जुनैद-नासिर हत्याकांड की निष्पक्ष जांच को लेकर सेमिनार मेवात को फासिस्टों की शिकारगाह बनने से रोकना एक बड़ी जि़म्मेदारी है

जुनैद-नासिर हत्याकांड की निष्पक्ष जांच को लेकर सेमिनार मेवात को फासिस्टों की शिकारगाह बनने से रोकना एक बड़ी जि़म्मेदारी है
April 02 16:17 2023

सत्यवीर सिंह
16 फऱवरी को, हरियाणा में, समाज को शर्मसार कर देने वाली, जघन्य आपराधिक घटना घटी। भिवानी जि़ले के लोहारू के जंगल में, जुनैद (35) और नासिर (25) की बुरी तरह जली लाशें, जली हुई बोलारो गाड़ी से बरामद हुईं. दिमाग सुन्न कर देने वाली, इस घटना की निष्पक्ष जाँच, लोकप्रिय यूट्यूब चेनल ‘जनमंच’ के नेतृत्त्व में, छात्रों, किसानों और जन-सरोकार रखने वाले नागरिकों ने, मौक़े पर जाकर की। सारे देश को ही, हिन्दू-मुस्लिम ध्रुवीकरण द्वारा फासिस्ट भट्टी में झोकने की राष्ट्रीय परियोजना चल रही है। मेवात को ‘मिनी-पाकिस्तान’, ‘गो-तस्करों’ का गढ़ बताकर, वहां बे-इन्तहा ज़ुल्म ढाए जा रहे है। इस ज्वलंत मुद्दे पर, 19 मार्च को हिसार में एक सम्मलेन भी हुआ जिसमें मेवात के कई प्रतिष्ठित नागरिकों ने भाग लिया। बर्बर हत्यारों को पुलिस संरक्षण और उन्हें बचाने के लिए ज़हर उगलतीं महापंचायतें कर, समाज के नाज़ीकरण की इस परियोजना को अत्यंत गंभीरता से लेकर, इसे नाकाम करना, मेवातियों की ही नहीं, सारे समाज की जि़म्मेदारी है। जर्मनी की तरह, इस बाबत बर्ती गई तटस्थता और मुंह फेरकर निकल जाने की आदत, बहुत मंहगी पड़ेगी।

मेवात का गौरवशाली इतिहास
‘जनमंच’ ने, आज़ादी के पहले संग्राम 1857 में, मेवात के गौरवशाली इतिहास को, प्रख्यात इतिहासविद, डॉ महेंद्र सिंह, प्रोफ़ेसर, डी एन कॉलेज, हिसार के माध्यम से, देश के सामने लाने का एक शानदार काम किया है। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, 1857 की जंग में, कुल 1,82,000 (गैर सरकारी 6,00,000) आन्दोलनकारी, पूरे देश में शहीद हुए, जिनमें 24,500 (80,000) लोग हरियाणा के थे, जिनमें, 8,000 (18,000) अकेले मेवात से थे. दिल्ली और बल्लभगढ़ की नाहरसिंह रियासत में, अंग्रेजों के खि़लाफ़ हुई, हर विप्लवी घटना में मेवाती शामिल रहे हैं. 1857 की 10 मई को अम्बाला और 11 मई को दिल्ली में क्रांति भडक़ते ही, मेवातियों ने अपनी लड़ाकू टुकडिय़ाँ बनाकर 13 मई को गुडगाँव में मोर्चा खोल दिया था।

डी सी, गुडगाँव, विलियम फोर्ड ने उन्हें रोकने का हुक्म सुनाया. दोनों सेना टुकडिय़ों में, दिल्ली-हरियाणा बॉर्डर पर, विजवासन गाँव के पास तीखी झड़पें हुईं. विलियम फोर्ड हार गया और भाग गया. सवतंत्रता सेनानियों ने गुडगाँव ट्रेजऱी पर क़ब्ज़ा कर लिया, जहाँ कुल 7,84,000 रु मिले. इस पूरी रक़म को, बहादुर शाह जफ़ऱ के नेतृत्व में दिल्ली में लड़ रही, विद्रोहियों की केन्द्रीय टुकड़ी को भेज दिया गया। नेतृत्वकारी टीम; अलफ़ खान, सतरुद्दीन, बदरुद्दीन दो भाई और हसन अली की बहादुरी की बदौलत, पिनंगवा गाँव पहला मुक्त क्षेत्र बना। विलियम फोर्ड के बाद, अँगरेज़ सरकार ने, जयपुर में पदस्थ एडेन को गुडगाँव के मोर्चे को मज़बूत करने के लिए भेजा. लड़ाई फिर भडक़ उठी और एडेन को भी अपनी जान बचाकर भागना पड़ा. उसके बाद, अलवर से आई टुकड़ी का भी वही हस्र हुआ. कुल 22 अँगरेज़ इस लड़ाई में मारे गए. नूंह की टुकड़ी का नेतृत्व खैरखुल्लाह कर रहे थे। इस संघर्ष में, अंग्रेजों ने इन गावों को बागी माना; बरोट्टा, पचनका, गेपुरी, मालपुरी, सिल्ली, उतावडक़ोट, तावरू, सोहना, फिऱोज़पुर झिरका, पुन्हाना, खोटल, अथीन. वैसे लड़ाई हर गाँव में छिड़ चुकी थी। यही वज़ह है कि दिल्ली में हो रही भीषण जंग में, बागियों को सबसे ज्यादा मज़बूती दक्षिण से ही मिली. दिल्ली शहर की अनेक लड़ाईयों का नेतृत्व मेवातियों ने ही किया।

14 सितम्बर 1857 को अंग्रेजों का दिल्ली पर फिर क़ब्ज़ा होने और 20 सितम्बर को बहादुर शाह जफ़र के, हुमायूँ के मक़बरे से गिरफ्तार होने के अगले दिन, उनके दोनों बेटों और दो पोतों को सरे आम क़त्ल कर दिया गया। मेवात का एक लोकप्रिय लोक गीत उस दर्द को इस तरह बयां करता है; ‘ऐ प्यारी दिल्ली तू रो मत!! देश गया है, अभी दिल, मेवात जि़न्दा है… मैं फिर आऊंगा और तेरे पै क़ब्ज़ा करूँगा’. 2 अक्तूबर को सावर्स नाम का अँगरेज़, गुडगाँव पर क़ब्ज़ा करने के लिए भेजा गया। 2 से 8 अक्तूबर के बीच गुडग़ांव में ज़बरदस्त मुठभेड़ें हुईं. एथेंस नाम का एक अँगरेज़ सैन्य अधिकारी अपनी डायरी में लिखता है; पहली बार मुझे लगा कि मैं विदेश में हूँ. फौज को लडऩे के लिए बार-बार उत्साहित करना पड़ रहा है. मुझे इतना डर कभी नहीं लगा। मैं किसी भी क्षण मारा जा सकता हूँ।

झज्जर, रेवाड़ी और बल्लभगढ़ पर फिर से क़ब्ज़ा करने के बाद, अंग्रेजों ने पूरी ताक़त से मेवात को घेर लिया। हर गाँव के बाहर तोप लगाई गईं. गाँव में आग लगा दिए जाने के बाद, जैसे ही ग्रामीण, जान बचाने के लिए भागते, उनका जानवरों की तरह शिकार किया जाता था। गिरफ्तार बागियों को तोप की नाल से बांधकर उड़ा दिया जाता था। अक्टूबर के पूरे महीने भीषण ख़ूनी जंग के बाद, 16 नवम्बर को अहिरवाल का किला अंग्रेजों के कब्जे में आया. उसके बाद तो सारी की सारी अँगरेज़ फ़ौज मेवात पर टूट पड़ी. 19 नवम्बर को मेवात के रुपड गाँव की सबसे भीषण लड़ाई में, एक-एक इंच ज़मीन के लिए खून बहा। अंग्रेजों ने वहां सभी पुरुषों को मार डाला। इसके बाद बाग़ी टोलियाँ सदरुद्दीन के मूल गाँव तिनगुआ में इकट्ठी  हुई। 27 नवम्बर को आखरी लड़ाई के बाद अंग्रेजों ने माना कि मेवात को जीते बगैर दिल्ली सुरक्षित नहीं रह सकती थी। 1300 अँगरेज़ और 18,000 बागी मारे गए। अंग्रेजों की तोपों और बंदूकों के मुकाबले मेवाती क्रांतिकारियों के हथियार थे; लाठी, जाली, गंडासा, भाला, बागी ग्रामीणों के पांवों में चप्पल भी नहीं होती थीं।

हिसार सेमिनार 19 मार्च को हिसार सम्मलेन में, मेवात के चप्पे-चप्पे से वाकिफ, फिरोज़पुर झिरका निवासी, डॉ अशफ़ाक खान ने अपनी तकऱीर, अली सरदार ज़ाफऱी की इस नज़्म से शुरू की।
इश्क़ का नगमा जुनूं के साज़ पर गाते हैं हम
अपने गम की आंच से पत्थर को पिघलाते हैं हम
जाग उठते हैं तो सूली पे भी नींद आती नहीं
और वक़्त पड़ जाए तो अंगारों पे सो जाते हैं हम
जि़न्दगी को हम से बढक़र कौन कर सकता है प्यार
और अगर मरने पे आ जाएँ तो मर जाते हैं हम
दफऩ होकर खाक़ में भी दफऩ रह सकते नहीं
लाला-ओ-गुल बनकर वीरानों पे छा जाते हैं हम
मेवात, दरअसल, एक जि़ला ‘नूह’ मात्र नहीं है. मेवात एक इलाक़े का नाम है जो हरियाणा और राजस्थान फैला हुआ है। ओमप्रकाश चौटाला ने, 2004 में, इस जिले को ‘सत्यमेवपुरम’ का नाम दिया था। उसके बाद भूपेन्द्र हुडा ने इसे बदलकर ‘मेवात’ किया। मनोहर खट्टर ने इसका नाम ‘नूंह’ कर दिया। लगभग 1100 साल पहले, मेवाती लोग आदिवासी रहे होंगे, क्योंकि आज भी उनके कई गोत्र और रीत-रिवाज़ मीणाओं से मिलते हैं. अँगरेज़ प्रशासन ने भी मेवातियों को जन-जाति ही माना था। इन गऱीब आदिवासियों को, इस्लाम धर्म, उन्हीं परिस्थितियों में स्वीकार करना पड़ा, जिनके चलते बाक़ी तथाकथित छोटी जातियों को हिन्दू धर्म छोडऩा पड़ा था; छुआछूत, असहनीय भेदभाव, सामाजिक तिरस्कार और उत्पीडन। मेवातियों का इतिहास गौर से पढ़ा जाए, तो पता चलता है कि भले इन लोगों ने इस्लाम धर्म कबूल किया और ये इलाक़ा दिल्ली के इतना कऱीब है, लेकिन फिर भी मेवाती, दिल्ली की इस्लामी सल्तनत और मुग़ल बादशाहत के पि_ू कभी नहीं रहे. वे बलबन के ज़ुल्मों से भी लड़े और ये सिलसिला बाबर, अकबर तक इसी तरह बदस्तूर चलता गया।

बाबर और राणा सांगा की ऐतिहासिक जंग में, मेवाती राज्य के आखऱी बादशाह हसन खां मेवाती, उनके बेटे के बाबर द्वारा बंदी बना लिए जाने और बाबर द्वारा इस्लाम की दुहाई देने के बावजूद, राणा सांगा की सेना के साथ लड़े. इतना ही नहीं, 3 अक्टूबर 1835 में, जब अंग्रेज़ों के खि़लाफ़ कहीं किसी बगावत का नाम तक नहीं था, फिऱोज़पुर झिरका के नवाब शमशुद्दीन और उनके शूटर करीम खां को, दिल्ली गेट पर सरे-आम फांसी दी गई. वज़ह ये थी कि अँगरेज़ विलियम फ्रेजऱ, एक गुंडा अफ़सर था और उसने मेवात की कई महिलाओं को अपनी हवश का शिकार बनाया था. नवाब शमशुद्दीन के हुक्म पर, शूटर कऱीम खां ने उसे गोली से उड़ा दिया था. यह देश की पहली फांसी थी. अंग्रेज़ों का ये भी हुक्म था कि उनके जऩाज़े में कोई शरीक ना हो, लेकिन 10,000 से भी ज्यादा मेवाती, जऩाज़े में शरीक़ हुए थे. 1857 की जंग-ए-आज़ादी में बागी घोषित होने के बाद, मेवात के गाँव घासेड़ा में 500, रूपड़ा में 442 और नगली में 52 लोगों को, एक साथ फांसी पर लटकाया गया था। इन गांवों में बनी शहीद मीनारों पर उन शहीदों के नाम गुदे हुए हैं. मेवाती अपने शहीदों का सम्मान करना भी जानते हैं। मेवातियों से देशभक्ति का सर्टिफिकेट मांगने वालों के लिए उन्होंने फऱमाया;

जब पड़ा वक़्त गुलिस्तां पे तो खूँ हमने दिया अब बहार आई तो कहते हैं तेरा काम नहीं मेवात की संस्कृति और ‘अमृत काल’ का तूफ़ानी विकासमेवातियों का लिबास, और संस्कृति, आज भी मुसलमानों से ज्यादा हिन्दुओं से मिलते हैं. मुसलमानों में जहाँ, चचेरी बहन से शादी हो जाती है, वहीं मेवाती की शादी, उसकें गाँव में कभी नहीं होती। रस्मो-रिवाज़ भी, जाटों और मीणाओं से बहुत मिलते हैं. 2019 चुनाव से पहले हिंदुत्व की नफरती राजनीति करने वाले जब, मेवात में मुस्लिम और जाटों के बीच दंगे भडक़ाने में कामयाब हुए, तब एक कहावत बहुत मक़बूल हुई थी, जाटों का क्या हिन्दू और मेवों का क्या मुसलमान!! मेवात में, औरत-मर्द का अनुपात पूरे हरियाणा में सबसे बेहतरीन है; 1000 लडक़ों के सामने 980 लड़कियाँ।

विकास के मामले में, मेवात के साथ हमेशा ही दुहांत हुआ है. मेवात में 60 गर्ल मिडिल स्कूल गांवों में हैं, जिनमें से 55 में एक भी अध्यापक नहीं है। मेवात जि़ले में 62 स्कूल ऐसे हैं, जिनकी कोई बिल्डिंग ही नहीं है लोगों ने शिकायत की तो सरकार ने गर्ल्स स्कूल में अध्यापकों की नियुक्ति करने की बजाए, उन्हें बॉयज स्कूल में मिला दिया. कई स्कूल ऐसे हैं, जहाँ 800 बच्चों पर कुल 3 अध्यापक हैं. भारत में ‘शिक्षा के अधिकार’ के तहत पहला मुक़दमा इसी ‘अनपढ़’ मेवात में दर्ज हुआ. एक बच्ची के पिता ने हरियाणा के शिक्षा सचिव के विरुद्ध मुक़दमा दर्ज किया था कि हमारी बच्ची के स्कुल में नियमानुसार 7 अध्यापक होने चाहिए, हैं कुल 3!! उसके बाद, एक एनजीओ की माफऱ्त कुछ शिक्षकों की भर्ती हुई. स्वास्थ्य सेवाओं का बंटाधार बाकी जिलों से ज्यादा संगीन है।

गाय और मेवात
मेवात में कुल 416 गाँव और 325 ग्राम पंचायतें हैं. पूरा क्षेत्र, खूबसूरत अरावली पहाड़ों वाला है. किसान अत्यंत गऱीब हैं। बकरी और गाय पालन, रोज़ी-रोटी का सहारा है। 13 सितम्बर 2015 को भारत का सबसे पहला और आज तक का इकलौता ‘मुस्लिम गाय पालन सम्मलेन’ मेवात में हुआ था, जिसके अध्यक्ष थे इलियासी साहब और मुख्य अतिथि, जऩाब मनोहरलाल खट्टर मुख्यमंत्री। सैकड़ों गाय पलकों को उन्होंने अपने हाथों से सम्मानित किया था, उनका महिमा मंडन किया। एक बहुत सुन्दर गाय मुख्यमंत्री को भेंट की गई। लेकिन संघियों को पलटी मारते देर नहीं लगती!! उस माहौल को खऱाब करने के लिए, उसके तत्काल बाद ‘हरियाणा गौ पालक संघ’ की ओर से, मेवातभर में चल रहे हज़ारों ढाबों से बिरयानी के सैंपल लिए गए, उनकी जाँच कराई गई; इनमें गोमांस तो नहीं है। ‘हमें, ये ऐलान करते हुए फख्र महसूस हो रहा है कि किसी भी सैंपल में गोमांस नहीं पाया गया’। ऐसे सैंपल मेवात के बाहर किसी भी ढाबे-होटल से नहीं लिए गए। मेवात को बदनाम करने का कोई अवसर मौजूदा सरकार ने नहीं गंवाया।’

‘गो-हत्या’ के नाम पर, बेक़सूर मेवाती, क्यों दरिंदगी की इन्तेहा झेल रहे हैं? जिंदा जलाकर मारने या लिंचिंग की वारदातें क्यों हो रही हैं? जि़न्दगी और मौत का ये खेल, गंभीर विवेचना की मांग करता है। मोनू राणा, भिवानी के गाँव लोहारू के बिलकुल पास का रहने वाला है, जहाँ जुनैद और नासिर को, बेदम पीटकर, जीप की सीट बेल्ट से बांधकर जिंदा जलाया गया। उस आदमी को ये कैसे पता चला, कि कई किलोमीटर राजस्थान के अन्दर, भरतपुर जिले में, जुनैद और नासिर के गाँव, घाटनीमका में, गाय की हत्या उन्होंने की? जब गाय की हत्या के आरोप में ऐसी बर्बर यातनाएं और क़त्ल हो रहे हों, तो कौन मुसलमान अपनी जि़न्दगी का जोखि़म लेकर गो-हत्या करेगा? लोग इस क़दर आतंकित हैं, कि जो व्यक्ति, गो-मांस कभी पहले खाता भी था, उसने भी पूरी तरह छोड़ दिया है। उसका नाम लेने, उसे छू लेने में भी, लोगों की रूह कांपती है। फिर ये ‘गो-हत्या और लिंचिंग’ का ख़ूनी खेल आखिऱ है क्या? क्या कोई सोच सकता है कि लिंचिंग की इतनी बर्बर घटनाओं के बाद भी कोई मुसलमान, काटने के लिए गाय, भिवानी, हिसार या रोहतक से, सैकड़ों पुलिस चौकियों और ‘गो-रक्षक’ गिरोहों को पार करते हुए, सैकड़ों किमी ले जाएगा? जिसके गाँव के लोग मारे गए हों, जिनके घर-परिवार के लोगों की बेदम पिटाई के बाद नृशंस हत्या हुई हो, वह अपनी जान को अक्षरश: हथेली पर रखकर, ये दुस्साहस करेगा? सवाल ही पैदा नहीं होता।

क्रूर हकीक़त ये है, कि ये जो ‘गो-रक्षक’ हैं, दरअसल ये ही ‘गो-तस्कर’ हैं. दिल्ली के पांच सितारा होटलों में गो-मांस, बहुत मंहगे दाम पर बिकता है। इस पूरे ख़ूनी दुष्चक्र में कोई कड़ी मुस्लिम भी हो, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता, लेकिन ये घिनौना खेल, इन गो-रक्षकों और पुलिस की मदद से ही खेला जाता है। गो-रक्षकों, मतलब गो-तस्करों और गो-मांस की आपूर्ति दिल्ली में करने वाले गिरोह के बीच जब, पैसे के बंटवारे पर झगड़ा होता है, तब ही ऐसी वारदातों को अंजाम दिया जाता है। जुनैद और नासिर का क़त्ल हो गया लेकिन वह तथाकथित ‘गो-मांस’ कहाँ गया? कहीं कुछ मिला? सम्मलेन में सभी वक्ताओं, कॉमरेड चाहना, कामरेड उदय और बाक़ी ने ये हकीक़त रेखांकित की.

मेवात को ‘मिनी-पाकिस्तान’ कहकर लानतें भेजने वाले, हरियाणा में क्राइम रिकॉर्ड खंगालेंगे तो पाएंगे कि मेवात जि़ले में क़त्ल, बलात्कार और दूसरे अपराध, बाक़ी जिलों से बहुत कम हैं. यहाँ कोई गैंग नहीं है। ‘लोरेन्स बिश्नोई’ का कोई मेवाती संस्करण नहीं है। मेवात में हिन्दू-मुस्लिम दंगा नहीं होता जबकि हिन्दुओं की तादाद महज़ 20 प्रतिशत है। अभी हरियाणा में, प्रदेश भर के सबसे शातिर 241 बदमाशों की लिस्ट प्रकाशित हुई है। मेवात जि़ले से सिर्फ एक बंदे का नाम है, जबकि बाकी जि़लों में कहीं भी 20 से कम नहीं हैं. मेवात में बाहर के कितने ही सरकारी कर्मचारी-अधिकारी-शिक्षक रहते हैं, जिनमें कई महिलाऐं भी हैं. क्या कभी सुना कि उनके साथ किसी मेवाती ने कोई ज़्यादती की हो? मेवात में पूरी नंगई के साथ खेली जा रही, हिंदू-मुस्लिम वाली नफरती राजनीति का मक़सद वही है, जो पूरे देश में है। बदकिस्मती से मेवात को मिनी-पाकिस्तान कहकर, ये काम आसान हो जाता है।

‘लव-जेहाद’ के मसले को लिया जाए। कुछ साल पहले, एक हिन्दू लडक़ी ने अपनी मंजूरी से एक मुस्लिम लडक़े से शादी की थी। उसके बाद हथियार लहराते हुए पंचायतें हुईं, मुस्लिमों को काट डालने के नारे सरेआम लगे गए। ‘देव सेना’ बनाने की घोषणाएँ हुईं. मामले को गंभीरता से परखा गया, तो पता चला कि 11 मुस्लिम लड़कियों ने हिंदू लडक़ों से शादी की हुई ह। हिन्दुत्ववादी कट्टरपंथी ज़रूर चाहते थे कि ‘देव सेना’ बने. कुछ कट्टरपंथी मुस्लिम भी उसका मुकाबला करने के लिए, ‘मेव सेना’ बनाना चाहते थे, लेकिन इलाक़े के मौज्जिज़़ लोगों ने इसकी इज़ाज़त नहीं दी. ‘गौ टास्क फ़ोर्स’ गिरोह जिसका लीडर मोनू मानेसर है, वे ही असली आतंकी हैं। वे देश के क़ानून और संविधान पर यकीन नहीं करत। फिर भी, यदि मोदी सरकार, गो-वंश बचाने में संजीदगी से यकीन करती है, तो ‘प्रयास’ जैसे सरकारी एप में ये प्रावधान हो कि यदि कहीं गो-हत्या हुई तो उसके लिए सरपंच, नम्बरदार, चौकीदार, आँगनवाडी, आशा वर्कर जि़म्मेदार होंगे. तुरंत इन गो-रक्षकों की हकीक़त खुलकर सामने आ जाएगी।

गो-रक्षकों के लिबास में गो-तस्करों के आतंक के बारे में, फिरोजपुर जिऱका के, अपराध अन्वेषण एजेंसी (ष्टढ्ढ्र) पुलिस के डीएसपी ने भी माना है कि गो-रक्षकों के लिबास में आतंकी घूम रहे हैं, और गौ-रक्षा एक व्यवसाय बन चुका है. प्रधानमंत्री बोल ही चुके हैं, कि कितने ही शातिर अपराधी, दिन में गो-रक्षकों का चोला ओढ़े घूमते हैं, और रात में दूसरे तमाम जघन्य अपराधिक गोरख धंधों में लिप्त रहते हैं. इन्हें छोड़ा नहीं जाना चाहिए. इस बयान को गंभीरता से नोट किया जाए, भले उनका ये कथन बहुत चालाकीपूर्ण है. कभी इन जघन्य अपराधों की जि़म्मेदारी तय होगी तो उनका ये बयान उनकी ढाल बन सकेगा!! मेवात को फ़ासीवादी भट्टी में जाने से बचाने की जि़म्मेदारी, अकेले मेवातियों की नहीं, बल्कि हम सब की है. सम्मलेन के समापन पर पढ़ी गई, ये नज़्म कितनी मौजूं है:
यही ज़ज्बा रहा तो मुश्किलों का हल भी निकलेगा ज़मीं बंजऱ हुई तो क्या, यहीं से जल भी निकलेगा न हो मायूस, ना घबरा अंधेरों से, ऐ मेरे साथी इन्हीं रातों के दामन से सुबह सूरज भी निकलेगा

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Mazdoor Morcha
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