कात्यायनी कविता अगर जि़न्दगी की तकलीफ़ों को, नाउम्मीदियों को, शिकस्तों को, उम्मीदों को, खुशियों को, कामनाओं को, सपनों को बिना किसी बनाव-सिंगार के बयान कर पाने में और लोगों तक पहुँचा पाने में सफल हो जाती है, तो यह उसकी सबसे बड़ी सफलता होती है।
कविता जि़न्दगी में सुन्दरता और प्यार की दुर्निवार चाहत है। यह दुर्निवार चाहत ही कविता को तमाम मानवद्रोही शक्तियों के विरुद्ध अविराम संघर्ष की विकल पुकार बनने तक लेकर जाती है।
हत्याओं के मौसम में शान्तिपाठ से अधिक घृणित, अकर्मक सिद्धान्त-चर्वण से अधिक अमानवीय और कविता में कलादेवियों के साथ विहार और अभिसार से अधिक जुगुप्सोत्पादक भला और क्या हो सकता है! जब कविता को निराशा के घटाटोप में, दूर किसी घाटी से आती जि़न्दगी की पुकार बनना है, जब इसे जिजीविषा और युयुत्सा — इन दो शब्दों के विस्मृत अर्थों को चेतना और कर्म की दुनिया में वापस खींच लाना है, ऐसे समय में इसे उन लोगों के दरबार में लेकर जाने की भला सोची भी कैसे जा सकती है जो प्यार और सुन्दरता के सबसे बर्बर शत्रु हैं, जो मनुष्यता के भविष्य के शत्रु हैं!
दयनीयता की हद तक शालीन, सुसंस्कृत और मासूम लग रहे इन चेहरों के पीछे के असली चेहरों को पहचानना ही होगा जो प्रकृति, प्रेम, सौन्दर्य, शान्ति और मनुष्यता की बातें करते हुए फ़ासिस्ट बर्बरता के रक्त और अंधकार सने, गुजऱे तीन दशकों की कविता में इंदराजी करने से बच रहे हैं और सत्ता और संस्कृति के लकदक प्रतिष्ठानों और जगमग जलसों में जाकर गा-बजा रहे हैं तथा ईनाम और बख़्शीश ले रहे हैं।
उन थोबड़ों को भी पहचानना होगा जो इन सवालों को उठाते ही सिकुड़ -पिचक जा रहे हैं और दोनों ओर ‘हाँ में हाँ’ मिलाने वाले शातिर दोमुँहेपन की तथा चालाक चुप्पियों की भी शिनाख्त करनी होगी।
कला-साहित्य की दुनिया में मौसम कुछ ऐसा चल रहा है कि सबसे साफ़-ओ-शफ्फ़़ाफ़ आस्तीनों को भी अगर झटके से पलट दिया जाये तो उनमें से कइयों पर ख़ून के धब्बे साफ़ नजऱ आ जायेंगे!
भद्र समाज की बहुतेरी औपचारिक मैत्रियाँ, और कुछ जेनुइन मैत्रियाँ भी, खोकर अगर हम आज इस सवाल को नहीं उठाते तो भविष्य में घृणास्पद उदारतावादी होने का अभियोग लगाते हुए इतिहास हमें भी निश्चय ही, कटघरे में खड़ा करेगा ! (डायरी के नोट्स, 1जनवरी 2023)