विकास नारायण राय शिवमोगा, कर्नाटक के एसपी जी के मिथुन कुमार का कहना है कि उनकी पुलिस भाजपा सांसद प्रज्ञा सिंह ठाकुर के विरुद्ध तभी मामला दर्ज करेगी जब कोई प्रभावित व्यक्ति उनकी पुलिस के पास शिकायत ले कर आएगा। प्रज्ञा सिंह ठाकुर ने सार्वजनिक मंच से मुस्लिम समुदाय के प्रति नफरत और हिंसा भडक़ाने वाली टिप्पणी की है, जिसका विडियो सारे देश में वायरल कराया गया है। जाहिर है कि भाजपा वर्ष 2023 में होने वाले कर्नाटक विधानसभा चुनाव में हिंदू/मुस्लिम कार्ड खेलने की पिच तैयार कर रही है और पुलिस उस पार्टी की राज्य सरकार के दबाव में है।
राजनीति जो न कराए, कम है। लेकिन, पुलिस ऐसा गैरकानूनी स्टैंड लेने को कब से स्वतंत्र हो गई? वह भी सार्वजनिक बयान दे कर। सीधा कानून है कि यदि कोई संज्ञेय अपराध होता है तो मुकदमा दर्ज हो और इन्वेस्टिगेशन किया जाए। एसपी मिथुन कुमार के बयान से स्पष्ट है कि उनको संज्ञेय अपराध तो नजर आ गया लेकिन बजाय स्वयं कानूनी कार्यवाही करने के वे मुकदमा दर्ज कराने वाले की प्रतीक्षा करना चाहेंगे।
मान लीजिए मिथुन कुमार के क्षेत्र में किसी निर्जन सडक़ के किनारे पुलिस को चाकुओं से गोदा हुआ अनजान शव मिलता है, तो क्या पुलिस तुरंत हत्या का मुकदमा नहीं दर्ज करेगी? तुरंत इन्वेस्टिगेशन नहीं शुरू करेगी? या हाथ पर हाथ रखे किसी शिकायतकर्ता की प्रतीक्षा करती रहेगी?
न्याय की देवी को आंख पर पट्टी बांधे हुए दिखाने का चलन है। यानी दो आंखें होते भी अंधी। भावना तो यह है कि उसे किसी से पक्षपात नहीं करना चाहिए, जबकि व्यवहार में उसे न्याय के नाम पर चलने वाली बेहद अन्यायपूर्ण देरी और बेतरह धन की भूमिका को भी नहीं देखने दिया जाता।
लेकिन, लगता है, भाजपा शासित राज्यों में कानून का पालन कराने वाली पुलिस भी आंखों पर एक विशेष तरह की पट्टी बांधे रखने को विवश है। यह सांप्रदायिक पट्टी भाजपा के हिंदुत्ववादी चेहरे के जहर उगलते मुस्लिम विरोधी आह्वान को न देखने देती है और न ही सुनने। और न ही कानूनी कार्यवाही करने की इजाजत देती है।
फरवरी, 2020 के दिल्ली साम्प्रदायिक दंगों से ऐन पहले केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर के ’गोली मारो सालों को’ वाले सार्वजनिक आह्वान पर भी भाजपा संचालित दिल्ली पुलिस ने शुरुआत में चुप्पी साध रखी थी। बाद में भी, न्यायपालिका के हस्तक्षेप के बावजूद, ठाकुर के विरुद्ध कार्यवाही नहीं हुई है। मिथुन कुमार जैसों को अपने गैरकानूनी स्टैंड को लेकर शर्म इसीलिए नहीं आती। सरकारी दबाव के साथ साथ उन्हें राजनैतिक अभय का भी भरोसा रहता है।
ज्यादा दिन नहीं हुए जब सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस के एम जोजफ की अध्यक्षता वाली बेंच ने सांप्रदायिक घृणा और उन्माद फैलाने वाले भाषणों पर स्वत: कार्यवाही करना हर पुलिस के लिए अनिवार्य घोषित कर दिया था। सवाल है कि परवाह किसे है?