केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री को दिल्ली ‘गैस चेम्बर’ नज़र आता है, एनसीआर नहीं

केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री को दिल्ली ‘गैस चेम्बर’ नज़र आता है, एनसीआर नहीं
November 07 13:55 2022

फरीदाबाद (म.मो.) हरियाणवी कहावत है, ‘‘भैंस काले कंबल को देख कर बिदकती है पर अपने आपको नही देखती।’’ वही काम केन्द्रीय पर्यावरण एवं श्रम मंत्री भूपेन्द्र सिंह यादव कर रहे हैं। दिल्ली में क्योंकि उनके धुर विरोधी केजरीवाल की सरकार है। इसलिये उन्हें दिल्ली का बढ़ता प्रदूषण गैस चेम्बर नज़र आता है। दिल्ली के चारों ओर भाजपा शासित गाजीयाबाद, फरीदाबाद, गुडग़ांव, झज्जर, बहादुरगढ़ और सोनीपत आदि का भयंकर प्रदूषण नज़र नहीं आता। एनसीआर के इन तमाम शहरों का प्रदूषण स्तर किसी तरह भी दिल्ली से कम नहीं है।

फरीदाबाद की स्थिति को देख कर पूरे एनसीआर के प्रदूषण एवं उसके कारणों का अनुमान लगाया जा सकता है। सरकार को सैंकड़ों मील दूर जलने वाली पराली का धुआं तो नजर आ रहा है, इसे लेकर किसानों पर ताबड़तोड़ जुर्माने किये जा रहे हैं। लेकिन सरकारी निस्क्रीयता के चलते शहर में बढ़ता प्रदूषण नजर नहीं आ रहा। वैज्ञानिक आंकड़ों के आधार पर बताया जा रहा है कि पराली जलने से तो मात्र 20 प्रतिशत ही प्रदूषण होता है, शेष 80 प्रतिशत सडक़ों व निर्माण कार्यों से उडऩे वाली धूल, वाहनों तथा जनरेटरों से निकलता धुआं, उद्योगों की चिमनी से निकलता काला धुआं तथा शहर में जहां-तहां जलाये जा रहे कूड़े विशेष कर रबर व प्लास्टिक आदि से निकलने वाला धुआं, शहर को गैस चेम्बर बना रहा है।
यूं तो तमाम सडक़ों के किनारे पड़ी धूल को, तेज गति से चलते वाहन काफी मात्रा में उड़ाते रहते हैं, लेकिन जब गड्ढों में सडक़ और सडक़ों में गड्ढे हों तो कोढ़ में खाज की स्थिति बनाते धूल के गुबार उड़ते रहते हैं। ये धूल कण इतने महीन होते हैं कि एक बार उडऩे के बाद तब तक हवा में रहते हैं जब तक अच्छी जोरदार बारिश न हो जाय। ये धूल कण फेफड़ों के लिये इतने हानिकारक होते हैं कि एक बार घुसने के बाद अंदर ही जम जाते हैं। इसके परिणामस्वरूप सांस सम्बन्धी दमा जैसे भयंकर रोग हो जाते हैं। इस तरह के रोगियों की लम्बी कतारें आज कल अस्पतालों में देखी जा रही हैं।

सडक़ों से धूल न उड़े इसके लिये जरूरी है कि वहां धूल ही न रहे। सडक़ों के तमाम किनारे पक्के हों अथवा वहां घास लगी हों। इनकी सफाई के लये झाड़ू की बजाय धूल को अपने भीतर खींचने वाली वैक्यूम सफाई मशीने होनी चाहिये। ऐसी चार मशीने इस शहर में भी हैं।भाड़े पर ली गई ये मशीने खड़ी-खड़ी कर दाता के पैसे को डकार रही हैं क्योंकि शहर की टूटी-फूटी सडक़ों पर तो ये चल ही नहीं सकती और बाकी सडक़ों पर तेल फूंकने की बजाय सम्बन्धित अधिकारियों को मोटा कमीशन देकर इन्हें खड़ा रखने में ही फायदा है। बीते कई सालों से टूट कर समाप्त हो चुकी सडक़ों को बनाने की बजाय पानी छिडक़ने की नौटंकी करके मोटे बिल डकारे जा रहे हैं।

सर्वविदित है कि साफ-सुथरी खाली सडक़ से वाहन गुजर जायें तो उनसे कम धुआं निकलेगा। दूसरी ओर जब सडक़ों पर जगह-जगह जाम लगे होंगे अथवा गड्ढे होंगे तो वाहन सामान्य गति से गुजरने की अपेक्षा अति धीमी गति से चलकर अथवा खड़े रह कर जो धुआं उगलेंगे उससे वायु प्रदूषण कई गुणा अधिक बढ़ता है। शहर में सडक़ों की जो हालत है सो तो है ही, अच्छी-भली सडक़ों पर अवैध पार्किंग ने जगह-जगह जाम की स्थिति बना रखी है। हाइवे से बाटा पुल होते हुए हार्डवेयर चौक से बीके चौक तथा यहां से अजरोंदा चौक का जो नमूना दिखता है, लगभग वही स्थिति शहर भर के सैंकड़ों स्थानों पर बनी रहती है। यदि प्रशासन की नीयत ठीक हो तो इस कृत्रिम जाम की स्थिति को समाप्त करके प्रदूषण हटाया जा सकता है।

जरूरत से ज्यादा बिजली पैदा करके निर्यात करने का दावा करने वाली सरकार न तो कारखानों को पर्याप्त बिजली दे पा रही है और न ही घरेलू एवं अन्य संस्थानों को। जाहिर है ऐसे में न चाहते हुए भी मजबूरन लोगों को जनरेटरों का सहारा लेना पड़ता है। यह बिजली महंगी तो पड़ती ही है वायु प्रदूषण को भी बेतहाशा बढ़ाती है। प्रदूषण नियंत्रण के नाम पर सरकार ने बेशक जनरेटर चलाने पर कड़ी पाबंदी लगा रखी है लेकिन जिसकी मजबूरी होती है वह सख्त पाबंदी का पालन करवाने वालों की सेवा-पानी करके अपना काम निकालता है। गैस एवं बिजली महंगी होने के चलते छोटे-मोटे उद्योगपति उत्पादन लागत को कम रखने के लिये कोयले अथवा लकड़ी आदि को ईंधन के रूप में प्रयोग करते हैं। ये लोग प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड वालों के नियमित पे मास्टर होते हैं।

सफाई की अपर्याप्त व्यवस्था के चलते जगह-जगह आग लगा कर कूड़े का निस्तारण किया जा रहा है। इससे भी कहीं अधिक भयानक काम उन कबाडिय़ों द्वारा किया जाता है जो रबर, प्लास्टिक आदि को जला कर उनसे जुड़ी धातुओं को अलग करते हैं। इस तरह के काम प्राय: रात के अंधेरे में ही किये जाते हैं,उस समय तापमान कम होने के चलते धुआं आसमान की ओर न जाकर धरती पर ही चारों ओर फैलता रहता है। इन्हें रोकने-थामने वाला कोई नहीं है। रसोइ गैस के भाव बेतहाशा बढ़ जाने के चलते गरीब लोगों का एक वर्ग लकड़ी व उपलों से चुल्हा जलाने को मजबूर हैं। जाहिर है इससे भारी मात्रा में उठने वाला धुआं प्रदूषण को बढ़ा रहा है।

यदि सरकार वास्तव में ही प्रदूषण से मुक्ति पाना चाहती है तो घरेलू गैस के दाम इतने कम करे कि जो हर गरीब उसका इस्तेमाल कर सके। सडक़ों पर पानी छिडक़ने की नौटंकी करके पैसा लूटाने की बजाय सडक़ों को ही धूल रहित बनाये। जनरेटरों पर पावंदी की बजाय बिजली की पर्याप्त उपलब्धता को सुनिश्चत करे। ट्रैफिक व्यवस्था में वांछित सुधार करके सडक़ों को जाम रहित बनाये। लेकिन लगता नहीं कि सरकार को यह सब समझ आने वाला है। राजनेताओं की नीयत काम करने की नहीं केवल गाल बजाने की है।

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Mazdoor Morcha
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