मेहजबीं मेरी अम्मी बिहार दरभंगा से थीं। और अब्बा यूपी सहारनपुर से। दोनों की ज़बान बिल्कुल अलग थी। उन दोनों को बातें करते हुए कोई दिक्कत नहीं होती थी। वो दोनों बाख़ूबी एकदूसरे की बात समझ जाते थे।
हम दोनों बहन भाई के लिए ये हैरत की बात नहीं थी।क्योंकि हम बचपन से उनके संवाद दो अलग ज़बान में सुनते हुए ही बड़े हुए हैं। हम अपनी अम्मी और अब्बा दोनों की भाषा अच्छी तरह समझते हैं। अब्बा की भाषा थोड़ा बहुत बोल भी लेते थे पहले। अम्मी की भाषा बोल नहीं सकते ठीक तरह से। अम्मी जब दुनिया से रुख़सत हुई तो उनकी ज़बान भी मुझसे दूर चली गई। जब ख़ाला आती या उनके गाँव का कोई तो उनकी भाषा के शब्द कानों में जैसे जैसे पड़ते अम्मी का चेहरा आँखों के सामने घूमता रहता।
मेरी हमेशा यही ख़्वाहिश रहती है कि अम्मी और अब्बा की ज़बान बोलने वाले लोग मेरे इर्द-गिर्द रहें। कभी कोई अम्मी या अब्बा के यहाँ का कोई मिलता है। उसकी ज़बान से अम्मी या अब्बा की भाषा के शब्दों को सुनती हूँ तो। महसूस होता है इनमें से बहुत से शब्द तो ज़हन में याद नहीं थे। सुने तो फिर से याद आ गये। मसलन अम्मी किसी चीज़ या इंसान के खो जाने को कहती थीं। “हैरा गैलई” “भुतला गैलई” कोई बात समझाती तो बोलती थी। “समझलूहु की न समझलूहु” मैं जब हरियाणा से बीएड कर रही थी। परीक्षा के दौरान वहीं रही। गाँव की अपनी क्लासमेट के साथ एग्ज़ाम सेंटर पर इम्तिहान देने जाती। रस्ते भर हम गाड़ी में रीविजन करती हुई जाती थीं। मैं ख़ामोश हो जाती तो वो मुझे ख़ामोश नहीं रहने देती। अकेले खिडक़ी से बाहर झांकती हुई जाती तो मुझे अपनी ओर मुतवज्जेह करतीं।
“ए मेहजबीं तू बोल को ना री…यूं चुपचाप न रैया कर हँसती हुई चौख्खी लागे।” “तू त माहरी मेहमान से उदास ना रैन दें क़तई” अजनबी जगह पर अजनबी लोगों से अपनापन मुहब्बत मिलना किसी छोटे गाँव में ही मुमकिन है। धीरे धीरे तो महानगरों में भी दाखि़ले के बाद कॉलेज यूनिवर्सिटी में सबसे दोस्ती हो जाती है। कॉलेज यूनिवर्सिटी के बाहर कॉलोनी में लोगों के बीच अपनेपन की खाई बढ़ती जा रही है। कॉलोनी के घर भी बिल्कुल फ्लैट की तरह बन रहे हैं। महानगरों में सब रिजर्व लाइफ जी रहे हैं। बैठकों में बैठकर साझा तरीक़े से त्योहार सेलीब्रेट करना, अख़बार पढऩा,पान बीड़ी लेना सब ख़त्म हो गया है। जैसे हदीस में लिखा है पड़ोसी के हक़ूक़ के बारे में। “पड़ौसियों के साथ अच्छा तालुक़ात रखो,अच्छा अख़लाक़ रखो। अच्छी चीज़ लाओ बनाओ तो उन्हें भी दो। मुसीबत में उनका साथ दो।” अब ये सब बातें धीरे धीरे ख़त्म हो रही हैं। जैसे जैसे लोग सिमट रहे हैं अपनी चार दीवारों में…लोगों के बीच संवाद भी सिमट रहा है। संवाद सिमट रहा है तो भाषाएं सिमट रही हैं। वेब सीरीज़ फिल्मी शब्द लोगों की ज़बान पर हैं। जो बात पूरी एक तहरीर लिखकर मुकम्मल की जाती थी। वो काम अब छोटी सी इमोज़ी कर देती है। फेसबुक व्हाट्सएप पर बूढ़े बच्चे सब इमोज़ी का प्रयोग कर रहे हैं बातचीत के दौरान। बच्चों को कक्षा के सिलेबस में तरह तरह की इमोज़ी के मीनिंग पढ़ाए जा रहे हैं। इमोज़ी तो धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रही है। मगर संप्रेषण कौशल पिछे छूटता जा रहा है। संप्रेषण जब पिछे छुटेगा तो ज़ाहिर है भाष का नुकसान तो होगा ही। लोगों की बातचीत और मुलाक़ात में औपचारिकता ज़्यादा है। जो बातें पहले स्वभाविक थीं बातचीत में वो अब बैड मैनर्स का हिस्सा हैं। मसलन ; अब किसी से यह पूछना कि फलां वस्तु कितने की है, और कहाँ से खऱीदी है? अब बैड मैनेर्स है। आपकी सेलरी कितनी है ? ये सवाल आप किसी से नहीं पूछ सकते। फलां चीज़ कैसे बनाई मुझे भी इसका तरीक़ा बता दो ? लोग इन बातों को बताना नहीं चाहते। अपनी रेसिपी किसी से शेयर नहीं करना चाहते। अब हर शख़्स के अपने सीक्रेट्स हैं। महानगरों की सोशल लाइफ का यही सच है अब। लोगों के बीच औपचारिकता है, बड़ी खाई है। संवाद सिमट गये हैं। अपने ही परिवार में लोग एकदूसरे से कम बोलते हैं। भाषाओं का क्या हाल होने वाला है ऐसी स्थिति में ? महानगर से थोड़ा दूर जब गाँव के कॉलेज से बीएड किया तो बहुत अच्छा लगा मुझे। हरयाणवी भाषा सुनने को मिलती। मेरी क्लासमेट मुझे हँसाती रहती… एग्ज़ाम देने जाने के टाइम तो उतना हम नहीं बात करती थीं। मगर वापसी में सब टेंशन फ्री होती थी। सब बातें करतीं। एग्ज़ामीनेशन हॉल में क्या ख़ास हुआ आज के दिन। या प्रश्न पत्र पर चर्चा करती। हँसी की बात होती तो हँसती भी। एक प्रश्न के उत्तर में थियोरी के साथ बिल्ली की फिगर भी बनानी थी। मैंने वो प्रश्न विकल्प में छोडक़र दूसरा किया था। उन सबने वही किया था। वो बोल रही थीं। “यू ड्राइंग का काम इब ना होवे” “बिल्ली, शेर , चित्ते इब को न बनन लागरे” “तेरी बिल्ली किसी बनी थी ?” “पूच्छे को न क़तई भुंडी बिल्ली बनन लगरी।” किसी भद्दी सूरत शक़्ल वाले को ; “भुंडी शक़्ल”, “भु़ंडा मुँह” हमारे अब्बा के सहारनपुर में भी बोलते हैं। उनकी बातों से मैं बहुत से शब्द ऐसे सुनती जो अब्बा के यहाँ भी बोले जाते हैं। मैं उन्हें बताती यह शब्द मेरे ददिहाल में बोले जाते हैं। घी भूरा उनके यहाँ भी चलता है, हमारे ददिहाल में भी। बातों बातों में एक जैसे शब्द सुनने को मिलते। नॉलेज में इज़ाफ़ा होता। मैं जब दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ती थी…कालिंदी कॉलेज में…वहाँ भी बहुत से क्षेत्र की स्टूडेंट्स थीं। पंजाब, हरयाणा, दिल्ली, बिहार, उत्तर प्रदेश की साउथ इंडियन भी। सब तरह के शब्द कानों में पड़ते। कितना अच्छा लगता था। अपने मुहल्ले में भी हम पंजाबी, हरयाणवी, भोजपुरी, राजस्थानी सब तरह की बोलियां सुनकर बड़े हुए हैं। धीरे धीरे महानगरों से यह बोलियाँ भाषाएँ इनके शब्द गायब हो रहे हैं। अब सब या तो शुद्ध अंग्रेजी या शुद्ध किताबी हिन्दी में बात करते हैं। बच्चें बाहर दोस्तों की भाषा में प्रयोग होने वाले शब्द या एक्सेंट को इस्तेमाल करें तो उन्हें अभिभावकों से डाँट सुनने को मिलती है।बच्चों पर अभिभावकों का प्रेशर रहता है। या तो इंग्लिश बोलने का,या अपनी ही भाषा बोलने का,या शहरी हिन्दी बोलने का। क्या गुनाह हो जाएगा अगर बच्चा दोस्तों के साथ मिलकर उसकी भाषा के एक्सेंट या शब्द भी सीख ले बोल ले ? क्षेत्रवाद,जातिवाद, बिरादरीवाद, भाषागत अलगाव कहीं न कहीं सब पर हावी है।
मैं शहरी हिन्दी बोलती हूँ…मगर तरसती हूँ अपनी अम्मी की भाषा के शब्द सुनने को। अब्बा की भाषा के शब्द सुनने को। मेरे मकान में कोई उन क्षेत्रों से रहने आता है तो उनके संवाद ग़ौर से सुनती हूँ ताकि अपनी अम्मी ओर अब्बा की भाषा को अपने ज़हन में हमेशा महफूज़ रख सकूं। पंजाबी गीत,और यूपी बिहार राजस्थान के लोकगीत मैंने बचपन से मोहल्ले की शादी ब्याह में सुनें। मुझे बहुत अच्छा लगता है सुनना।
चेस्टा सक्सैना जी और उनकी सिस्टर निशिता जी वर्तमान सामाजिक आर्थिक राजनैतिक स्थिति पर बुंदेली भाषा में व्यंग्यात्मक विडियो बनाती हैं “पुष्पा जिज्जी” नाम से। उनकी स्क्रिप्ट जबरदस्त होती है। हास्य व्यंग्य शैली में एकदम सटीक टीप्पणी करती हैं वो…सबसे बड़ा कमाल है भाषा का। जो बुंदेली नहीं बोल सकता वो भी उन विडियो को ख़ूब समझता है।उनकी विडियो से बुंदेली भाषा हटा दी जाए तो व्यंग्य का सारा रस समाप्त हो जाएगा। बहुत से लोग अपनी बोली भाषा में विडियो बना रहे हैं। लोग देख भी रहे हैं दूसरी भाषा के विडियो पूरे आनंद के साथ। यही भाषा जब अपना बच्चा किसी को फॉलो करके बोल देता है तो उसके मुँह पर थप्पड़ क्यों पड़ता है ? देखते हैं इतनी बारीक़ और गहरी खाईयों के बावजूद राहुल गाँधी कितने लोगों को जोडक़र भारत जोड़ो आंदोलन को सफल बना सकते हैं। सिफऱ् सडक़ पर साथ दौडऩे से भारत नहीं जुड़ सकता। भाषा, जाति,क्षेत्र,बिरादरी की दूरी भी कम करनी पड़ेंगी।
किसी की भाषा से नफरत करना उससे दूरी बनाने का मतलब है कि हम इंसानों से और इंसानियत से दूर जा रहे हैं। संवाद कम करने का मतलब है कि हम भाषा को मार रहे हैं। संवाद के बग़ैर किसी के भाव को कैसे समझ सकते हैं। इमोज़ी काफ़ी है किसी की मन: स्थिति जानने के लिए, अभिव्यक्ति के लिए ? जुडऩे के लिए ?