कौन भरता है हमारे दिमाग़ों में हिंदू-मुसलमान डियर हिंदू भाइयों,

कौन भरता है हमारे दिमाग़ों में हिंदू-मुसलमान डियर हिंदू भाइयों,
July 29 19:44 2022

एक बहुत झूठी और आम बात है। मुझे दु:ख है कि ये बात झूठ होते हुए भी आम है।

“मुस्लिम कितने भी सगे हों, आखिर में अपना रंग दिखा ही देते हैं।” ये वो अल्फ़ाज़ हैं जो हम में से ज़्यादातर ने कहीं ना कहीं अपने किसी ख़ास से सुना है। ये ‘ख़ास’ अक्सर घर या खानदान के बड़े (महज़ उम्र में) होते थे। तो अमूमन हर बात की तरह ही हम इनकी इस बात पर भी ऐतबार करते चले गए। अब जिन्दगी के किसी मोड़ पर या किसी लम्हे पर हमारी किसी मुस्लिम यार से दोस्ती टूटी तो हमें कही गयी वो बात सच महसूस हुई। या ऐसा कुछ नहीं भी हुआ और हमने कभी ऐसा फ़ील भी नहीं किया तो किसी बड़े ने अपनी या किसी और की सुनी सुनाई कहानी से हमें ऐसा फ़ील करने पर मजबूर कर दिया।

दोस्त! तुम ध्यान से सोचोगे तो तुम्हें समझ आएगा कि स्कूल, मोहल्ले और कोचिंग वगैरह सब को मिला कर भी तुम्हारी स्कूलिंग के दौर में तुम्हारे बामुश्किल दो चार मुस्लिम दोस्त होते थे, उनमे से अगर किसी एक से भी आगे चल कर तुम्हारा झगड़ा या मन मुटाव होता है तो तुम्हारे दिमाग़ में वही एक लाइन क्लिक करती है। तुम्हें तुरंत लगता है कि सचमुच आखिर में ये रंग दिखा ही देते हैं। तुम अपने इस एक व्यक्तिगत अनुभव को जनरलाइज़ कर देते हो। क्योंकि तुम्हारे दिमाग में तो ये साइंस के किसी लौ कि तरह फि़ट कर दिया गया था।

ख़ैर .. अब फिरसे उन पन्नों को पलटो और अपने उन तमाम हिन्दू दोस्तों को याद करो जो तुम्हारे बहुत सगे हुआ करते थे, जिनसे तुम्हारी ख़ूब बनती थी। और वही दोस्त एक्ज़ाम के वक़्त दगा दे गए। या तुमसे किसी ना किसी कारण से जलकर तुम्हारी पीठ पीछे तुम्हारी बुराई की .. तुम्हारी प्रेमिका को बहकाया या किसी लडक़ी को बहकाकर तुम्हारी प्रेयसी बनने ही नहीं दिया। और ऐसी ही ना जाने कितनी बातें। कुछ एक चेहरे नजऱों के सामने कौंध रहे होंगे ना? कई बातें याद आ रही होंगी .. और शायद कई गालियां भी। पर ऐंड वक्त पे हिन्दू रंग दिखा जाते हैं या हिन्दू कभी हमारा सगा नहीं हो सकता जैसा कोई कॉन्सेप्ट याद आ रहा है क्या? नहीं ना? यार आना चाहिए न। दो चार मुस्लिम दोस्त थे बस। और उनमें एक भी ऐसा निकल गया तो रु॥स् = क्र॥स् कर के सिद्ध कर दिया। पर हिंदुओं में यही गिनती दस होने पर भी ऐसा कुछ नहीं? ज़ाहिर है इस केस में ऐसा नहीं कहोगे क्योंकि कभी किसी बड़े ने अपने किसी बड़े से ऐसा कोई कॉन्सेप्ट ना तो सुना और ना सुनाया। और ना ही तुम्हारे दिमाग़ ने कभी इस तरह सोचा। पर मुस्लिम के लिए ये ज़हर बड़ों ने तुममे बोया और तुमने चंद पर्सनल एक्सपीरियंस कि वजह से सच मान लिया।

मेरे कुछ मुस्लिम दोस्त रहे, उनमे से कुछ अब सिर्फ़ दुआ सलाम वाले हैं और कुछ दोस्त ही नहीं है। इसके पीछे कारण वही हैं जो तमाम हिन्दू दोस्तों से थोड़ा अलग हो जाने कि वजहें हैं। अगर तुम्हारी ही तरह भारी भरकम लफ्ज़़ों में कहूँ तो कई हिन्दू दोस्तों से धोखा मिला और इसलिए उनसे आगे नहीं बन पाई। पर मैंने अपने उस व्यक्तिगत अनुभव को जनरलाईज़ नहीं किया। मैंने कभी नहीं कहा कि हिन्दू होते ही ऐसे हैं। मेरे जो कुछ मुस्लिम दोस्त रहे उनमे एक पक्का वाला दोस्त रहा शाहरुख। अब भी है।

दोस्ती को सात साल होने जा रहे हैं, कभी ऐसी कोई बात नहीं आई। मैं जिन लोगों को प्यार से भइया बोलता हूं उनमे तमाम लोग मुस्लिम हैं और मुझे हमेशा उन्होंने अपने छोटे भाई कि तरह ही माना। यकीन मानो ऊपर कही गयी वो बात मुझसे भी कई बड़ों ने कही थी, शुरू में हर किसी कि तरह यही माना कि बड़े हैं सच ही बोल रहे होंगे। पर जब ख़ुद से सोचा और समझा तो वो बात एक फऱेब और ज़हर से ज़्यादा कुछ नहीं लगी। हमारे बड़े ख़ुदा नहीं हैं। इस बात को समझो। जो उन्होंने महसूस किया वो ज़रूरी नहीं कि तुम भी महसूस करो। उनकी बताई हर बात सही नहीं होती। सुनी हुई हर बात को तसल्ली से समझो और ख़ुद को वक़्त देकर ख़ुद फ़ैसला करो।

‘मुस्लिम आखिर में धोखा दे देते हैं’ जैसी बातें बहुत फऱेबी हैं यार! .. तुम जब और मुस्लिमों से मिलोगे, उनसे बातें करोगे, दोस्ती करोगे तो तुम खुद बा ख़ुद समझ जाओगे कि हम कितने बड़े झूठ को सच मानकर जी रहे थे।

दोस्त! बड़ों से झूठ बोला गया था .. बड़ों ने वो झूठ ढोया .. तुम आने वाले वक्त के बड़े हो, तुम ये गलती मत करना। वरना मुझे डर है कि आगे कोई ऋषभ किसी शाहरुख से दोस्ती नहीं
करेगा।

तुम्हारा भाई
ऋषभ दूबे (मोहम्मद असगऱ का दोस्त)

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Mazdoor Morcha
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