विवेक कुमार भारत देश की पुलिस जो बर्ताव अपने नागरिक या यों कहें कि जिस तरह से अपनी ड्यूटी करती है उसमें ऐसा क्या खास है जिसके लिए हमें पुलिस की जरूरत है? थाने में आए पीडि़त को ही पीट देना, बलात्कार की शिकायत करवाने आई युवती से ही बलात्कार करना, पुलिस कस्टडी में आरोपी की हत्या होना, दंगों में एक पक्ष को हावी होने देना और कई दफा खुद ही दंगाई के रोल में आ जाना जैसा कि 1987 में हाशिमपुरा और मलियाना हत्या कांड में हुआ। 2002 के गुजरात दंगे और 2021 के दिल्ली दंगों में भी पुलिस ने दंगाइयों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर देश का नाम रोशन किया। ऐसी पुलिस किस समाज को चाहिए?
अपनी जीवनी ‘बाबरनामा’ में प्रथम मुग़ल शासक बाबर लिखता है कि “पहली बार भारत आने पर, खास तौर पर भारत के गंगा के मैदानी हिस्सों में उसने पाया कि, प्रजा को राजा के मारे जाने या बचे रहने से कोई खास फर्क़ नहीं पड़ता और सैनिकों व दरबारियों का भी हाल ऐसा ही है, वे विजयी हुए अगले शासक के वफादार बन जाते थे न कि अपने राजा के साथ लड़ते हुए शहीद होते थे”। ऐसे ही शासकों से शासित होते थे उनके सिपाही और फौज जिनमे लडऩे की भावना केवल आका से निर्धारित होती थी फिर वो चाहे तुर्क हो, या अफग़ान या फिर कोई हिन्दू राजा।
जलियाँवाला बाग हत्याकांड को बीते 13 अप्रैल को 104 वर्ष हुए हैं। ब्रिगेडियर जनरल डायर को हम उसकी क्रुरता के लिए कोस सकते हैं, पर क्या हमें यह सवाल नहीं पूछना चाहिए कि उसके अधीन उन पचास से अधिक फ़ौजियों की अंतरात्मा को क्या हो गया था, जिन्होंने बिना किसी ना नुकुर के गोरे सेनानायक के आदेश पर अपने ही देशवासियों पर अंधाधुंध गोलियाँ चलाई और डायर ने अपने कोर्ट मार्शल में स्वीकार किया था कि फायरिंग तभी बंद की गई जब टुकड़ी के पास गोलियाँ ख़त्म हो गयीं। 1857 के बाद 1930 में पेशावर के निहत्थे पठानो पर आदेश मिलने के बाद भी हवलदार चंद्र सिंह के नेतृत्व में गढ़वाली सैनिकों द्वारा गोली चलाने से इंकार को अपवाद ही कहा जायेगा, क्योंकि आमतौर से तो भारतीय सिपाही अंग्रेज़ अफ़सर के हुकुम की तामील करने को उत्सुक ही रहते थे।
ठीक इसके साथ एक अन्य ऐतिहासिक घटना का जिक्र मौजूं होगा। एक भारतीय जो हांगकांग में रहते हैं, यह देखकर बड़े दु:खी थे कि बहुजातीय समाज हांगकांग में भारतीयों के प्रति आम नागरिकों की राय बड़ी खराब है। उत्सुकतावश उन्होंने लोगों से जानने की कोशिश की तो पता चला कि इस दुर्भावना के पीछे ऐतिहासिक घटनाक्रम हैं। 1840 के दशक में जब अंग्रेजों ने हाँगकांग को अपना उपनिवेश बनाया तो उन्हें शासन चलाने के लिए पुलिस की जरूरत पड़ी। जल्द ही उनकी समझ में आ गया कि स्थानीय निवासी इस काम के लिए माकूल नहीं हैं। वे अपने ब्रिटिश कमांडरों के हुकुम पर जनता के साथ ज्यादती करने को तैयार नहीं थे। तब अंग्रेजों को अपने दूसरे उपनिवेश भारत की याद आयी और हाँग काँग की नींव के पत्थर बने भारतीय सिपाही। इन भारतीय सिपाहियों को जब अपने देश के साथ बर्बरता करने में कोई संकोच नहीं होता था तब भला विदेशियों को वे क्यों बख्शते? ये उनकी ज्यादतियों की स्मृतियाँ हैं, जो आज भी हाँगकांग वासियों के मन में कटुता जीवित रखे हुए हैं।
उपरोक्त बातों का जिक्र पुलिस और समाज के संदर्भ में किया गया है। अतीक अहमद, उसके भाई को पुलिस के बीचों-बीच जाकर तीन मवाली टाइप लडक़ों ने पॉइंट ब्लैंक से गोली मार दी। हालांकि वीडियो में साफ-साफ देखा जा सकता है कि पुलिस ने वहाँ सिवाय वर्दी पहने होने के ऐसा कुछ भी नहीं किया जिसे पुलिसिंग कहा जाए। बेशक खुल कर किसी मंच से इसमे योगी के हाथ होने की आवाज कहीं से सुनाई न दी हो पर विचारधारा के स्तर पर इस समय दो भागों में बंट चुके इस देश के नागरिक को यह शक है कि कहीं इसमे सूबे के मुख्यमंत्री का हाथ न हो। सब मानते हैं कि इसमे प्रशासन और पुलिस की मिलीभगत है। इस बात में सच्चाई कितनी है बेशक कोई नहीं जानता पर मन में सबके ये बात गहरे बैठी है। भाजपा के समर्थक इससे खुश हैं तो विरोधी कानून के शासन का न होने का हवाला दे रहे हैं।
अतीक और उसके भाई को रात के 10.30 बजे रूटीन चेकअप के लिए अस्पताल ले जाना, वह भी तब जब डॉक्टर को भी जेल में बुलाया जा सकता था। गोली चलाते लडक़ों पर पुलिस ने कोई एक्शन नहीं लिया बल्कि वे खुद ही समर्पण करते हैं, इत्यादि इत्यादि जैसे हजारों सवाल खड़े करके एक दिन में मुख्यमंत्री से लेकर सबको नंगा किया जा सकता है। पर कौन करे और क्यों? बहरहाल, फिलहाल हम बात इस हत्या और उससे पहले अतीक के बेटे का कथित मुठभेड़ में पुलिस द्वारा मारा जाने की कहानी के लूपहोल और उसकी बारीकियों पर नहीं करेंगे बल्कि उससे भी आवश्यक बात पर करेंगे जिसे कहते हैं “पुलिसिंग”।
भारत में पुलिस की जरूरत किसे है? असल मायनों में देखने पर पाएंगे कि कम से कम आजादी के बाद तो पुलिस को नागरिक की समस्याओं में उसकी मददगार होने के अवधारणा के तहत बनाए रखा गया होगा। पर यही पुलिस दरअसल नागरिक और कई मायनों में कानून व्यवस्था के लिए अपने आप में समस्या है। मुसीबत पडऩे पर कोई भी पुलिस के पास जाने में हिचकता है, उल्टे पुलिस को ही मुसीबत मानता है। पर ऐसा क्यों है?
गुलाम भारत में आज का उत्तर प्रदेश संयुक्त प्रांत के नाम से जाना जाता रहा और उसके तत्कालीन सीआईडी चीफ एच टी होलिन्स अपनी किताब ‘नो टेन कॉमनडमेंट्स’ में दो आपराधिक मामलों का जिक्र करते हैं। पहले मामले में एक अंग्रेज अधिकारी को अपनी पहली ही पोस्टिंग में एक पेचीदा हत्या के मुकदमे को सुलझाना है और उसे उसके सीनियर अधिकारी के द्वारा निर्देश हैं कि इस केस को सुलझाने में वह किसी भी हिन्दुस्तानी कनिष्ठ अधिकारी या अन्य पुलिस कर्मी का सहयोग न लें।
एक माह से अधिक समय लगा कर अंग्रेज अधिकारी ने हत्या के इस मामले के अभियुक्त को पकड़ा और उसे फांसी की सजा मिली। इस पूरे छानबीन में कभी भी मारपीट, गाली गलौच और कानून के खिलाफ जाकर आरोपियों से कोई पूछताछ नहीं की गई।
दूसरे मामले का जिक्र करते समय यही अंग्रेज अधिकारी अब काफी वरिष्ठ हो चुके हैं और एक नरबलि के मामले में हुई बच्चे की हत्या के केस की जांच अपने सब इन्स्पेक्टर बख्त खान को दे देते हैं। मामले में दो गाँव के लोगों पर शक है और लगभग सुलझा सा मामला है पर पुलिस को इसकी जांच करनी है। अगले ही दिन बख्त खान ने दोनों आरोपियों का इकबाल-ए-जुर्म करवा लिया और महकमे से शाबाशी पाई। पर अंग्रेज अधिकारी ने पाया कि बख्त खान ने दोनों आरोपियों को गैरकानूनी तरीके से थाने में रखा और पीट-पीट कर उनसे कबूलनामा लिया। उधर बख्त खान आश्वस्त था कि उसे पदोन्नति मिलेगी पर न केवल उसका रैंक घटा दिया गया बल्कि अगली बार ऐसा करने पर उसे जेल भेजने की चेतवानी के साथ ही छोड़ा गया।
अब हो सकता है कि हॉलिन्स की इस कहानी में उन्होंने अंग्रेजों की सच्चाई वैसी नहीं बताई जैसी असल में थी। अंग्रेजी हुकूमत की कू्ररता किसी से छिपी नहीं है जिसे जानने के लिए किसी को उनकी किताब पढऩी पड़े पर दोनों मामलों में एक आइडिया जरूर है जिसे अंग्रेज़ों ने अपने देश में जरूर अपनाया। यही वो आइडिया है जिसे पुलिसिंग कहते हैं। स्कैनडीनेवियन देशों के और अन्य यूरोप ने भी इस पुलिसिंग को अपनाने के ईमानदार प्रयास किये हैं। पर थर्ड वर्ड कहे जाने वाले देशों ने इसे अपने ही नागरिकों के खिलाफ खड़ा किये रखा है।
नैशनल पुलिस अकैडमी के निदेशक और हरियाणा पुलिस प्रमुख के पद से सेवानिवृत विकास नारायण राय के अनुसार “एक पुलिस वाले को अपना काम एक पेशेवर के तौर पर करना है, जैसे कि जिस कानून को वह लागू करने के नाम पर सब करता है सबसे पहले वो यह समझ सके कि कानून नागरिक के लिए है और उसकी पालना भी पीडि़त के पक्ष में होनी चाहिए न कि केवल पालना और किसी भी कीमत पर पालना की नजर से। इसी के साथ एक पुलिस वाले की समझ और नजरिया एक आम इंसान से अलग होना चाहिए। किसी मामले में किस किस्म का ईमोशन शामिल है उसकी समझ पर ही पूरी पुलिसिंग निर्भर करती है और ज्यादातर मामलों में पुलिस वाला इस ऐंगल को दरकिनार कर लकीर के फकीर की तरह ही काम करता है। यदि कोई अपराध सामने आता है तो पुलिस वाला सबसे पहले उसके पीछे की मंशा और फिर उससे जुड़ती कडिय़ाँ मिलाकर मामले को न्यायालय में सबूतों के साथ पेश करे और सजा दिलाए तब तो हुई पुलिसिंग । ऐसी पुलिसिंग के लिए काफी मेहनत और समझ की जरूरत है और इसके लिए किसी को भी मारने पीटने या कत्ल करने की जरूरत नहीं। वरना केवल थाने में लाकर अकेले में लेजाकर गोली मार कर यह बताना कि कानून व्यवस्था ठीक है, मात्र एक स्वांग है।
एच.टी. हॉलिन्स ने अपनी किताब में जीवन के कई संस्मरण लिखे जिसमे चंद्रशेखर आज़ाद का शहीद होना भी शामिल है। सभी संस्मरणों मे उन्होंने अंग्रेजी पुलिस को न्यायप्रिय दिखाने का प्रयास किया है। पर हम जानते हैं कि जिस पुलिस को हमारे सिर पर इन अंग्रेज़ों ने काबिज किया है उसका इतिहास खून और अन्याय से भरा पड़ा है। इस अन्याय की गठरी को भारतीय राजनेताओं ने भी ठीक उसी मंशा से समाज के सिर पर बोझे रखा जो अंग्रेजों से विरासत में मिली। केवल पीटना, धमकाना, वसूली करना, और हत्या करना ही पुलिङ्क्षंसग है तो ये काम सडक़छाप मवाली और बेहतर कर सकता है इसके लिए किसी पुलिस की जरूरत नहीं। इसलिए एक दिन जरूर आएगा और आना भी चाहिए जब समाज इस बजबजाते बदबूदार बोझे को न केवल उतार फेकेगा बल्कि अपने लिए एक संवैधानिक पुलिस की मांग करेगा।