(ईरान की मशहूर शायरा शाहरुख़ हैदर की कविता जिसे पढक़र रूह कांप जाती है…) मैं एक शादीशुदा औरत हूं! मैं एक औरत हूं ईरानी औरत रात के आठ बजे हैं यहां ख़्याबान सहरूरदी शिमाली पर बाहर जा रही हूंँ रोटियां खरीदने को न मैं सजी धजी हूं न मेरे कपड़े खूबसूरत हैं मगर यहां सरेआम ये सातवीं गाड़ी है… मेरे पीछे पड़ी है कहते हैं शौहर है या नहीं मेरे साथ घूमने चलो जो भी चाहोगी तुझे ले दूंगा।
यहां तंदूरची है… व$क्त साढ़े आठ हुआ है आटा गूंध रहा है मगर पता नहीं क्योंं मुझे देखकर आखेें मार रहा है नान देते हुए अपना हाथ मेरे हाथ से मिस कर रहा है!!
ये तेहरान है… सडक़ पार की तो गाड़ी सवार मेरी तरफ आया गाड़ी सवार कीमत पूछ रहा है, रात के कितने? मैं नहीं जानती थी रातों की कीमत क्या है!!
ये ईरान है…मेरी हथेलियां नम हैं लगता है बोल नहीं पाऊंगी अभी मेरी शर्मिंदगी और रंज का पसीना खुश्क नहीं हुआ था कि घर पहुंच गई। इंजीनियर को देखा…एक शरीफ मर्द जो दूसरी मंजिल पर बीवी और बेटी के साथ रहता है सलाम… बेग़म ठीक हैं आप? आपकी प्यारी बेटी ठीक है? वस्सलाम… तुम ठीक हो? खुश हो? नजर नहीं आती हो? सच तो ये है आज रात मेरे घर कोई नहीं अगर मुमकिन है तो आ जाओ नीलोफर का कम्प्यूटर ठीक कर दो बहुत गड़बड़ करता है ये मेरा मोबाइल है, आराम से चाहे जितनी बात करना मैं दिल मसोसते हुए कहती हूं बहुत अच्छा अगर वक़्त मिला तो ज़रूर !!
ये सरज़मीने इस्लाम है, ये औलिया और सूफियों की सरजमीन है। यहां इस्लामी कानून राएज हैं मगर यहां जिन्सी मरीज़ों ने माद्दा ए मन्विया (वीर्य) बिखेर रखा है। न दीन न मज़हब न क़ानून और न तुम्हारा नाम हिफाज़त कर सकता है।
ये है इस्लामी लोकतंत्र…और मैं एक औरत हूं मेरा शौहर चाहे तो चार शादी करे और चालीस औरतों से मुताअ मेरे बाल मुझे जहन्नुम में ले जाएंगे और मर्दों के बदन का इत्र, उन्हें जन्नत में ले जाएगा मुझे कोई अदालत मयस्सर नहीं अगर मेरा मर्द तलाक़ दे तो इज्ज़तदार कहलाए अगर मैं तलाक़ मांगूं तो कहें हद से गुजर गई शर्म खो बैठी मेरी बेटी को शादी के लिए मेरी इजाज़त दरकार नहीं, मगर बाप की इजाज़त लाजि़मी है।
मैं दो काम करती हूं, वह काम से आता है आराम करता है मैं काम से आकर फिर काम करती हूं और उसे सुकून फराहम करना मेरा ही काम है।
मैं एक औरत हूं…मर्द को हक़ है कि मुझे देखें मगर गलती से अगर मर्द पर मेरी निगाह पड़ जाए तो मैं आवारा और बदचलन कहलाऊं।
मैं एक औरत हूं… अपने तमाम पाबंदी के बाद भी औरत हूं क्या मेरी पैदाइश में कोई गलती थी? या वह जगह गलत था जहां मैं बड़ी हुई? मेरा जिस्म मेरा वजूद एक आला लिबास वाले मर्द की सोच और अरबी ज़बान के चंद झांसे के नाम बिका हुआ है।
अपनी किताब बदल डालूं या यहां के मर्दों की सोच या कमरे के कोने में क़ैद रहूंँ? मैं नहीं जानती… मैं नहीं जानती कि क्या मैं दुनिया में बुरे मुकाम पर पैदा हुई हूं? या बुरे मौके पर पैदा हुई हूं? साभार: आर्या श्रीवास्तव