फरीदाबाद (म.मो.) खोरी की जिस बस्ती को अवैध बता कर तोड़ा गया है वह दरअसल उन गरीब मज़दूरों की थी जिन्हें कभी यहां खदानों व क्रैशरों में काम करने के लिये लाकर बसाया गया था। अब यहां न खदाने रही और न ही क्रैशर, ऐसे में इन गरीब मज़दूरों का यहां क्या काम? दूसरे, जब ये लोग यहां बसाये गये थे तो इस ज़मीन की यहां कोई कीमत नहीं थी लेकिन आज यह ज़मीन बेशकीमती हो चुकी है। इस ज़मीन से सट कर दो पंचतारा होटल बने हुए हैं तथा थोड़ा हट कर हरियाणा सरकार का मशहूर पर्यटन स्थल सूरजकुंड व उसका पंचतारा होटल राजहंस बना है।
इतनी खूबसूरत एवं आलीशान ऐयाशगाहों के बीच गरीबों की यह बस्ती मखमल में टाट के पैबंद की मानिंद खटकती थी। इसे उजाडऩे के लिये जिस पीएलपीए (पंजाब लैंड प्रोटेक्शन एक्ट) 1900 की आड़ ली गयी है, क्या वह केवल इसी बस्ती के लिये बनाया गया था? क्या इस से सटे उक्त दोनों होटल, सुरजकुंड पर्यटन स्थल व अन्य आलीशान इमारतें इस दायरे में नहीं आती? बखूबी आती हैं। दरअसल पीएलपीए का दायरा खींचने वाली कलम शासक वर्गोंं के अपने हाथ में होती है, वे जब चाहें जैसे चाहें अपनी कलम को घुमा सकते हैं।
विदित है कि पीछले दिनों खट्टर सरकार ने पीएलपीए को तोड़-मरोड़ कर, यह क्षेत्र बिल्डरों के हवाले करने की तैयारी पूरी कर ली थी। अपने बहुमत के बल पर उन्होंने इस बाबत विधानसभा में बिल पारित करवा कर गवर्नर के हस्ताक्षर भी करवा लिये थे। पर्यावरण विदों एवं कुछ जागरुक नागरिक संगठनों के हो हल्ले का संज्ञान लेते हुये माननीय उच्चतम न्यायालय ने हरियाणा सरकार को हरकाते हुये खबरदार किया कि वह अरावली के जंगलात के साथ छेड़छाड़ न करें।
समझने वाली बात यह है कि जनता द्वारा चुनी हुई एक सरकार ने अपने बहुमत के बल पर, तमाम जनविरोधों के बीच जंगलात को बेच खाने का कानून पास कर दिया। लेकिन इसे इत्तफाक कहिये कि उच्चतम न्यायालय के किसी जज को खट्टर सरकार की यह जनविरोधी चाल पसंद नहीं आई और उन्होंने इस पर स्थगण लगा दिया। अब देखने वाली बात यह है कि जब कोई जज स्थगण लगा सकता है तो कोई दूसरा, आने वाले समय में उसे हटा भी सकता है। जिस व्यवस्था में मुनाफाखोरी, लूट-खसूट इस हद तक व्याप्त हो कि जनता के सांस लेने तक के अधिकार छीने जा सकते हैं तो वहां बकरे की मां कब तक खैर मनायेगी।
सुधी पाठकों ने बीते डेढ़-दो महीनो में देखा होगा कि गरीबों की बस्ती उजाड़ते वक्त प्रशासनिक गशीनरी के हाथ-पांव कितनी फुर्ती के साथ चलते हैं और फार्म हाउसों, बैंक्वेट हॉल आदि की ओर जाते वक्त इनके हाथ पांव फुलने लगते हैं; बड़ी एवं आलीशान इमारतों की ओर तो झांकने तक कि हिम्मत ये लोग नहीं जुटा पाते। वहां के लिये कागज-पत्तर देखने-दिखाने की बात करते हैं। इन सब बातों से स्पष्ट हो जाता है कि शासक वर्ग, जिसमें न्यायपालिका भी शामिल हैं, केवल मखमल में लगे टाट के पैबंद हटाने में जुटा है।