में होते थे।’

अजीत: ‘सारा शहर मुझे लायन के नाम से जानता है’
ख़ैर फिल्म का मसला आखिर कैसे सुलझता है, सुलझता है भी या नहीं, आधुनिक लडक़ी बनाम भारतीय लडक़ी वाली बहस का क्या होता है, ये तो आपको फ़िल्म देखकर ही मालूम होगा।

जाते-जाते फ़ैज़ का वो पूरा शेर जिसका जिक्र सईद जाफऱी फ़िल्में में करते हैं-
तुझ को कितनों का लहू चाहिए ए अर्ज़-ए-वतन
जो तिरे आरिज़-ए-बे-रंग को गुलज़ार करे
कितनी आहों से कलेजा तिरा ठंडा होगा

कितने आँसू तेरे सहराओं को गुलज़ार करें
(आरिज़-ए-बे-रंग- ग़ुलाब के रंग जैसे गाल; सहरा- रेगिस्तान, विराना)

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Mazdoor Morcha
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