कविता/ठेके पर देश

कविता/ठेके  पर  देश
January 23 02:47 2023

डॉ. रामवीर

देख रहा हूं धीरे धीरे
बदल रहा परिवेश,
देश दिया करता था ठेका
अब ठेके पर देश।

सब कुछ ठेके पर देने का
जब से चला रिवाज,
ठेके पर ही होने लगे अब
सब सरकारी काज।

ठेकेदार और ठेकेदार ही
दिखते चारों ओर,
कई दौरों से गुजरा भारत
अब ठेकों का दौर।

सरकारी दफ्तर भी अब तो
कहने को सरकारी,
उन में भी अन्दर ही अन्दर
चल रही ठेकेदारी।

डेटा ओपरेटर ठेके पर
ठेके पर कम्प्यूटर,
उन के ऊपर बैठे मिलते
कुछ सरकारी अफसर।

अफसर का भी पोस्टिंग ट्रांसफर
एक तरह ठेके पर,
कौन कहां किस पद पर होगा
नेताओं पर निर्भर।

नेताओं को नेतागिरी का
ठेका देते वोटर,
राजनीति का ठेका उठाते
ब्राह्मण ठाकुर गुर्जर।

कहीं जाट पंजाबी कहीं पर
भारी हैं बिश्नोई,
राजनीति ठेके पर दे कर
जनता रहती सोई।

जनता के सोने का मतलब
फूटी देश की किस्मत,
अपना मत बतलाया कोई
सहमत हो या असहमत।

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